2 अप्रैल को सड़को पर दलित-बहुजनों का जनसैलाब देखकर सवर्ण समुदाय के लोग भौचक हैं। ‘राष्ट्रीय मीडिया’ और ‘राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों’ के लोग भी हैरान हैं। सभी के मन में यह सवाल गूंज रहा है कि आखिर वंचित समुदायों के मुद्दे पर ‘भारत बंद’ का इतने बड़े पैमाने पर आह्वान कैसे संभव हो सका?
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च के एक आदेश में एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) एक्ट, 1989 के तहत मुकदमा दर्ज करने और गिरफ्तारी करने पर कई प्रकार की बंदिशें लगाई हैं। कोर्ट के इस आदेश को निष्प्रभावी बनाने के लिए केंद्र सरकार से अध्यादेश लाने की मांग करते हुए दलित-बहुजन समुदाय की ओर से 2 अप्रैल को ‘भारत बंद’ का आह्वान किया गया था। बंद के दौरान कई राज्यों में सवर्ण व बहुजन समुदाय के लोग भिड़ गए, कई जगहों पर पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं। बंद के दौरान विभन्न समुदायों के 12 लोग मारे गए।
कैसे हुआ बंद का आह्वान?
इस मामले में सबसे अधिक रेखांकित करने वाला पहलू इस आंदोलन का स्वत: स्फूर्त होना है। बंद का आह्वान गुमनाम वाट्सऐप संदशों से किया गया। फारवर्ड प्रेस के बस्ती (उत्तर प्रदेश) संवाददाता रामप्रसाद आर्य के अनुसार यह आह्वान सबसे पहले भीम सेना से जुड़े कार्यकर्ताओं ने 22 मार्च को गुमनाम रह कर किया। फारवर्ड प्रेस के दिल्ली कार्यालय के वाट्सऐप नंबर पर भी इससे संबंधित पहली सूचना 22 मार्च ‘पे बैक टू सोसाइटी’ नामक व्हाट्सऐप ग्रुप से आई।

इस आह्वान में लाखों गुमनाम सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ प्रमुख भूमिका विभिन्न दलित स्वयंसेवी संगठनों को जोड़ने वाले नैकडोर नामक संगठन के प्रमुख अशोक भारती तथा पत्रकार व लोकप्रिय सोशल मीडिया एक्टिविस्ट दिलीप मंडल की रही।

अशोक भारती ने जहां अपनी नई-नवेली जन सम्मान पार्टी (जसपा) की ओर से 1 अप्रैल को दिल्ली में प्रदर्शन के साथ-साथ 2 अप्रैल के भारत बंद को सफल बनाने का आह्वान किया वहीं दिलीप मंडल ने फेसबुक पर आह्वान को आगे बढ़ाया। सोशल मीडिया पर यह खबर बढ़ती रही और जगह-जगह कार्यकर्ता बंद की तैयारियां करते रहे लेकिन कथित मुख्यधारा के अखबारों और इलेक्ट्रानिक चैनलों ने बंद के इस आह्वान को गंभीरता से नहीं लिया। कुछ अखबारों की नींद 1 अप्रैल को तब टूटी जब विभिन्न राज्य सरकारों को इंटेलिजेंस विभाग ने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन की संभावना की सूचना दी गईं और अधिकारी आनन-फानन में सुरक्षा इंतजामों में जुटे।

लेकिन यह बात जरूर रेखांकित कर लेना चाहिए कि अंग्रेजी दैनिक द इंडियन एक्सप्रेस इस पूरे मामले में सकरात्मक भूमिका निभाई।
राजनीतिक दलों का असमंजस और एकता
दलित हितों की प्रतिनिधि पार्टी मानी जाने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के कार्यकर्ता भले ही बंद सफल करवाने के लिए उत्तर प्रदेश में अगुआ रहे हों, लेकिन पार्टी ने आधिकारिक रूप से इसका आह्वान नहीं किया था। इस देशव्यापी बंद का नेतृत्व कोई जाना-पहचाना चेहरा नहीं कर रहा था। दलित और आदिवासियों के साथ-साथ देश के विभिन्न हिस्सों में पिछड़ा या ओबीसी समुदाय मुखर और सक्रिय तौर पर इस बंद के साथ रहा।
अधिकांश विपक्षी राजनीतिक पार्टियां भी बंद के आह्वान को लेकर चुप्पी साधे थीं। खुलकर वे बंद की सफलता के बाद ही समर्थन में आयीं। बंगाल से ममता बनर्जी ने दलितों के स्वर के साथ अपना स्वर मिलाया। मूलत: अभी तक उच्च जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस ने भी खुल कर दलितों का समर्थन बंद के बाद ही किया। हां, वामपंथी समूहों के एक बड़े हिस्से ने इसका समर्थन किया। अनेक जगहों पर वे दलितों-बहुजनों के साथ सड़कों पर भी उतरे।
भाकपा माले (लिबरेशन) के सक्रिय कार्यकर्ता धीरेन्द्र झा कहते हैं कि “दलितों का साथ देने के चलते लोग कह रहे हैं कि भाकपा माले दलित कम्युनिस्ट पार्टी बन गई है। लेकिन वे कहते हैं कि हमें हमारी पहचान पर गर्व है।”

बंद के बाद संसद में हुए हंगामे में कमोवेश पूरा विपक्ष एकजुट होकर दलितों के प्रति अपनी पक्षधरता का इजहार किया। सबसे बड़ी बात यह थी कि सरकार भी यह कहती नजर आई कि वह भी दलितों के आक्रोश-असंतोष के साथ है।
इस पूरे घटनाक्रम में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली बात तो यह कि सदियों से शूद्र कही जाने वाली ओबीसी जातियों का बहुलांश हिस्सा दलितों के साथ खड़ा था। पिछड़ों की प्रतिनिधि पार्टियों ने खुलेआम दलितों का साथ दिया। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) ने ऐलान करके दलितों के प्रति पक्षधरता जताई। अपने को पूरी तरह से दलितों की संवेदनाओं और मांगों के साथ जोड़ा। शरद यादव जैसै लोगों ने सड़क पर उतरकर दलितों के साथ अपनी पक्षधरता और एकजुटता जाहिर की। बिहार में जनता दल यूनाइटेड (जदयू) जैसे दलों ने बंद से आधारिक तौर पर दूरी बनाए रखी लेकिन बंद के बाद श्याम रजक समेत इस पार्टी के दलित विधायकों ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर इसका समर्थन किया।
उत्तर प्रदेश और बिहार के बदलते राजनीतिक समीकरण ने इन दोनों प्रदेशों की राजनीति का सामाजिक-समीकरण बदला है। दलित-ओबीसी अपने को एक बार फिर से बहुजन के रूप में देखने लगे हैं। बहुजन की इस पहचान ने उनके भीतर अपनी विशाल शक्ति का एहसास कराया है।
बहुजन शक्ति मोदी युगे!
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा ओबीसी-दलित कार्ड खेलकर लगातार हासिल की जा रही चुनावी जीतों ने बहुजन तबकों के समतावादी अगुओं को चिंतित कर रखा है। राष्ट्रीय मीडिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भाजपा के विजय रथ का सारथी बना बैठा है। बंद के सफल होने के बाद बहुजन तबकों के सामाजिक कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों ने भी सोशल मीडिया पर इन तबकों की एकजुटता का स्वागत किया।
दलित कार्यकर्ता व बामसेफ की पदाधिकारी डॉ. मनीषा बांगर कहती हैं कि “ब्राह्मणवादी मीडिया दलित-दलित कहकर दलितों-ओबीसी के बीच खाई बनाना चाहता है, और बहुजनों के संघर्ष को दलितों तक सीमित करके इसे कमजोर करना चाहता है। ब्राह्मणवादी मीडिया दलित-दलित करे तो हमें बहुजन समझना चाहिए। बहुजन यानी ओबीसी, एससी, एसटी और पसमांदा मुसलमान।”

इसी प्रकार ओबीसी समुदाय से आने वाले पत्रकार-सामाजिक कार्यकर्ता महेन्द्र यादव शूद्रों-अतिशूद्रों (दलित-ओबीसी) को सतर्क करते हुए कहते हैं कि “हमें उनके झांसे में नहीं आना है। बहुजनों की एकता बनाए रखनी है।”

क्या हैं निहितार्थ
इस सब को कैसे देखे जाए? इससे भविष्य के तात्कालिक और दीर्घकालिक संकेत क्या ग्रहण किए जाएं। उस तात्कालिक मांग के बारे में थोड़ी चर्चा कर लेनी चाहिए जिस मांग को लेकर दलित सड़क पर उतरे थे। हम सब इस तथ्य से परिचित हैं कि दलित हजारों वर्ष से दिल-दहला देने वाले उत्पीड़न-अपमान और छुआछूत के शिकार रहे हैं, उनके पास इससे बचने का कोई उपाय नहीं था। हिंदू धर्म में यह दैवीय विधान का हिस्सा था। सभी धर्मग्रंथ,शास्त्र, पुराण और स्मृतियां इसे जायज ठहराती थीं। यह स्मृतियां देश का कानून भी थीं। भारतीय संविधान ने सभी भारतीयों को समान घोषित कर दिया। लेकिन व्यवहारिक तौर पर दलितों एवं आदिवासियों के साथ हिंसा, अपमान और उत्पीड़न की घटनाएं होती रहीं। इस सब से दलित और आदिवासियों को बचाने के लिए एक सख्त कानूनी उपाय की जरूरत महसूस की जा रही थी। इसी कानूनी उपाय के रूप में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 बना। जिसे 2016 में और मजबूत बनाया गया। इस एक्ट के तहत यह प्रावधान था कि यदि अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति होने के कारण किसी भी तरह से एसी/एसटी समुदाय को अपमानित किया जाता है, उनके साथ हिंसा की जाती है तो आरोपी के खिलाफ तुरंत एफआईआर दर्ज होगी और उसकी गिरफ्तारी होगी। आरोपी को अग्रिम जमानत भी नहीं मिलेगी। यह एक ऐसा कानूनी उपाय था, जो एससी/एसटी समुदायों को संबल प्रदान करता था और उनके खिलाफ हिंसा करने वालों और उन्हें अपमानित करना अपना अधिकार समझने वालों के भीतर कानून का डर पैदा करता था। यह सच है कि इस कानून के तहत नहीं के बराबर आरोपियों को अब तक सजा हुई है। एसी/एसटी (अत्याचार निवारण) एक्ट के तहत केवल 2-3 प्रतिशत मामलों में सजा हुई है, शेष 97-98 प्रतिशत आरोपी बाइज्जत बरी हो गए हैं। दलितों के बड़े-बड़े नरसंहारों को अंजाम देने वाले भी बरी हो गए हैं या मामला सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है। यह भी उतना ही बड़ा सच है कि एसी/एसटी पर अत्याचार की घटनाओं में पिछले वर्षों में करीब 70 से लेकर 90 प्रतिशत तक बृद्धि हुई है। अधिकांश मामलों में पुलिस चार्जशीट भी दाखिल नहीं करती। इस सब के बावजूद भी यह कानून इन समुदायों के लिए सबसे बड़ा कानूनी सुरक्षा कवच था।
20 मार्च 2018 को सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों की खंडपीठ ने इस कानून के संबंध में जो निर्णय दिया। इस निर्णय के बाद एससी/एसटी समुदायों से यह सुरक्षा कवच भी करीब-करीब छीन लिया गया। कहने को तो यह कानून अभी भी मौजूद है, लेकिन व्यवहारिक स्तर यह खत्म-सा हो गया है। पहली बात तो यह कि न्यायालय के इस निर्णय के बाद बिना डीएसपी स्तर के अधिकारी की जांच के एफआईआर भी दर्ज नहीं हो सकती है। इस संदर्भ में कानूनी मामलों के विशेषज्ञ और हैदराबाद विश्विद्यालय एनएएलएसएआर के कुलपति फैजान मुस्तफा कहते है कि सामान्य मामलों में एफआईआर दर्ज हो सकती है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद एसी/एसी एक्ट में यह संभव नहीं है, जब तक डीएसपी की अनुमति न मिल जाये। दूसरी बात यह है कि न्यायालय ने अग्रिम जमानत का प्रावधान भी कर दिया। हम सभी जानते हैं कि एससी/एसटी एक्ट में आरोपी प्रभावशाली समुदायों के होते हैं और आर्थिक तौर पर मजबूत होते हैं, वे आसानी से अग्रिम जमानत हासिल कर सकते हैं। बाहर रहकर आरोपी, आरोप लगाने वाले को बाध्य कर सकता है कि वह अपना आरोप वापस ले ले। न्यायलय ने अग्रिम जमानत की इजाजत दे दी। तीसरी बात यह कि सरकारी कर्मचारियों के बारे में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि नियोक्ता अधिकारी या बॉडी की अनुमति के बिना किसी भी कर्मचारी या अधिकारी के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं हो सकती है। व्यवहारिक परिणाम यह होगा कि शायद ही किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ एसी/एसटी एक्ट के तहत एफआईआर दर्ज हो। इसे विश्वविद्यालय के उदाहरण से समझा जा सकता है। विश्वविद्यालय में नियोक्ता संस्था विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद होती है। यदि विश्वविद्यालय के एस/एसटी समुदाय के किसी शिक्षक या कर्मचारी के साथ कोई गैर-एससी/एसटी कर्मचारी अत्याचार-अपमान करता है या हिंसा करता है, तो उसके खिलाफ कार्रवाई तभी हो सकती है, जब विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद से अनुमति मिले, जो कि असंभव-सी चीज है। अपने फैसले के दौरान न्यायालय की खंडपीठ ने भाईचारा एवं बंधुता कायम करने की जिम्मेदारी भी एससी/एसटी पर डाल दिया।
भले ही दलित समुदायों के तात्कालिक आक्रोश का कारण एससी/एसटी एक्ट पर सर्वोच्च न्यायलय का निर्णय हो। इसकी लंबी पृष्ठभूमि भी है। खैरलांजी की घटना के बाद से ही दलित बिना किसी संगठन या नेता की परवाह किए सड़क पर उतरने लगे। रोहित बेमुला, ऊना, शब्बीरपुर (सहारनपुर) और इलाहाबाद में दलित युवक की हत्या के बाद भी लोग सड़क पर उतर आये थे। हाल में उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षक पदों पर व्यवहारिक तौर आरक्षण खत्म करने संबंधित फैसलों ने इस आक्रोश-असंतोष को और बढ़ाया। इसके साथ हजारों वर्षों से संचित आक्रोश भी इसमें अभिव्यक्त हुआ। इतने बड़े पैमाने पर आधुनिक भारत में शायद ही कभी बहुजन उत्तर भारत में सड़को पर आये हों।
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