हाल ही में मानव संसाधन मंत्रालय ने एक निर्णय लिया है। इस निर्णय से उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षक पदों पर अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण पर प्रतिकूल पड़ेगा। इसके तहत अब इन संस्थानों में शिक्षक पदों पर आरक्षण लागू करते समय पूरे विश्वविद्यालय को एक इकाई मानने की जगह विभागों को इकाई माना जायेगा। मानव संसाधन मंत्रालय का यह निर्णय सामाजिक तौर पर एक प्रतिगामी निर्णय है। मंत्रालय का यह दावा है कि उसका यह निर्णय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर आधारित है, जिस निर्णय में आरक्षण का यह नया फार्मूला प्रस्तुत किया गया था। यहां यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि मानव संसाधन मंत्रालय का यह निर्णय शिक्षक पदों पर एससी, एसटी और ओबीसी के लोगों की संख्या में तेजी से बडे पैमाने पर और कमी करेगा और यह निर्णय आरक्षण को मूल उद्देश्य को ही खत्म कर देगा।
ऐतिहासिक कारणों से भारत में तीन क्षेत्रों- शिक्षा, रोजगार और विधायिका में आरक्षण लागू किया गया था। शिक्षा और रोजगार जैसे पहले दो क्षेत्रों में आरक्षण देने का उद्देश्य ऐतिहासिक तौर पर वंचित इस समुदायों की उच्च शिक्षा एंव तकनीकी शिक्षा और रोजगार के अवसरों तक पहुंच कायम करना था। लेकिन शिक्षा और रोजगार में आरक्षण देने की इससे भी बड़ी वजह इन संस्थानों में जाति आधारित भेदभाव की नीति पर रोक लगाना था, क्योंकि इन संस्थानों में आरक्षण के बिना वंचित तबकों के योग्य लोगों के साथ भी जाति के आधार पर भेदभाव किया जाता है।
सकारात्मक भेदभाव के विशिष्ट भारतीय रूप में आरक्षण की नीति की एक खास विशेषता यह रही है कि भारत में जनसंख्या के अनुपात में सभी क्षेत्रों में आरक्षण की नीति प्रस्तुत की गई थी। केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर। यह चीज अन्य देशों में लागू की गई इस तरह की नीति से भिन्न थी। इस तरह क्रमश: एसी और एसटी के लिए 15 और 7.5 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया था। इसी तरह 2006 में संविधान संशोधन के माध्यम से केंद्रीय विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया था।
आरक्षण के बारे में आमतौर लोगों की एक गलत समझ है, ऐसी समझ रखने वाले लोगों में शिक्षित लोग भी शामिल है। वह गलते समझ यह है कि ज़्यादातर लोग यह सोचते हैं कि एसी और एसटी के लिए मूल रूप से आरक्षण केवल संविधान लागू होने के बाद 10 वर्षों के लिए था। जबकि ऐसी बात नही है। 10 वर्ष का प्रावधान केवल राजनीतिक आरक्षण के संदर्भ में था, जिसके चलते हर 10 वर्ष बाद इसे बढाने की जरूरत पड़ती है।
शिक्षा, रोजगार और विधायिका के तीन क्षेत्रों में आरक्षण की ऊपर बात की गई है, उसमें शिक्षा और रोजगार में आरक्षण राजनीतिक आरक्षण की तुलना में इन समुदायों की जीवन स्थिति को बेहतर बनाने में ज्यादा कारगर साबित हुआ। खास कर एसी और एसटी के मामले में। इन क्षेत्रों में आरक्षण का सही तरीके से क्रियान्वयन न होने के बावजूद भी शिक्षा में आरक्षण ने आवश्यक शैक्षिक कौशलों और क्षमताओं का विकास किया, जिसने इन समुदायों को रोजगार के अवसरों का फायदा उठाने लायक बनाया। जाति आधारित असमाताता वाले समाज में आरक्षण ने इन समुदायों के बीच अध्यापकों, प्रोफेसरों, डाक्टरों, वकीलों, उच्च पदस्थ नौकरशाहों, कवियों, लेखकों आदि को पैदा किया। इस प्रक्रिया में उच्च-तकनीकी-प्रोफेशनल शिक्षा तक की पहुंच ने एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाई। विश्विद्यालयों में आरक्षण के नए फार्मूले का क्रियान्वयन इस स्वागत योग्य सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को उलट देगा।
सबसे पहले आज की वास्तविक स्थिति का जायजा लेते हैं। विश्विद्यालय अनुदान आयोग ( यूजीसी ) की 2016-17 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार कॉलेज और विश्विद्यालयों में कुल 14.7 लाख अध्यापक हैं। 13.08 लाख ( 89 प्रतिशत) कॉलेज में और 1.6 लाख( 9.1 ) प्रतिशत विश्विद्यालयों में। यह रिपोर्ट 30 केंद्रीय विश्विद्यालयों और 82 राज्यों के सरकारी विश्विद्यालयों में श्रेणी आधारित एसी,एसटी और ओबीसी के शिक्षकों की स्थिति भी प्रस्तुत करती है। यह रिपोर्ट बताती है कि प्रोफेसरों के कुल 31 हजार 446 पद हैं, इसमें एसोसिएट और असिस्टेंट प्रोफेसर शामिल हैं। 31,446 में से 9,130 पदों पर एसी, एसटी और ओबीसी हैं। यह कुल पदों का 29.03 प्रतिशत है। जबकि इन सभी वंचित समुदायों का आरक्षण 49.5 प्रतिशत है। आरक्षित वर्ग के कुल 9,130 शैक्षिक पदों में 7,308 (80 प्रतिशत) अस्टिटेंट प्रोफेसर, 1,193(13.06 प्रतिशत) एसोसिऐट प्रोफेसर और मात्र 629(6.9 प्रतिशत) प्रोफेसर हैं। यह रिपोर्ट कॉलेजों में शैक्षिक पदों की आरक्षित वर्गों की क्या स्थिति है, इसके बारे में कुछ नहीं कहती, लेकिन कोई भी इस बात का अंदाज लगा सकता है कि हालात कुछ ज्यादा बेहतर नहीं होगी।
जब विश्वविद्यालय को इकाई मानकर आरक्षण लागू किया जा रहा है, उस स्थिति में जब हालात इतना बदत्तर है, तो जब इसकी जगह शैक्षिक पदों पर एसी,एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने की इकाई विभाग को माना जायेगा, जब स्थिति क्या होगी? इस बात का जवाब खोजना कोई कठिन काम नहीं है।
इसके अलावा शिक्षा, विशेषकर उच्च-तकनीकी-प्रोफेशनल शिक्षा के निजिकरण के इस दौर में वंचित तबके के लोग अपनी शिक्षा के लिए मुख्य तौर पर सरकारों द्वारा वित्त पोषित केंद्रीय और राज्य विश्विद्यालयों और कॉलेजों पर निर्भर हैं। यह बात रोजगार के बारे में भी लागू होती है। निजी विश्विद्यालय और शैक्षिक संस्थान आरक्षण की नीति लागू नहीं करते हैं और न तो वे फीस में छूट देते हैं और न ही छात्र-वृति देते हैं। दुखद बात यह है कि सरकारी उन सरकारी संस्थाओं का निजीकरण कर रही है, जिन संस्थाओं वंचित समुदायों को ये फायदे प्राप्त थे। इन समुदायों के वे हजारों छात्र जो परास्नातक, एमफिल और पीएच.डी कर रहे हैं वे केंद्रीय विश्विद्यालों और राज्य विश्विद्यालयों पर ही उच्च-तकनीकी-प्रोफेशनल शिक्षा और शिक्षक बनने के लिए निर्भर हैं। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 2005 में राजीव गांधी नेशनल फेलोशिप प्रोग्राम के तहत है एससी और एसटी छात्रों के लिए 20,000 वार्षिक फेलोशिप शुरू किया था। यह फेलोशिप एमफिल और पीएच.डी के लिए थी। इस समय कम से कम 15,000 एससी और एसटी छात्र यह डिग्री प्राप्त कर रहे हैं। मुझे भय है कि उनका भविष्य अंधकारमय है। यह स्थिति और भी बदत्तर हो जायेगी, जब राज्य विश्विद्याल और उनसे संबंद्ध कॉलेज केंद्रीय विश्विद्यायलों के इस उदारण का अनुकरण करेंगे।
सार रूप में विश्वविद्यालय की जगह विभागों को इकाई मानने का यह नया फार्मूला उच्च शिक्षा संस्थानों में एससी, एसटी और ओबीसी तबके के लोगों के शिक्षक बनने की उम्मीद को तोडने में विध्वंसक भूमिका निभायेगा। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की सरकार बार-बार आंबेडकर की बात करती है। इसलिए केंद्र सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्देश को रदद् करने के लिए सर्वोच्च न्यायाय में अपील करे। सच बात तो यह है कि ऐसा करने के लिए वह वाध्य है।
(अनुवाद : जयगोविंद सिंह)
(मूल अंग्रेजी लेख इंडियन एक्सप्रेस के 12 मार्च, 2018 के अंक में प्रकाशित हुआ था, यहां इसका हिंदी अनुवाद लेखक की अनुमति से प्रकाशित किया गया है)
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