बहुजन आंदोलनों की तासीर देखनी हो, तो उसका सबसे सघन फैलाव महाराष्ट्र में दिखता है। अपनी भारत यात्रा के दौरान हम पूना में महात्मा जोतीराव फुले की कर्मस्थली फुलेवाड़ा से सतारा जिला होते हुए करीब 200 किलोमीटर आगे बढ़कर कसेगांव पहुंचे। सतारा जिला भी जोतीराव फ़ुले से जुड़ा है। इसी जिले के खाटव ताल्लुका के काटगुन गांव में फुले के पूर्वज रहते थे जो बाद में फुलेवाड़ा में बस गये थे। हमारे लिए खास यह था कि इसी जिले पड़ोस का सांगली जिले के एक छोटे से गांव में अकादमिक जगत की महत्वपूर्ण शख्सियत गेल ऑम्वेट (मूल रुप से अमेरिकी) अपने पति और कई जन-आंदोलनों के नेतृत्व-कर्ता रहे भरत पतंकर के साथ रहती हैं। गांव का नाम है कसेगांव। हालांकि हम पहले भी गेल से मिल चुके थे, उन्हें दिल्ली के सभा-सेमिनारों में सुना-देखा था। लेकिन उन्हें करीब से देखने की हमारी तीव्र इच्छा थी। उनसे मिलने के उत्साह में पूणे से कसेगांव तक यह करीब तीन घंटे का सफर कब कट गया, यह पता ही नहीं चला।
अमेरिका में जन्मीं गेल भारत की उन गिने-चुने दार्शनिक अध्येताओं में शामिल हैं जिन्होंने भारत की सामाजिक व्यवस्था व ताने-बाने पर सबसे अधिक काम किया है। उनका सबसे महत्वपूर्ण काम जोती राव फ़ुले व उनकी पत्नी सावित्री बाई फ़ुले के अवदानों को समाज के बीच लाना रहा है। समाजशास्त्रीय अध्ययन व लेखन के अलावा गेल दलितों, किसानों और महिलाओं के आंदोलनों से जुड़ी रही हैं। उनके द्वारा लिखित “औपनिवेशिक समाज में सांस्कृतिक विद्रोह” (1873-1930 के बीच पश्चिमी भारत में गैर ब्राह्मण आंदोलन) मील का पत्थर माना जाता है। इस किताब में उन्होंने जोतीराव फ़ुले से लेकर आंबेडकर तक के सांस्कृतिक संघर्षों, राजनीतिक व सामाजिक बदलावों को कलमबंद किया है।
जब हम रास्ते में थे तब सोच रहे थे कि अमेरिका से आकर भारतीयों के लिए समर्पित समाजविज्ञानी और आन्दोलन करने वाली गेल ने एक भारतीय गांव में किस प्रकार अपना जीवन बिताया होगा? कसेगांव मुख्य हाईवे से कुछ किलोमीटर अंदर जाकर है। एक फ्लाईओवर से अंदर की ओर मुड़ते ही गांव शुरू हो जाता है। यह एक सामान्य गांव है। गांव के मुहाने पर ही कुछ लोग खड़े थे। हमने उनसे गेल ऑम्वेट के घर का पता जानना चाहा। उनमें अधिकांश उनके नाम से अपरिचित थे। लेकिन एक व्यक्ति ने जानकारी दी। उसने हमसे कहा कि आपको शायद भरत पतंकर जी के घर जाना है। हमने कहा, हां। उसने रास्ता बताते हुए कहा कि यहां गेल के नाम से लोग परिचित नहीं हैं। भरत पतंकर का घर पूछेंगे तो लोग आसानी से बता देंगे। गांव के खड़ंजे (ईंट की बनी) वाली गली पर्याप्त चौड़ी थी। हमें गाड़ी से उतरना नहीं पड़ा। थोड़ा अागे चलकर बाईं ओर की गली में भरत-गेल का घर था। वापसी में गाड़ी बैक करने में होने वाली कठिनाई के भय से हमने गाड़ी मुख्य गली में किनारे लगाई और वहां से गुजर रहे एक व्यक्ति से भरत पतंकर के घर के बारे में पूछा। उसने कुछ मकानों बाद वाले घर की ओर इशारा किया – ‘वह जो हरा सा है?’ हम चक्कर में पड़ गए। वह घर है या या ग्रीन हाऊस? घर के बाहर का हिस्सा दिख रहा था। पूरे बाहरी हिस्से पर हरे रंग की कपड़े की जाली लिपटी हुई थी। ऐसा लग रहा था कि कोई ढांचा हरे रंग की पुरानी मच्छरदानी से ढंका हुआ हो।
भरत जी से फोन पर बात हो चुकी थी। हम उस मच्छदानी के पास पहुंचे तो एक, दो फुट का गेट दिखा। वहां एक सुडौल शरीर वाले व्यक्ति ने स्टूल से उठकर हमारा परिचय लिया और घर की ओर थोड़ा अंदर जाकर भरत जी को आवाज दी। उन्होंने हमें अंदर आने का इशारा किया। हम उस विशालकाय मच्छदानी को पार कर बैठका में पहुंचे। बैठका में एक कम ऊँचाई का तख्त था, जो सोने और आराम से पालथी मारकर बैठने के उपयोग में लाया जाता रहा होगा। प्लास्टिक की चार कुर्सियां भी थीं। बैठक की छत नीची थी। एेसा अक्सर पुराने मकानों में हो जाता है। गलियां बार-बार की मरम्मत से ऊंची होती जाती हैं और मकान नीचे दबते चले जाते हैं। बैठक की दीवारों पर कई कैलेंडर और अनेक तस्वीरें थी। कुछ पदक और शील्ड भी तख्त के पीछे रखे थे।
भरत जी आए। छोटी दाढ़ी के बीच एक सुदर्शन चेहरा, लंबी कद-काठी और सौम्य मुसकान। उनके बारे में हम आपको यात्रा-संस्मरण के अगले हिस्से में बताएंगे। हमने उनसे जाना कि यह जो घर के आगे मच्छरदानी है वह दरअसल उनके बॉडी गार्ड के रहने के लिए की गई व्यवस्था है। गेल-भरत से बातचीत के बाद हम उनके घर के अंदर भी गए। पहले तल पर बुरी तरह जर्जर हो चुके तीन कमरे और एक बडी सी खुली रसोई। बहुत छोटा सा – साफ-सुथरा लेकिन खस्ताहाल बाथरूम। उन्होंने उसकी उपरी मंजिल पर भी एक या दो कमरे बनवाए हैं, लेकिन हम उनकी ऊपरी मंज़िल न देख सके।
भरत जी ने बताया कि जिस आदमी ने हमें रिसीव किया, वही उनके परिवार का बॉडीगार्ड था। कार्पोरेट कंपनियों की लूट के खिलाफ आंदोलन करने पर भरत पतंकर को असामाजिक तत्वों ने धमकियां दी थी, जिसके बाद स्थानीय प्रशासन ने उनकी सुरक्षा के लिए एक पुलिसकर्मी की तैनाती कर दी। भरत के परिवार के लिए यह एक नई मुसीबत थी। इस गार्ड को रखें तो कहां? इसलिए घर के बाहर जो छोटी सी बाउँड्री वॉल थी उसके ऊपर मच्छरदानी घेर दी। गांव में मच्छर बहुत हैं। गेल-भरत परिवार की गार्ड के लिए मच्छर-मुक्त आवास बनाने की यह युक्ति नायाब थी।
कुछ समय बाद गेल हमारे सामने थीं और हमारे पास एक पुर्जे पर लिखे हुए कुछ सवाल, जिन्हें हमने रास्ते में तैयार किया था। हमें पता था कि गेल का स्वास्थ बहुत साथ नहीं देता तथा वे मशीन के सहारे ही सुन पातीं हैं। गेल के प्रिय रहे युवा समाजशास्त्री ब्रजरंजन मणि ने हमें बताया था कि उनका इंटरव्यू करना तो शायद बहुत ही कठिन होगा। इन बातों के मद्देनजर हमने कुछ एकदम सामान्य सवाल बनाए थे, जो शायद कुछ ज्यादा ही “सामान्यीकृत” हो गए थे। गेल मशीन के बावजूद बहुत कम सुन पा रही थीं। वे आईं तो स्नेह से मिलीं लेकिन इंटरव्यू को लेकर बहुत ही अनिच्छुक भी दिखीं। अपनी युवा अवस्था में वे अन्य अमेरिकियों की ही तरह स्वस्थ, स्फूर्त और उर्जावान रहीं होंगी, लेकिन आज वे एक भारी-भरकम वृद्ध शरीर के साथ हमारे सामने थीं। वे बहुत ही धीरे-धीरे चलते हुए हम तक पहुंच पाईं थी और शायद उन्हें शरीर में कहीं पीड़ा भी थी, जिसकी शिकन उनके चेहरे पर साफ दिख रही थी। हमने उन्हें फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित किताबें – “बहुजन साहित्य की प्रस्तावना”, “चिंतन के जनसरोकार” और “महिषासुर : एक जननायक” के अंग्रेजी संस्करणों की प्रतियाँ भेंट की। महिषासुर वाली किताब में हमने उनकी भी एक छोटी सी टिप्पणी उनके ब्लॉग से लेकर प्रकाशित की थी।
इंटरव्यू के दौरान गेल के उत्तर बेहद संक्षिप्त थे। कुछ प्रश्नों पर एक-दो वाक्य का उत्तर तो कुछ के उत्तर में सिर्फ एक शब्द – हां, या नहीं।
हमने उनसे पूछा कि आपके भारत आगमन से लेकर अब तक यहां क्या सामाजिक बदलाव हुए हैं? उनका उत्तर था कि समाज में व्यवसायी-करण का प्रभाव दिखता है। जिंदगी अब और तेज हो गयी है। समाज में जाति की भूमिका के सवाल पर उन्होंने कहा कि जातिगत चेतना का उभार, बदलाव का बहुत बड़ा कारक रहा है,साथ ही उन्होने यह भी कहा कि यह गुणवत्तापूर्ण बदलाव नहीं है।
हम लोगों ने गेल से अकादमिक जगत को लेकर सवाल पूछा। उसके उत्तर में उनका कहना था कि एकेडेमिक लोग कब से, बुनियादी सवालों के साथ खड़े होने लगे? गेल के मुताबिक उन्हें भारतीय अकादमिक जगत से निराशा हुई है। उनके अनुसार बुद्धिजीवियों का सामाजिक जुड़ाव सतही है, उन्हें बुनियादी सवालों के साथ खड़ा होना चाहिए था। उन्होंने यह भी कहा कि इन्डियन एकेडेमिया (भारतीय बौद्धिक जगत) महज एक प्रकार का खेल बन गया है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अकादमिक जगत के बारे में वे क्या सोचती हैं। यह हमारा अगला सवाल था। उनके अनुसार गिरावट अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सामने आयी है। लेकिन भारत में स्थिति अधिक चिंतनीय है। वे मानती हैं कि यह गिरावट इसलिए भी आयी है क्योंकि बुद्धिजीवी कोई काम नहीं कर रहे हैं। इस स्थिति में सुधार अथवा बेहतर स्थिति के बारे में पूछने पर गेल ने कहा कि यह तभी हो सकता है जब बुद्धिजीवी स्वयं को आम आदमी की समस्याओं और उनकी आवश्यकताओं के साथ जोड़ें। हमारा अगला सवाल था कि भारत के किन अकादमिक हस्तियों को पसंद करती हैं? उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर देना पसंद नहीं किया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अकादमिक विशेषज्ञों के बारे में पूछने पर भी उन्होंने कहा कि किसी एक नाम कैसे लिया जा सकता है।
दलित बहुजनों के आंदोलन के संबंध में पूछने पर गेल ने कहा कि यह जारी है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि यह पहले से कमजोर हुआ है। यह पूछे जाने पर कि उनके लिहाज से वह कौन सा काल खंड था जब यह आंदोलन सबसे अधिक प्रभावकारी रहा। जवाब में गेल ने कहा कि अपने प्रारंभिक दिनों में यह आंदोलन सबसे अधिक प्रभावकारी रहा। क्या वह कालखंड महात्मा जोती राव फ़ुले से संबंधित रहा, जवाब में गेल ऑम्वेट ने कहा कि महात्मा फ़ुले एक व्यक्ति थे। उन्होंने सामाजिक सुधार की दिशा में पहल की थी, लेकिन तब यह आंदोलन की शक्ल अख्तियार नहीं कर पाया था। उन्होंने कहा कि उन दिनों दलितों, आदिवासियों और ओबीसी में अधिक एकजुटता थी। यह आंदोलन कमजोर कैसे हुआ, यह पूछने पर ऑम्वेट ने कहा कि असल में यह आंदोलन ही दूरगामी प्रभाव वाला नहीं है।
जब हमने यह पूछा कि आप आज के सामाजिक आन्दोलनों को कैसे देखती हैं? इसपर उन्होंने थोड़ी देर चुप्पी साधी और कहा कि आज कोई आन्दोलन नहीं हो रहा है। हमें थोड़ा आश्चर्य हुआ और दुबारा पूछा कि अलग-अलग संगठन और नेताओं के आन्दोलन के बारे में आप क्या कहना चाहेंगी? उन्होंने दुबारा यही कहा कि आज कोई आन्दोलन नहीं हो रहा है। उनके अनुसार सामाजिक आन्दोलन 1990 के दशक तक ही चला था। आज समाज में आन्दोलनों का अभाव है।
दलित-बहुजनों की एकता में संस्कृति के महत्व को रेखांकित करते हुए गेल ने कहा कि यह सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है। साहित्य और संस्कृति के जरिए ही दलित-बहुजनों के बीच बेहतर समन्वय कायम कर सकते हैं और मजबूत बना सकते हैं।
अंत में हमने उनसे यह जानना चाहा कि भारत में अपने, स्वयं के अकादमिक कार्यों को वे, किस रुप में देखती हैं। इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि यह संतोषजनक नहीं रहा। जाहिर, ऐसी विनम्रता सिर्फ गेल जैसी परफेक्सनिस्ट लेखिका में ही हो सकती है। यह पूछने पर कि भविष्य को लेकर उनकी क्या योजनाएं हैं, उन्होंने सहजता से कहा कि फ़िलहाल कोई नई योजना नहीं है।
हम गेल ऑम्वेट और भरत पतंकर के गांव कसेगांव से आगे बढ़ रहे थे। मन में वे सवाल गूंजते रहे जो जवाब के रुप में गेल ऑम्वेट ने रख छोड़ा था। हम सभी के लिए।
[फारवर्ड प्रेस टीम की भारत-यात्रा वृतांत का अंश। दिल्ली से कन्याकुमारी तक की इस यात्रा में फारवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक प्रमोद रंजन, समाजशास्त्री अनिल कुमार व फारवर्ड प्रेस के संपादक (अंग्रेजी) अनिल वर्गीज शामिल थे। 5 जनवरी- 15 फरवरी, 2017 के बीच की इस यात्रा में हमने 9 राज्यों और एक केंद्र शासित राज्य (हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, दमन, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, तामिलनाडु, केरल) में लगभग 12,000 किलोमीटर का सफर तय किया। टीम इस दौरान महाराष्ट्र के कसेगांव में 25 जनवरी को गेल ऑम्वेट व भरत पतंकर से उनके घर में मुलाकात की। आगामी कड़ियों में पढें भरत पतंकर से फारवर्ड प्रेस की टीम के संवाद को]
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