शहरी दलित मध्यवर्ग के लोगों को लगता है कि जाति-प्रथा कमजोर पड़ती जा रही है। यह भ्रम अकारण नहीं है। वे अपने कार्यस्थलों पर उच्च जातियों के कुछ व्यवहारों के आधार पर यह राय बनाते हैं, जैसे साथ बैठकर गप-शप, चाय-पानी या कभी-कभार लंच। ये सतही स्तर पर दिखने वाले परिवर्तन हैं, कुछ व्यक्तियों तक सीमित हैं। बुनियादी मामलों में व्यापक तौर पर कोई परिवर्तन नहीं आया है।
अलग-अलग राज्यों से रोज-बरोज दलित उत्पीड़न की घटनाएं सामने आती रहती हैं। पिछले दिनों राजस्थान विधानसभा में खुद सरकार की तरफ से यह जानकारी उपलब्ध कराई गई कि तीन साल में दलित दूल्हों को घोड़ी पर चढ़ने से रोकने की 38 घटनाएं संज्ञान में आई हैं। करीब दो साल पहले मध्य प्रदेश में एक दलित दूल्हे का हेलमेट लगाए फोटो चर्चा में आया था। उसकी वजह भी घोड़ी पर चढ़कर बारात आना था। विरोध कर रही भीड़ ने पहले उसकी घोड़ी छीन ली, फिर पथराव शुरू कर दिया। दूल्हे को घायल होने से बचाने के लिए पुलिस को उसके लिए हेलमेट का बंदोबस्त करना पड़ा। इन्हीं घटनाओं से एक सवाल उपजता है कि दलित शादी करें, इस पर किसी को कोई ऐतराज नहीं होता है लेकिन दूल्हा घोड़ी पर बैठकर नहीं आ सकता, इस सोच की कुछ और वजह नहीं अपितु गैरदलितों की नाक का सवाल है।

मोदी जी के गुजरात में आज भी बहुत से गाँव ऐसे हैं जहाँ दलित वर्ग के लोग आज भी कुए से अपने आप पानी नहीं निकाल पाते हैं। दुखद ये भी है कि कुए से पहले गैरदलित अपने लिए पानी निकालते हैं और उसके बाद दलित वर्ग के लोगों को खुद पानी निकालकर देते हैं। इस काम में घंटा लगे या दो घंटा दलितों को पानी लेने के लिए इंतजार करना पड़ता है। क्या शहरी दलितों को ग्रामीण दलितों की पीड़ा का कुछ भान होता है? नहीं….मुझे तो ऐसा नहीं लगता। कोई शक नहीं कि आजाद भारत में संविधान की रोशनी में समतामूलक समाज की बात होती आई है लेकिन कुछ प्रतीक ऐसे हैं जो खास वर्ग की पहचान से अभी तक जुड़े हुए हैं। खास वर्ग उन प्रतीकों को साझा करने को तैयार नहीं है। उसको लगता है कि साझा करने से उसकी ‘श्रेष्ठता‘ जाती रहेगी।
एक उदाहरण देखें। कासगंज (इलाहाबाद) के निजामपुर गाँव में आज तक दलित दुल्हे की घोड़ी पर चढ़कर कोई बारात नहीं निकली है। इसी गांव के दलित वर्ग के दुल्हे संजय कुमार घोड़ी पर सवार होकर अपनी बारात निकालना चाहते है। इसके लिए उन्होंने जिला स्तर के बड़े अधिकारियों से गुहार लगाई किंतु सब बेकार। आखिरकार संजय ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। संजय का आरोप है कि निजामपुर के सवर्ण उनके घोड़ी पर बैठकर बारात निकालने का विरोध कर रहे हैं। कानून व्यवस्था का हवाला देकर स्थानीय प्रशासन ने घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालने की इजाजत देने से इंकार कर दिया था। कोर्ट से भी संजय को निराशा ही हाथ लगी। कोर्ट ने इस आधार पर संजय की याचिका खारिज कर दी कि यदि याचिकाकर्ता को किसी प्रकार की परेशानी है तो वह पुलिस के माध्यम से मुकदमा दर्ज करा सकता है। अगर दुल्हे या दुलहन पक्ष के लोगों से कोई जोर-जबरदस्ती करे तो वह पुलिस में इसकी शिकायत कर सकते हैं। कोर्ट के इस निर्णय पर हैरत की बात यह है कि पुलिस अधिकारी तो पहले ही संजय की चाहत को यह कहकर खारिज कर चुके हैं कि यदि संजय घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालता है तो ऐसा करने से निजामपुर का माहौल बिग़ड़ सकता है। संजय ने अपने इस मामले को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक को भेजा है किंतु मुख्यमंत्री जी मौन साधे हुए हैं। वैसे वे दलित समर्थक होने का दावा करते हुए नहीं थकते हैं। इतना ही नहीं, दुल्हन के परिवार से कहा गया है कि बारात के लिए उसी रास्ते का इस्तेमाल किया जाए जिससे गांव के सभी दलितों की बारात जाती है। इस फैसले का शीतल का परिवार विरोध कर रहा है। उनका कहना है कि यह हमारे सम्मान की बात है। हम काफी जोर-शोर के साथ दूल्हे का स्वागत करना चाहते हैं और घोड़ी वाली बारात चाहते हैं। गांव की सड़कें जितनी ठाकुरों की हैं उतनी ही हमारी भी हैं। इसकी वजह से जाटव (शीतल और संजय इसी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं) और ठाकुरों के बीच तनाव का माहौल है।

गांव की प्रधान ठाकुर कांति देवी का कहना है, “हमें कोई दिक्कत नहीं है। लड़की की शादी हो, ठाकुर लोगों को कोई एलर्जी नहीं है। हम बारात का तहेदिल से स्वागत करेंगे। शीतल हमारी भी बेटी है किंतु दिक्कत यह है कि कोई जबर्दस्ती हमारे रास्ते पर आएगा और परंपरा को तोड़ेगा तो यह हमें मंजूर नहीं है।”
यूपी कैडर के रिटायर्ड आईपीएस एसआर दारापुरी इन हालातों के लिए दो चीजों को जिम्मेदार मानते हैं। एक, समाज के अंदर सामंतवादी सोच जिंदा है जो बदलाव में सबसे बड़ा बाधक है। ऐसी सोचा वाले सवर्णों को लगता है कि जैसे पुरखों के जमाने से होता आ रहा है, वैसे आगे भी पुश्त दर पुश्त चलता रहे। अगर दलित भी बराबर में आ खड़े हुए तो उन्हें अतिरिक्त सम्मान मिलना खत्म हो जाएगा। दूसरी चीज, सरकारी तंत्र भी सवर्णवादी मानसिकता से उबर नहीं पा रहा है। उसे लगता है कि सवर्णों की हर बात जायज है। यूपी का ही उदाहरण लें तो वहां के जिलाधिकारी का यह कहना है कि ‘उस जिले में पहले कभी दलित की घुड़चढ़ी नहीं हुई‘, बहुत ही हास्यास्पद है। यह सलाह कि ‘अगर घुड़चढ़ी जरूरी है तो चुपके से कर ली जाए‘ यह और भी हास्यास्पद है।

हाल ही में गुजरात के भावनगर जिले में कुछ गैरदलित लोगों ने घोड़ा रखने और घुड़सवारी करने पर एक दलित की हत्या कर दी। प्रदीप राठौर (21) ने दो माह पहले एक घोड़ा खरीदा था और और घुडसवारी करता था। उच्च जातियों को यह बात नागवार गुजरी। वे लोग उसे धमका रहे थे। बाद में उसकी हत्या कर दी गई। प्रदीप के पिता कालुभाई राठौर ने कहा कि प्रदीप धमकी मिलने के बाद घोड़े को बेचना चाहता था, लेकिन उन्होंने उसे ऐसा न करने के लिए समझाया। कालुभाई ने पुलिस को बताया कि प्रदीप गुरुवार को खेत में यह कहकर गया था कि वह वापस आकर साथ में खाना खाएगा। जब वह देर तक नहीं आया, हमें चिंता हुई और उसे खोजने लगे। हमने उसे खेत की ओर जाने वाली सड़क के पास मृत पाया। कुछ ही दूरी पर घोड़ा भी मरा हुआ पाया गया। गांव की आबादी लगभग 3000 है और इसमें से दलितों की आबादी लगभग 10 प्रतिशत है। प्रदीप के शव को पोस्टमार्टम के लिए भावनगर सिविल अस्पताल ले जाया गया है, लेकिन उसके परिजनों ने कहा है कि वे लोग वास्तविक दोषियों की गिरफ्तारी तक शव स्वीकार नहीं करेंगे।ऐसी घटनाएं सवर्णों की वास्तविक मानसिकता को उजागर करने के लिए काफी हैं।
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