शिमला अनेक हिंदी साहित्यकारों की पसंदीदा जगह रही है। लेकिन इन दिनों वहां लेखकों की आपसी तनातनी तेज हो गयी है। एक-दूसरे के सामने हैं शिमला के वे साहित्यकार जो स्वयं को आरएसएस से अलग बताते हैं और वे जो अभी सत्ताधारी पार्टी व उसके पितृ संगठन आरएसएस से जुड़े हैं। इस मामले में परत-दर-परत कई कहानियां हैं। इन कहानियों में हिमाचल प्रदेश में साहित्यिक-राजनीतिक गंठजोड़ से लेकर कार्यक्रमों में विचारों का घालमेल भी शामिल है।

इससे पहले कि इन कहानियों के बारे में बात करें, पहले एक कहानी सुनाते हैं। कर्म सिंह की। कर्म सिंह हिमाचल प्रदेश कला व भाषा अकादमी के सचिव हैं। इनके मुताबिक भारत में समाजवाद दुनिया में सबसे पहले आया। इसके पीछे वे कृष्ण और सुदामा की कहानी साझा करते हैं। वे कहते हैं कि मार्क्सवाद और समाजवाद जब दुनिया में कहीं नहीं था, भारत में समाजवाद था। वे सवाल पूछते हैं कि क्या आपने किसी मार्क्सवादी को गरीब मजदूर के साथ खाना साझा करते हुए देखा है?
ब्राह्मणवादी मिथकों के सहारे अपनी दलील रखने वाले कर्म सिंह की इस कहानी को यही छोड़ते हैं। बात करते हैं हिमाचल प्रदेश कला व भाषा अकादमी की। यहां तनातनी है। साहित्यकारों और अकादमी के बीच। साहित्यकारों का आरोप है कि अकादमी पर आरएसएस का वर्चस्व कायम हो गया है। यहां तक कि अकादमी अब अपने ही बनाये नियमों को ताक पर रखकर आरएसएस से जुड़े लोगों के महिमामंडन में जुट गया है। यह सब साहित्य के नाम पर किया जा रहा है। अभी हाल ही में अकादमी द्वारा हमीरपुर के नेरी रिसर्च संस्थान में एक ठाकुर राम सिंह की जयंती मनायी गयी। इस संस्थान की स्थापना ठाकुर राम सिंह ने ही की थी। साहित्यकारों की मानें तो यह पहला मौका है। इससे पहले भी प्रदेश में भाजपा की सरकार रही, लेकिन उसने अकादमी के कार्यों में इस तरह का हस्तक्षेप नहीं किया था।

वहीं इसके जवाब में कर्म सिंह बताते हैं कि साहित्यकारों का यह आरोप मिथ्यापूर्ण है। ठाकुर राम सिंह हिमाचल प्रदेश की लोक कला और संस्कृति से जुड़े थे। उन्होंने कई ऐतिहासिक रचनाएं लिखी। अकादमी द्वारा उन महापुरूषों की जयंती व उनकी स्मृति में कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है जिनका संबंध पूर्व में सत्तासीन पार्टी से है। अकादमी का काम राजनीति करना नहीं है। अकादमी तय नियमों के अनुसार राज्य के लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखकर कार्यक्रमों का निर्धारण करती है।
अब साहित्यकारों की बात मानें तो अकादमी में कार्यकारिणी समिति का गठन नहीं किया गया है। वर्ष 2014 में इसका गठन पांच वर्षों के लिए हुआ था। लेकिन नयी सरकार आने के साथ ही इसे भंग कर दिया गया। जबकि अकादमी स्वायत्त संगठन है। राज्य में सत्ता में परिवर्तन से इसके संगठन में परिवर्तन पहली बार की गयी। साहित्यकारों का आरोप है कि अकादमी के सचिव कर्म सिंह ने आरएसएस से जुड़े लोगों को सामान्य परिषद में शामिल किया है। आरोपों की कड़ी में किताबों की खरीद-फरोख्त का मामला भी शामिल है। साहित्यकारों का कहना है कि नियमों को दरकिनार कर उन लेखकों के किताबों की अनदेखी की जा रही है जिनका संबंध आरएसएस से नहीं है। हालांकि साहित्यकार व पत्रकार मोहन साहिल दूसरी बात कहते हैं। उनका कहना है कि अकादमी का भगवाकरण हुआ है या नहीं, यह तो वे नहीं कह सकते हैं। लेकिन अकादमी द्वारा साहित्यकारों की उपेक्षा जरूर की जा रही है। वे यह भी बताते हैं कि पूर्व में भी इसी तरह के मामले होते थे, लेकिन अब यह अधिक होने लगा है। उन्होंने बताया कि साहित्यकार मधुकर भारती जी के निधन के बाद हमारी संस्था सृजन ने अपना पैसा खर्च कर उनकी कविताओं के संकलन को प्रकाशित किया। जब इस किताब की खरीद के लिए अकादमी के पास गये तो बताया गया कि 2012 में ही यह कानून बनाया गया कि दिवंगत हाे चुके लेखकों की किताबें नहीं ली जाएंगी। मोहन साहिल के अनुसार साहित्यकारों के हित में अकादमी को अब यह कानून बदल देना चाहिए।

वहीं कर्म सिंह का कहना है कि इस मामले कहीं कोई पक्षपात नहीं किया जा रहा है। अकादमी आज भी 2012 में बनाये गये अपने नियमों के अनुसार ही किताबों की खरीद कर रही है। पुरस्कारों के लिए भी किताबों का चयन का तरीका 2012 में ही निर्धारित है। वे आरोप लगाते हैं कि आज अकादमी की गतिविधियां बढ़ी हैं। हम इसका विस्तार कर इसमें अधिक से अधिक लोगों को शामिल कर रहे हैं ताकि सही मायनों में साहित्य के क्षेत्र में अकादमी अपनी भूमिका का निर्वहन कर सके न कि केवल कुछ लोगों का अड्डा बनकर रह जाय।
यह पहली बार नहीं है जब अकादमी के कामकाज पर सवाल उठ रहे हैं। साहित्यकारों में भी कई गुट बन चुके हैं। एक गुट अकादमी के वर्तमान प्रबंधन के साथ है। इस संबंध में प्रख्यात साहित्यकार वरयाम सिंह बताते हैं कि यह भी पहली बार नहीं हो रहा है। कुछ साहित्यकार सत्ता के साथ जाना पसंद करते हैं। फिर चाहे जिसकी सरकार हो। वह हर सरकार के साथ रहना जानते हैं। अकादमी द्वारा किताबें खरीदे जाने और पुरस्कार देने के मामले में पक्षपात के मामले में वरयाम सिंह कहते हैं कि इसका कोई मतलब नहीं है। अकादमी पांच सौ से लेकर डेढ़-दो हजार रुपए की किताबें खरीदती है। पुरस्कार की राशि भी बहुत कम होती है।

वैसे यह मामला केवल किताबों की खरीद या पुरस्कार तक सीमित मात्र नहीं है। मामला अकादमी के पैसे से साहित्यिक आयोजनों का भी है। वर्तमान में अकादमी से नाराज चल रहे एक साहित्यकार यह बताते हुए कहते हैं कि मेरा नाम उल्लेखित न करें, लेकिन मैं आपको सच बताता हूं। अकादमी की नीतियों में यह कहीं नहीं है कि अकादमी किसी बाहरी व्यक्ति के आयोजन में शामिल हो और उसके खर्चे उठाये। यह अनियमितता है।
दरअसल यह विवाद विनोद प्रकाश गुप्ता नामक एक पूर्व आईएएस अधिकारी की संस्था से जुड़ा है। नाम है नवल प्रयास। इस संस्था ने पिछले साल भी एक साहित्यिक कार्यक्रम का आयोजन किया था और इसमें हिमाचल प्रदेश कला, संस्कृति और भाषा अकादमी की ओर से धन का इंतजाम किया गया था। इसी वर्ष जनवरी महीने में नवल प्रयास के तत्वावधान और अकादमी के खर्चे पर कुछ तीन किताबों का लोकार्पण कार्यक्रम किया गया। शिमला के कुछ साहित्यकारों ने तब भी इस पर सवाल उठाया था।
खैर इस बार नवल प्रयास द्वारा अकादमी के पैसे के बल पर कथित वृहत साहित्यिक आयोजन किया जा रहा है। इसमें 70 कवियों/साहित्यकारों के शामिल होने की सूचना विनोद प्रकाश गुप्ता के फेसबुक वॉल पर दी जा रही है। हिमाचल प्रदेश के साहित्यकारों का एक गुट इस बात से भी नाराज है कि इनमें मुख्य रूप से एक खास विचारधारा और सामाजिक पृष्ठभूमि के साहित्यकारों को शामिल किया गया है। आमंत्रित लेखकों में दलित और ओबीसी साहित्यकारों लेखकों की संख्या लगभग न के बराबर है। साथ ही आरएसएस की विचारधारा के कटु विरोधी लेखकों को भी आमंत्रित नहीं किया गया है।
बहरहाल वरयाम सिंह या अकादमी के सचिव कर्म सिंह चाहे कुछ भी कहें, यह तो स्पष्ट है कि शिमला में साहित्यिक आंच तेज हो गई है।
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