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भीमा कोरेगांव : एकजुट हो रहे हैं, दलित-बहुजन और अल्पसंख्यक

भीमा-कोरेगांव के पूरे घटनाक्रम के संबंध में तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया भ्रामक खबरें प्रचारित करती रही। इस पूरे मामले को दलित बनाम मराठा संघर्ष के रूप में भी पेश किया गया, जबकि सच्चाई इसके उलट थी। कैसे भीमा-कोरेगांव दलित-बहुजन एवं अल्पसंख्यक वर्गों में एकता के सूत्र मुहैया करा रहा है, विश्लेषण कर रहे हैं, महाराष्ट्र से जनार्दन गोंड :

नए साल का पहला दिन और सहमी हुई मुंबई ! हर चेहरा परेशान ! लोग हर पल की खबर घर वालों को बताने में लगे थे। वाट्सअप पर किसी का संदेश आया कि थाणे में लोकल ट्रेन रोक दी गई है। हमें थाणे से ट्रेन बदलना था। चिंता तो हुई मगर दबा लिया, सोचा जो होगा देखा जाएगा, और क्या पता खबर पक्की ही न हो! ho

थाणे का मंजर बदला हुआ था। लोकल ट्रेनें चल तो रही थीं,लेकिन स्टेशन खाली–खाली लग रहा था। कांजूरमार्ग की दुकानें बंद थीं। मेरे साथ एक मित्र थे, जो पहली बार मुंबई आए थे, मैं, उन्हें उनके गंतव्य तक छोड़, पैदल ही आगे बढ़ गया। कुछ लोग बीबीएम (भारतीय रिपब्लिकन पार्टी बहुजन महासंघ) और प्रकाश आंबेडकर को गाली दे रहे थे। लोगों को लग रहा था कि इन तमाम असुविधाओं के लिए बीबीएम के नेता ही जिम्मेदार हैं। उनके पास दलित विरोधी खबरें पहुंच रही थीं। वे गुस्से में गालियां दे रहे थे। नफरत की आंच उनमें धीरे–धीरे बढ़ रही थी। उनके हिसाब से दलित होना, दंगाई होना था।

महाराष्ट्र बंद का एक दृश्य

घर पहुंचने पर इस विषय में जानकारी के लिए समाचार चैनलों पर नजर दौड़ाया। हिंदी के तमाम समाचार चैनलों पर मुंबई, नागपुर, नासिक, पुणे और कई सारे शहरों में जनजीवन के ठप्प होने की खबरें आ रही थीं। दिखाया जा रहा था कि दलित समाज के लोग बेकाबू हो कर रेल और सड़क को जाम किए हुए हैं। धन-जन की क्षति कर रहे हैं। मराठी समाचार चैनलों पर भी ऐसा ही नजारा था। सभी जगह दलित आक्रोश से आम निवासियों को रही परेशानियों को दिखाया जा रहा था, कहीं–कहीं इसे राष्ट्रद्रोह तक कहा जा रहा था। बहुत कम चैनलों ने बताया कि भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ के विजयोत्सव में आए दलितों पर हमला किसने किया अथवा किसने कराया ?

मंगलवार की रात और बुधवार की सुबह तक मुख्यधारा की मीडिया द्वारा न सही, पर सोशल मीडिया और वैकल्पिक मीडिया द्वारा लगभग पूरे देश को पता चल चुका था कि भीमा-कोरेगांव की हिंसा सुनियोजित थी, जिसमें संभाजी भिडे ब्रिगेड और मिलिंद एकबोटे के संगठनों, शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान और हिंदू एकता अगाड़ी द्वारा अंजाम दिया गया था। मजे की बात तो यह थी कि मुख्यधारा की मीडिया द्वारा जिग्नेश मेवानी और उमर खालिद की भूमिका पर सवालिया निशान लगाया जा रहा था। इसके ठीक उलट संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे की भूमिका पर चर्चा करने से बचा गया। अर्थात प्रतिक्रिया पर इतना शोर किया गया कि क्रिया के कारनामे पीछे छूट गए।

भारतीय रिपब्लिकन पार्टी बहुजन महासंघ के अगुवा प्रकाश आंबेडकर

जाहिर तौर पर वर्तमान दौर में मीडिया दिनोंदिन अपने सामाजिक तानेबाने और आर्थिक फायदों को केंद्र में रखने कारण रसातल की ओर अग्रसर है। अच्छी बात है कि वैकल्पिक मीडिया सचेत रूप से काम कर रहा है। दरअसल असल सवाल राजनीतिक सोच की है। सोचना यह है कि भीमा-कोरेगांव में हुई इस घटना का अभिप्राय क्या है? क्या यह 1 जनवरी 2018 को अचानक बदइंतजामी के कारण उत्पन्न हुआ या जिस तरह प्रचारित किया जा रहा कि यह मराठा और दलितों के बीच उत्पन्न संघर्ष का परिणाम है? इन प्रश्नों के साथ यह भी सोचना जरूरी हो जाता है कि क्यों बार–बार पिछड़ी और दलित जातियों के बीच काल्पनिक शत्रुता की बात प्रचारित किया जा रहा है?

दलितों और पिछड़ों के खिलाफ की गईं इस प्रकार की साजिशों से भले ही किसी खास विचारधारा को लाभ मिले, पर देश को हर प्रकार से हानि ही हानि है। पिछड़ी जाति अर्थात मराठा और दलित के बीच संघर्ष की बात हवा–हवाई साबित हो जाती है, क्योंकि भीमा कोरेगांव में आने वालों में, दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग शामिल थे। जिस लड़के की मौत हुई वह मराठा जाति से था और वह विजयस्तंभ का दर्शन करने आया था। अतीत से लेकर आज तक पिछड़ी, दलित और अल्पसंख्यक जातियों के बीच कभी भी संघर्ष नहीं रहा। स्वयं शिवाजी की सेना में इन सभी वर्गों के लोग शामिल थे। इसके अतिरिक्त ये जातियां श्रमण संस्कृति का वाहक रही हैं, जिसकी वजह से ये आंतरिक रूप से एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। देश के दूसरे हिस्सों की तरह महाराष्ट्र में भी पिछड़ों और दलितों के बीच साहचर्य देखने को मिलता रहा है। सन 1668 में शिवाजी के जेठ पुत्र संभाजी का शरीर टुकड़े–टुकड़े करके नदी में बहा दिया गया था। ऐसे मुश्किल समय में बधु बुदरुक का रहने वाला एक दलित, गोविंद महार (गायकवाड़) ने संभाजी के टुकड़ों को सहेजा और बुधु बुदरुक गांव के महारों ने संभाजी का अंतिम संस्कार किया। यहां संभाजी महाराज की समाधि है और मृत्युपरांत गोविंद महार का भी मकबरा यहीं बनाया गया।

शिवाजी के राज को पेशवाओं ने हथिया लिया और शासन की पद्धति को  बदल दिया। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का स्थान मनुवादी व्यवस्था ने ले लिया। सबसे पहले महारों को सेना और शौर्य से अलग किया गया। पेशवा और श्रीमंतों द्वारा शनिवार वाड़ा में दलित और पिछड़ी वर्ग की महिलाओं का अस्मत रोज–रोज तार–तार किया जाने लगा। पेशवा बाजीराव द्वितीय के समय में यह शोषण अपने चरम पर पहुंच गया था। मनुवाद की पुनर्स्थापना से दलितों का जीवन नरक हो गया था। इसलिए जब 1 जनवरी 1818 को भीमा कोरेगांव में लगभग पांच सौ महार सैनिकों ने पचीस हजार से अधिक पेशवा सेना को धूल चटा दिया, तो सभी जातियों की स्त्रियों ने पुना में मिठाई बांटकर इसे आजादी के जश्न के रूप में मनाया।

भीमा- कोरेगांव का विजय-स्तंभ

कई लोग हैं, जो भीमा-कोरेगांव की विजय को अंग्रेजों की चाल बताते हुए कहते हैं कि महारों ने भारत के खिलाफ लड़ाई लड़ी। जबकि पेशवा भारत के कोई आदर्श शासक नहीं थे, ना ही उनका अत्याचार भूला जा सकता है। उनके शासन का रूख शिवाजी की तरह सर्वसमावेशी नहीं था। महारों का संघर्ष अपनी अपनी अस्मिता को स्थापित करने के लिए था। असल समझौता महार सैनिकों ने नहीं, स्वयं श्रीमंत बाजीराव द्वितीय द्वारा 31 दिसंबर 1802 में मुंबई छावनी में किया गया। पेशवा और अंग्रेजों के बीच यह समझौता इतिहास में बसई करार के नाम से जाना जाता है।

इस करार में चार शर्ते थीं –

1-   पेशवा दस हजार अंग्रेज सैनिक अपनी सेवा में रखेगा।

2-   तैनात सैनिकों के खर्च का वहन पेशवा द्वारा अपने राज्य से उगाही करके किया जाएगा।

3-   यदि पेशवा उगाही करने में सफल नही होते तो उन्हें उगाही का अधिकार अंग्रेजों को देना होगा।

4- पेशवा अंग्रेजों की अनुमति के बिना कोई करार या युद्ध नहीं करेगा।

भीमा कोरेगांव की वर्तमान घटना को तत्कालिक राजनीतिक परिदृश्य, सांस्कृतिक टकराहट और बेराजगारी व मंहगाई से भी जोड़ कर देखा जाना चाहिए। रोहित बेमुला के समय से ही दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक एक मजबूत आवाज बन कर उभरे हैं। कुछ लोग डरे हुए हैं कि अगर यह तबका वोट में तब्दील हो गया तो, महान राजनीतिक परिवर्तन तक हो सकता है। हालांकि अभी वह संभावना थोड़ी दूर है, क्योंकि इतनी बड़ी आवाज को संभालने वाला कोई मूलनिवासी सर्वस्वीकृत राजनीतिक नेता नहीं है। एक तरह का खालीपन बना हुआ है। वैसे जिग्नेश मेवानी का उभरना मूलनिवासी राजनीति के लिए एक सकारात्मक परिवर्तन की ओर इशारा करता है। इसलिए हो सकता है कि इस तरह के विरोध और आंदोलन आने वाले समय में परिणाम में परिवर्तित हो पाएं। इस रूझान से एक खास विचारधारा के लोग खासे परेशान हो गए हैं। शक्ति के तमाम स्रोतों के रहते भी उसकी बात नहीं बन पा रही है। यही कारण है वह दलितों और पिछड़ों को बांटने के लिए काल्पनिक विभाजन का सहारा लेकर इन्हें रोकने और औकात में रखने में लगी हुई है, जिसके लिए वह बार–बार हिंसात्मक कार्यशालाएं आयोजित करती है।

दूसरी बात यह भी है की श्रमणशील और शोषक संस्कृति के मध्य हमेशा से टकराहट रही है। एक संस्कृति को बड़ा बताने के लिए दूसरी को बार–बार नीचा दिखाया जाता है। इस सिलसिले में तथाकथित रूप से कुछ जातियों को नीच, मलेच्छ और असूर तक कहा गया। नेतृत्व और एकता के अभाव में श्रमिक जातियां गुलाम बना दी गईं। इन जातियों के साथ हुई बेइंसाफी ऐतिहासिक है, किंतु जैसे–जैसे ये प्रबुद्ध होंगी, आगे बढ़ना चाहेंगी और सहोदर जातियों से जुड़ने की कोशिश करेंगी, वैसे-वैसे हमेशा की तरह उन्हें रोकने, तोड़ने अथवा मिटाने का प्रयास किया जाएगा। इसके साथ ही देश में आम आदमी के लिए अवसरों में लगातार गिरावट आई है। वंचितों की संख्या में निरंतर इजाफा हुआ है। ये सारे कारण हिंसा का व्याकरण रचते हैं। इस अर्थ में भीमा-कोरेगांव के विजय स्तंभ ने मूलनिवासी समाज के राजनीतिक आकांक्षा को फिर से हवा दे दिया है।


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लेखक के बारे में

जनार्दन गोंड

जनार्दन गोंड आदिवासी-दलित-बहुजन मुद्दों पर लिखते हैं और अनुवाद कार्य भी करते हैं। ‘आदिवासी सत्ता’, ‘आदिवासी साहित्य’, ‘दलित अस्मिता’, ‘पूर्वग्रह’, ‘हंस’, ‘परिकथा’, ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिकाओं में लेख ,कहानियां एवं कविताएं प्रकाशित। निरुप्रह के सिनेमा अंक का अतिथि संपादन एवं आदिवासी साहित्य,संस्कृति एवं भाषा पर एक पुस्तक का संपादन। सम्प्रति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी व आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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