देश में दलितों और आदिवासियों की सुरक्षा के लिए 1989 में बना एससी/एसटी अत्याचार निवारण कानून को आज सवालों के घेरे में लाया जा रहा है। जबकि ऐसे कई मामले हैं, जिनमें दोष सिद्धि के बावजूद पीड़ितों को इंसाफ नहीं मिला है। मिर्चपुर कांड का हाल इस मामले में नजीर है।
मिर्चपुर मामले में 15 जाटों को दलित वृद्ध और उनकी बेटी को जिंदा जलाने और दलित घरों को जलाने के आरोप में निचली अदालत ने सजा दी थी। लेकिन मिर्चपुर के दलितों को 8 वर्ष पहले समाज द्वारा मिला ‘देशनिकाला’ आज भी कायम है। यह हाल तब है जब पीड़ित दलित सुप्रीम कोर्ट तक गुहार लगा चुके हैं।
दबंगों ने वृद्ध दलित और उनकी विकलांग बेटी को जलाया था जिंदा
21 अप्रैल 2010 को हरियाणा के हिसार जिले के मिर्चपुर गांव के दबंग जाटों ने दलित बस्ती में घुसकर आगजनी की और एक वृद्ध ताराचंद और उनकी पोती को जिंदा जला दिया। इस घटना में 52 लोग गंभीर रूप से जख्मी हो गये थे और 18 दलितों का घर जला दिया गया था। इस घटना के कारण मिर्चपुर के दलित इस कदर दहशतजदा हो गये कि उनलोगों ने गांव ही छोड़ दिया। वर्तमान में करीब डेढ़ सौ दलित परिवार हिसार में तंवर फार्म हाऊस में रह रहे हैं। हालांकि दिल्ली के रोहिणी कोर्ट में द्वितीय सत्र न्यायाधीश डॉ. कामिनी लाऊ ने 31 अक्टूबर 2011 को अपना फैसला सुनाया। इस मामले में कुल 98 लोग दलितों पर सामूहिक अत्याचार के लिए अभियुक्त बनाये गये थे। अदालत ने 15 अभियुक्तों को कसूरवार माना और इनमें से तीन को उम्रकैद की सजा व सभी दोषियों को 20-20 हजार रुपए का आर्थिक दंड का आदेश दिया। शेष अभियुक्तों को साक्ष्य के अभाव में बरी किया गया।
अदालत के न्यायादेश से मिर्चपुर के दलितों पर जुल्म करने वालों को सजा तो मिल गयी। लेकिन पीड़ितों को इंसाफ आज तक नहीं मिल सका है। वह भी तब जबकि जस्टिस डॉ. कामिनी लाऊ ने अपने न्यायादेश में पीड़ित परिवारों को मुआवजा देने की बात कही थी। इसके पीछे अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनयम, 1989 के उपबंध 21(2)(3) मुताबिक पूर्व से निर्धारित प्रावधान है। इस प्रावधान के तहत एससी/एसटी अत्याचार अधिनियम के तहत यदि कोई आरोप सिद्ध होता है तो पीड़ित पक्ष को राज्य सरकार द्वारा पुनर्वास और मुआवजा दिया जाना चाहिए।
अबतक डेढ़ दर्जन दलितों की हो चुकी है मौत
इंसाफ शब्द के कानूनी पड़ताल से पहले एक नजर मिर्चपुर के दलित परिवारों पर डालें। ये दलित 2010 से हिसार के तंवर फार्म हाऊस परिसर में प्लास्टिक की शीट डालकर अपनी झोपड़ियों में रह रहे हैं। मुकम्मल व्यवस्था नहीं रहने के कारण उन्हें तमाम परेशानियां झेलनी पड़ती है। एक पीडित परिवार के सदस्य विक्की बताते हैं कि वे अपने परिवार के साथ 2010 में अपना गांव छोड़कर आये थे। गांव के जाटों ने हमारी बस्ती को जला दिया था। इस घटना में उनके पड़ोसी ताराचंद और उनकी बेटी सुमन को जिंदा जला दिया गया। यहां तंवर फार्म हाउस में हमारे पास इतनी ही जमीन मयस्सर है कि एक झोपड़ी बना सकें। एक ही झोपड़ी में हमारा परिवार गुजर-बसर करता है। पेयजल आदि की समस्या रहती है। इसके अलावा सांप काटने से एक बच्ची की मौत से लेकर अन्य संक्रामक बीमारियों के कारण अबतक डेढ़ दर्जन लोगों की अकाल मृत्यु हो गयी है।
बात जब सुरक्षा और पुनर्वास की होती है तो राज्य सरकार यह तर्क देती है कि वह दलितों को सुरक्षा देने के लिए तैयार है। लेकिन मिर्चपुर के दलित अपने गांव नहीं लौटना चाहते हैं। जबकि पीड़ित दलितों के मुताबिक मिर्चपुर गांव में पहले सुरक्षा पिकेट बनाया गया था। अब वह भी हटा दिया गया है। इस कारण वहां जाट फिर से दलितों के साथ मारपीट करने लगे हैं। हिसार के तंवर फार्म हाऊस में किसी तरह अपना गुजर-बसर करने वाले वृद्ध सूबे सिंह बताते हैं कि निचली अदालत ने कम चाहे अधिक हमारे दोषियों को सजा तो दे दी, लेकिन हमें इंसाफ नहीं मिला है। अभी भी हमारे गांव में दहशत का माहौल है। पिछले वर्ष गांव में जो हमारे दलित परिवार रह गये थे, उनके साथ भी मारपीट की गयी। बाद में उनलोगों ने गांव छोड़ दिया है। इसके अलावा पिछले वर्ष नवंबर महीने में एक दलित लड़की को जबरन उठा लिया गया। सूबे सिंह के मुताबिक अदालत ने अाधा इंसाफ किया है। यदि अदालत हमारे लिए पुनर्वास की व्यवस्था और मुआवजा आदि का आदेश दे देती तो हम भी सम्मान और जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूर्ण करते हुए जीवन जी सकते थे।
अदालतों का चक्कर लगा रहे मिर्चपुर के दलित
मिर्चपुर के पीड़ितों ने रोहिणी कोर्ट के फैसले को आधार बनाकर सुप्रीम कोर्ट में सिविल रिट याचिका दाखिल की। पीड़ितों की तरफ से ह्यूमैन राइट्स लॉ नेटवर्क के संस्थापक कोलिन गोन्साल्विस ने कोर्ट में पक्ष रखा। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया कि मिर्चपुर के दलित दहशत के कारण अपने गांव में वापस नहीं जा पा रहे हैं। वे एक निजी व्यक्ति की जमीन पर किसी तरह अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। ऐसे में राज्य सरकार को सभी पीड़ित परिवारों के लिए हिसार शहर में रहने को जगह और प्रति महीने कम से कम दस-दस हजार रुपए आर्थिक सहायता दी जाय। 31 मई 2010 को इस मामले में सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति जी. एस. सिंघवी न्यायमूर्ति सी. के. प्रसाद की खंडपीठ ने हरियाणा सरकार को तलब किया था और इस संबंध में जवाब देने को कहा था। फिर इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में तारीख पर तारीख वाली कहावत चरितार्थ हुई। मसलन 2 जून 2010 को एक बार फिर इस मामले की सुनवाई हुई और हरियाणा सरकार की ओर से हिसार के उपविकास आयुक्त युद्धवीर सिंह ख्यालिया ने अदालत को बताया कि 21 अप्रैल 2010 को हुई घटना के बाद मिर्चपुर गांव के कुछ दलित परिवार चले गये थे। इनमें से अधिकांश परिवार अब लौट चुके हैं। उन्होंने अदालत को यह भी बताया था कि गांव के दलितों को सरकार द्वारा मनरेगा योजना के तहत सौ दिनों का रोजगार सुनिश्चित किया जा रहा है।
बाद के दिनों में मिर्चपुर के पीड़ितों ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई कि हिसार की निचली अदालत में निष्पक्ष सुनवाई संभव नहीं है और चुंकि गवाहों को डराया और धमकाया जा रहा है, इसलिए मामले की सुनवाई राज्य के बाहर करवाई जाए। 8 दिसंबर 2010 को सुनवाई के दौरान पीड़ितों की इस गुहार को स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले की सुनवाई दिल्ली के रोहिणी कोर्ट को स्थानांतरित करने का निर्देश दिया। साथ ही मुआवजे और पुनर्वास को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चलती रही। कोर्ट ने हरियाणा सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठाया और राज्य सरकार को न्यायिक आयोग बनाकर पूरे मामले की जांच कराने का निर्देश दिया।
कोर्ट के निर्देश पर बना आयोग, ठंढे बस्ते में अनुशंसायें
सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हरियाणा सरकार ने जस्टिस इकबाल सिंह आयोग का गठन किया और अपनी रिपोर्ट में इस आयोग ने मिर्चपुर की घटना को सरकार की विफलता करार दिया। साथ ही आयोग ने अपनी अनुशंसाओं में पूरे राज्य में जातिगत विद्वेष कम करने से लेकर मिर्चपुर के पीड़ितों को समुचित मुआवजा देने की बात कही। लेकिन इसके बावजूद राज्य सरकार की ओर से कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया। बाद में 21 अगस्त 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट चंडीगढ़ को स्थानांतरित कर दिया, जहां यह मामला लंबित है। वहीं पिछले वर्ष केंद्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता राज्यमंत्री रामदास आठवले ने मिर्चपुर के दलितों से मुलाकात कर उन्हें मुआवजा और पुनर्वास संबंधी आश्वासन दिया था।
बहरहाल मिर्चपुर कांड में सजायाफ्ता 15 मुजरिमों में से 12 मुजरिम अपनी सजा काट चुके हैं। लेकिन मिर्चपुर के दलित अभी भी अपने लिए इंसाफ की बाट जोह रहे हैं। यह भारत में एससी/एसटी एक्ट के हास्यास्पद अनुपालन का प्रमाण है। ऐसे में बजाय इसके कि सुप्रीम कोर्ट इस एक्ट को और मजबूत बनाकर दलितों और आदिवासियों की सुरक्षा को पुख्ता करे, वह इस एक्ट को नख-दंत विहीन बनाने की बात कह रही है।
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