भीमा-कोरेगांव यह नाम दो स्थलों का संगम है। भीमा नदी का नाम है, जो कोरेगांव नामक गांव से गुजरती है। इसीलिए उस गांव को भीमा-कोरेगांव कहा जाता है। यह गांव पुणे से 20 कि.मी. की दूरी पर है। इस गांव में एक स्मृति-स्तंभ है, जिसे ब्रिटिश सरकार ने बनवाया था। इस स्तंभ को विजय-स्तंभ तथा शौर्य-स्तंभ भी कहा जाता है। इस शौर्य-स्तंभ को अभिवादन करने के लिए हर साल, नए वर्ष के पहले दिन महाराष्ट्र के दूर-दराज से लोग आते हैं। आजकल देश के अन्य हि्स्सों से भी लोग यहां आने लगे हैं।
भीमा-कोरेगांव के युद्ध को 200 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में लाखों लोग आ रहे थे। लेकिन, 1 जनवरी 2018 के इस नववर्ष के दिन, कुछ हिन्दुत्ववादी लोगों ने सुनियोजित तौर से यहां आने वाले लोगों पर हमला किया।
ऐसे में भीमा-कोरेगांव की शौर्यगाथा के बारे में जानना बेहद जरुरी है। आखिर देश का दलित इस स्तंभ को अपने विजयगाथा के रूप में क्यों देख रहा है? क्या है भीमा-कोरेगांव का इतिहास? भीमा-कोरेगांव की जड़े सामाजिक अन्याय तथा वर्ण-व्यवस्था के अत्याचारों से जुड़ी हैं। शिवाजी महाराज की हत्या के बाद और उनके पुत्र संभाजी को औरंगजेब द्वारा मारे जाने के बाद उनके राज्य को पेशवाओं ने कूटनीति से हड़प लिया था। सत्ता में आते ही पेशवाओं ने वर्ण-व्यवस्था का कड़ाई से पालन करने का आदेश दिया था। दलितों के लिए मंदिरों, तालाब और शिक्षा के दरवाजे बंद कर दिए गए थे। दलितों द्वारा सवर्णों को छूना पाप समझा जाने लगा। दलितों को रास्ते में चलते समय थूकने के लिए गले में मटका और पीछे से रास्ता साफ़ करने के लिए कमर में झाड़ू बाँधने के लिए बाध्य कर दिया गया था। उन्हें बारह बजे के पहले और तीन बजे के बाद में रास्ते से निकलना मना था। उन्हें गांव के बाहर अत्यंत अमानवीय स्थिति में रहना पड़ता था। अगर कोई दलित मंदिरों के आसपास भी दिखे तो उसे शारीरिक दंड देने का पेशवा का आदेश था। अगर रास्ते से गुजरते समय कोई भी ब्राह्मण दिख जाये तो, दलितों को पेट के बल लेटकर ब्राह्मण को प्रणाम करना अनिवार्य था। दूसरे बाजीराव के समय अगर कोई भी दलित पेशवाओं के शिक्षा संस्थान के सामने से यदि गुजर जाता, तब गुलटेकड़ी के मैदान में उस दलित के सिर को गेंद बनाकर और तलवार को डंडा बनाकर खेला जाता था। बॉम्बे गॅजेटियर ई.स.1884-85 में लिखा है दलितों को गावों में कुएं के पास से गुजरते समय इस बात का ध्यान रखना पड़ता था कि उसकी छाया कुएं पर न पड़े, कुएं पर छाया पड़ने के भय के चलते उन्हें घुटनों के बल चलना पड़ता था। दलितों (महार-मांग) को हर प्रकार का अत्याचार सहना पड़ता था। वह अपने साथ होने वाले किसी भी अत्याचार का विरोध नहीं कर सकते थे। क्योंकि उनके पास कोई भी मानवीय अधिकार नहीं थे। नए किले, भवन, पुल, तालाब के निर्माण के समय नींव में दलितों की बलि जाती थी। पेशवाई की क्रूरता, निर्ममता की कहानियों का स्पष्ट उल्लेख लोक कथाओं में मिलता है।
दलितों के पास इन अत्याचारों को सहने के सिवाय दूसरा रास्ता नहीं था। वे आर्थिक तौर पर लाचार थे। कोई भी समूह ऐसा अपमान और अन्याय कब तक सहता? अवसर मिलने पर इससे मुक्त होने की कोशिश तो करेगा ही। यह अवसर अंग्रेजों की सेना में भर्ती होने के बाद मिला। अंग्रेजों की सेना में दलितों की (महारों की) अपनी अलग फ़ौज थी। वे योद्धा थे। लेकिन व्यवस्था से पूरी तरह जकड़े हुए भी थे। भारतीय गैर-अछूत सैनिक भी उनके स्पर्श से बचते थे। युद्ध के समय वे सवर्ण सैनिकों को स्पर्श नहीं कर सकते थे। युद्ध के दौर में कभी भी साथ बैठकर खाना नहीं खाते थे। उनके तंबू अलग होते थे। खाना अलग से पकाया जाता था। उस समय भारत एक देश है यह संकल्पना अस्तित्व में ही नहीं था। राजा लोग अपने राज्य की सीमाएँ बढ़ाने के लिए आपस में लड़ाई करते थे। हिंदू राजाओं के पास मुस्लिम सैनिक थे। वैसे ही मुस्लिम राजाओं के पास हिंदू सैनिक हुआ करते थे। जिसको जहां उचित सम्मान और पगार मिलता था, वह वहां सैनिक की नौकरी करता था। धर्म और धर्मांधता को गौण स्थान प्राप्त था।
1 जनवरी 1818 को अंग्रेजों और बाजीराव द्वितीय पेशवा के बीच भीमा नदी के किनारे कोरेगांव में युद्ध होनेवाला था। युद्ध के पहले दलितों ने (महारों ने) पेशवाओं के सामने एक प्रस्ताव रखा था, अगर हम आपके साथ मिलकर ब्रिटिश के विरोध में लड़ते हैं, तब हमारी सामाजिक स्थिति में बदलाव करना होगा और उपहार के तौर पर जमीन देनी होगी। लेकिन पेशवाओं ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। अंतत: महार सैनिकों ने अपने सामाजिक बदलाव और आर्थिक हित के लिए ब्रिटिश लोगों के साथ मिलकर पेशवा के विरोध में लड़ने का निर्णय लिया। इस युद्ध में ब्रिटिश सैनिकों के साथ 500 महार सैनिक थे। इन महार सैनिको ने पेशवा के पच्चीस हजार सैनिकों वाली फ़ौज को पराजित किया। पेशवा अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर पेंशनर बन गए। इस लड़ाई में 22 महार सैनिक मारे गए। इन सैनिकों की याद में अंग्रेजों ने भीमा कोरेगांव में एक विजयस्तंभ खड़ा किया। जिसमें शहीद महार सैनिकों के नाम लिखे गए। इस तरह दलितों ने अपने अपमान और अन्याय का बदला लिया था।
इन शूर-वीर महार सैनिकों के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए डॉ. आंबेडकर हमेशा 1 जनवरी कों भीमा-कोरेगांव जाया करते थे। बाबासाहब के पश्चात उनके अनुयायी हर साल 1 जनवरी कों भीमा कोरेगांव जाने लगे। पेशवाओं के शासन की समाप्ति के बाद से दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बदलाव आना शुरू हुआ। ब्रिटिश शासन केवल दलितों के लिये ही नहीं, बल्कि पूरे बहुजन समाज के उत्थान के लिए संजीवनी साबित हुई । ब्रिटिश भारत में बहुजन समाज के सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक बदलाव के साथ उन्हें शिक्षा (पढ़ाई) के मौके प्राप्त हुए। आगे चलकर स्वतंत्र भारत में संविधान द्वारा उन्हें पूरे अधिकार प्राप्त हुये, जिसे मनुस्मृति ने जकड़ रखा था। धर्मशास्त्रों से बहुजनों को मिली मुक्ति से धर्म के ठेकेदारों और शास्त्र निर्माताओं की जमात को झटका लग गया था। उन्हें अपनी पुरानी मनुवादी व्यवस्था को पुनर्स्थापित करना था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना को इसी दृष्टिकोण से देखना चाहिए। आज संघ और उसकी विविध शाखाएं अपना वही मिशन पूरा करने में लगी हैं।
1 जनवरी 2018 के पांच दिन पहले वढू गांव में गोविंद गणपत गायकवाड के समाधि के छत को शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के कार्यकर्ताओं ने तोड़ दिया। संभाजी भिडे इस शिव प्रतिष्ठान का संस्थापक है। यह गोविंद गायकवाड वही दलित थे, जिन्होंने औरंगजेब द्वारा शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी महाराज को पकडकर उनके शरीर के टुकड़े कर नदी में फेंके जाने के बाद, उनके शरीर के टुकडों को इकट्ठा किया। बाद में उन टुकड़ों को सिलकर उसे जलाया गया और उसी स्थान पर संभाजी महाराज की समाधि बनाई गई। गोविंद गायकवाड की समाधि भी वढू गांव में संभाजी महाराज के समाधि के पास ही स्थित है। लेकिन संभाजी भिडे के शिव प्रतिष्ठान द्वारा जातीय और विरोधी प्रचार किया जा रहा है। इस प्रचार के चलते शिव प्रतिष्ठान के लोगो ने गोविंद गायकवाड के समाधि का छत तोड़ दिया और उस गांव के दलितों पर हमला करने की धमकी दी थी।
भीमा-कोरेगांव के शौर्यस्तंभ पर जिन सैनिकों के नाम अंकित हैं उन महार सैनिकों का अभिवादन करने के लिए महाराष्ट्र और देश के अनेक राज्यों से लोग 1 जनवरी 2018 के पहले ही आने लगे थे। इस वर्ष विजयस्तंभ को दो सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में ज्यादा ही लोग आ रहे थे। आ रहे इन लोगों पर अचानक मनोहर उर्फ संभाजी भिडे के शिव प्रतिष्ठान और हिंदू एकता के मिलिंद एकबोटे के कार्यकर्ताओं द्वारा पूर्वनियोजित हमला किया। अचानक हुए इस हमले में हमलावरों ने 40 गाड़ियों को तोड़ा और जला दिया। पत्थरबाजी में अनेक बच्चे, महिलाएं और पुरुष घायल हो गए। इसमें एक आदमी की जान भी चली गई। इस हमले के जिम्मेदार मनोहर उर्फ संभाजी भिडे और हिंदू एकता के मिलिंद एकबोटे के ऊपर एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत एफआईआर दर्ज हुआ। लेकिन अभी तक उन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया। ये दोनों भडकाऊ भाषण और दंगा करने के लिए प्रसिद्ध हैं। पहले भी पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार उनके ऊपर मुकदमे दर्ज हैं। संभाजी भिडे गढ़-किले संवर्धन तथा मिलिंद एकबोटे हिंदुत्व का आधार लेकर मराठा युवाओं के दिलो-दिमाग में मुस्लिम और दलितों के खिलाफ विद्वेष भर रहे हैं। झूठा एंव मनगढंत इतिहास गढ़ कर युवाओं को बताया जाता है। संभाजी भिडे और मिलिंद एकबोटे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़े हुए हैं। भिडे के कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी और देवेन्द्र फड़णवीस भी शिरकत कर चुके हैं, इसीलिए शायद उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा रहा। आखिर ऐसे हमलावर और आतंक फैलाने वाले भिडे और एकबोटे कों क्यों बचाया जा रहा है? क्या मानवाधिकारों के हनन और दलितों पर हुए हमले को सरकारी समर्थन प्राप्त है? यह मानवता पर आक्रमण था और आक्रमणकारी हिन्दुत्ववादी और धर्म के ठेकेदार थे।
आजतक कभी भी भीमा-कोरेगाव के लोगों द्वारा 1 जनवरी कों अपनी दुकाने बंद नहीं की गई थी, लेकिन इस वर्ष 1 जनवरी को गांव में पूरा बंद रखा गया। इतना ही नहीं ग्राम पंचायत द्वारा बकायदा गांव में बंद रखने का प्रस्ताव पास पारित किया। शायद भारत के इतिहास का यह पहला प्रसंग होगा। स्तंभ को अभिवादन करने आए लोगो पर पत्थर फेंकना और गाडियों को जलाने का काम योजनाबद्ध तरीके से किया गया था। लोगों को मारने के लिए पहले से ही पत्थर इकट्ठा किए गए थे। उनके हाथ में भगवे झेंडे थे। वायरल हुए वीडियो में हमलावर यह दावा कर रहे थे कि पुलिस प्रशासन उनके साथ है। छोटे बच्चे, महिलाओं को पत्थरों से मारना कौन सी महानता है? यह क्रूरता और कायरता का लक्षण है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किस हदतक गिर सकता है, इसका भीमा कोरेगांव हिंसा एक ज्वलंत उदहारण है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था तथा मीडिया ने इसे दलित बनाम मराठा और दलित बनाम हिंदू का रूप दिया है। क्या दलित हिंदू नहीं है? अगर नहीं तो वे किस धर्म के है? तथाकथित मीडिया को यह स्पष्ट करना चाहिए।
दलितों पर नियोजित हमले का विरोध तथा हिन्दुत्ववादी संभाजी भिडे और मिलिंद एकबोटे को गिरफ्तार करने के लिए दलित संगठनों द्वारा महाराष्ट्र बंद रखा गया। यह बंद भीमा कोरेगांव के निहत्थे लोगों पर किए गए हमले के विरोध में प्रतिक्रिया स्वरूप था। लेकिन पुलिस प्रशासन ने बंद में शामिल लोगों कोगिरफ्तार कर जेल में डालकर उनके ऊपर मुकदमे दर्ज कर दिए। टीवी चैनलों ने भाजपावादी होने के कारण भीमा कोरेगांव में हिंदुत्ववादियोंद्वारा किया गया हमला, पत्थरबाजी एंव 40 गाड़ियों के जलाने के कृत्य को जानबूझकर नहीं दिखाया। लेकिन दलितों द्वरा किए गए महाराष्ट्र बंद को नकारात्मक तरीके से दिखाया गया। मीडिया द्वारा सत्य को दबाया जा रहा है तथा असत्य को दिखाया जा रहा है। टीवी पर हिन्दुत्ववादी लोगों को बुलाकर तथ्यों को तोड-मरोडकर पेश किया जा रहा है। यह मीडिया की जातिवादी तथा ब्राम्हणवादी मानसिकता का परिचायक है। इस देश का मीडिया पूर्णत: पक्षपाती हो गया है। भारत में गरीबों का दमन किया जा रहा है तथा उन्हें कुचला जा रहा है।
भीमा कोरेगाव हमले के विरोध में जिन लोगों ने आंदोलन किया उन्हें कांबिंग ऑपरेशन द्वारा गिरफ्तार किया जा रहा है। लेकिन जिन्होंने दंगा शुरू किया उन्हें अभीतक गिरफ्तार नहीं किया गया है। वे खुलेआम घूम रहे हैं। इतना ही नहीं, संभाजी भिडे और दिलीप एकबोटे कों पुलिस संरक्षण दिया गया है। यह मानवाधिकार का हनन है। चंद्रशेखर आजाद ने हमलावरों के विरोध में आत्मरक्षा के लिए आवाज उठाई तो, उन पर रासुका लगा दिया। उना के अत्याचार पर जिग्नेश मेवानी ने मनुवादियों को ललकारा तो उन्हें देशद्रोही कहा गया। लेकिन दलितों पर जिन्होंने अत्याचार किया और जिन्होंने ऐसा करने के लिए उकसाया वे ना कभी गिरफ्तार हुए, ना कभी उन्हें जेल हुई। लेकिन इन अत्याचारों के खिलाफ जो लोग आवाज उठा रहे है, उन्हें पुलिस मार रही और जेल में डाल रही है। क्या यह असहिष्णुता का सहिष्णुता पर विजय नहीं है? यह लोकतंत्र का कौन सा अवतार है? क्या भारत अब तालिबानी संहिता की ओर चल पड़ा है? वंचित तबकों के खिलाफ हो रहे अन्यायों और अत्याचारों का कैसे जवाब दिया जाए, देश के दलितों, आदिवासियों तथा ओबीसी लोगों को इसका उत्तर ढूंढना होगा।
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