उत्पादन की जाति आधारित प्रणाली, उत्पादन के जाति संबंधों और उत्पादन के स्त्री-पुरूष संबंधों के शोषण पर निर्भर करता है। इस उत्पादन प्रणाली में अतिरिक्त मूल्य पैदा करने की प्रक्रिया श्रेणीबद्ध जातीय उंच-नीच से होकर गुजरती है। इस प्रक्रिया में जो अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है, उसका प्रवाह राज्य और उन उंची जातियों की ओर होता है, जो जातीय श्रेणीक्रम में सर्वोच्च स्थान पर हैं। यह अतिरिक्त मूल्य श्रेणीक्रम आधारित जातियों की सीढ़ी में नीचे की ओर प्रवाहित होता है, यहां तक की उन शोषित श्रमिक जातियों को भी एक आंशिक हिस्सा, उन जातियों की तुलना में मिल जाता है, जो उनसे नीचे की श्रमिक जातियां हैं। इसमें श्रमिक जातियों के बीच भी अन्तर्विरोध पैदा हो जाता है, जिन्हें जाति आधारित उत्पादन प्रणाली के भीतर आम तौर शोषित जातियां कहा जाता है। जाति व्यवस्था का यह मूलभूत चरित्र जाति व्यवस्था के भीतर किसी भी जाति की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति में परिवर्तन या परिवर्तनहीनता को नियंत्रित करता है।

उत्पादन की जाति आधारित प्रणाली की गति का एक अन्य बुनियादी नियम यह है कि श्रेणीबद्ध वर्गीकरण में जातियों की स्थिति का निर्धारण कई कारकों पर निर्भर करता है। इन कारकों में सबसे बड़ा कारक यह है कि जो जाति जितनी ‘अछूत’ होगी, उसकी स्थिति जातीय श्रेणीक्रम में उतनी ही नीचे होगी। जो जाति जिस हद तक शारीरिक श्रम की तुलना में मानसिक श्रम करती होगी, वह जातीय श्रेणीक्रम में उतनी ही ऊपर होगी। यही स्थिति अमूर्त ज्ञान के होने या नहीं होने और अनुभवजन्य-ज्ञान होने या नहीं होने पर लागू होती है। अर्थात जिस जाति के पास जितना ही अमूर्त और अनुभवजन्य ज्ञान होगा, वह उस हद तक जातीय श्रेणीक्रम में उंचे स्थान पर होगी।
अमूर्त ज्ञान, पीढ़ी दर पीढ़ी का अमूर्त ज्ञान और अमूर्त ज्ञान को सीखने की प्रक्रिया पर एकाधिकार उच्च जातियों के नियंत्रण को ऊंचाई देता है। यह एकाधिकार शीर्ष पर बैठी इन जातियों को एक ऐसी स्थिति में पहुंचा देता है जहाँ से ये जातियां इन सबको नियंत्रित करने की सर्वाधिक बेहतर स्थित में होती हैं। इस तरह बौद्धिक संपदा पर उनका एकाधिकारपूर्ण नियंत्रण हो जाता है।
सतह पर जाति व्यवस्था का चरित्र हो सकता है बदल जाए, लेकिन जब तक जाति व्यवस्था का नाश नहीं होता तब तक जाति के काम करने के ये नियम कायम रहते हैं। जाति के काम करने के नियम सभी जातियों के बीच किसी भी तरह के सामाजिक, आर्थिक या सांस्कृतिक परिवर्तन की इजाजत नहीं देते। उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली जाति व्यवस्था में कुछ तब्दीली ला सकती है लेकिन जाति विशेष के बहुलांश को इस परिवर्तन से किसी भी तरह का लाभ नहीं मिल सकता। जाति व्यवस्था के संबंध में सामाजिक परिवर्तनशीलता के प्रश्न को किसी को भी जाति व्यवस्था की मूलभूत सच्चाई के संदर्भ में देखना चाहिए।
अनुसूचित जातियों में सामाजिक परिर्वतन की गति
अनुसूचित जातियों या किसी अन्य जाति समूह में सामाजिक परिवर्तन का प्रश्न जातियों के बीच के संबंधों में आमतौर पर कितना परिवर्तन हुआ है इससे जुड़ा हुआ है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह उत्पादन की जाति आधारित प्रणाली से निर्धारित होता है। बाबासाहेब आंबेडकर ने जाति व्यवस्था की परिवर्तनशीलता के नियमों की चर्चा की है : जाति व्यवस्था श्रम विभाजन पर नहीं है बल्कि “श्रमिकों के विभाजन” पर आधारित है; और जाति व्यवस्था श्रेणीबद्ध उंच-नीच की व्यवस्था पर आधारित है। जाति व्यवस्था के ये मूलभूत लक्षण विभिन्न जातियों के बीच के संबंधों के परिवर्तन के प्रश्न को निर्धारित करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि सामाजिक परिवर्तन की गति को जाति व्यवस्था की मूल प्रकृति सख्ती से रोक देती है। यह न केवल सभी जातियों में या अनुसूचित जातियों के बीच में बल्कि उप-जातियों में भी सामाजिक संबंधो में परिवर्तन को रोक देती है।

भारत में उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली का विकास सामाजिक-आर्थिक बुनावट में प्रभावी भूमिका अदा करने लगी है। इसने उत्पादन के जातीय संबंधों को नियंत्रित करना शुरू कर दिया है। इस नई प्रक्रिया ने जाति संबंधों में सतही परिवर्तन लाना तो शुरू किया, लेकिन श्रेणीबद्ध विभाजन के पुनरुत्पादन और श्रमिकों के विभाजन की बुनियादी प्रक्रिया जस की तस बनी रही। इसकी वजह से, उत्पादन की जातीय प्रणाली का पुनरुत्पादन स्वत: पुनरुत्पादन होता रहा। उत्पादन की प्रभावी पूंजीवादी व्यवस्था ने हर जाति के भीतर नए वर्गों की रचना की। लेकिन यह भारी संख्या में शोषित जातियों के शोषण का अंत नहीं कर पाई और न ही जातियों की श्रेणी-संरचना में कोई उलटफेर कर पाई। इस स्थिति ने किसी भी बहुसंख्यक शोषित जाति को उच्च वर्गों में शामिल होने से रोक दिया। जाति व्यवस्था की निरंतरता ने निचली जातियों को श्रेणी-संरचना में ऊपर उठने से रोक दिया।
वोट बैंक के रूप में जातियों के एकताबद्ध होने की प्रक्रिया ने प्रत्येक जाति को एक अपरिवर्तनीय समूह के रूप में एकजुट होने में मदद पहुंचायी। उनमें अपनी पहचान, और एक विशिष्ट जाति समूह के रूप में अपने अस्तित्व को लेकर अभिमान पैदा हुआ। विभिन्न जातियों या अनुसूचित जातियों में अंतरजातीय विवाहों से होन वाला परिवर्तन जाति व्यवस्था के नियमों को व्यापक तौर पर तोड़ नहीं सकता था। इस तरह की शादियों में दुल्हे की जाति का ही बोलबाला रहा। जिन लोगों ने जाति व्यवस्था से खुद को मुक्त करने के लिए अपना धर्म बदला उन जातियों में या उप-जातियों में गुणात्मक या संख्यात्मक रूप से यह परिवर्तन नहीं आया। जाति व्यवस्था के विनाश के बाद ही जातियों के बीच के संबंधों में ऐसा परिवर्तन आ सकता है, जो अटल हो।
(अनुवाद : अशोक )
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जाति संबंध : जाति संबंध से मतलब यह है कि काम लेने वाले और काम करने वाले की जाति क्या है क्योंकि इस व्यवस्था में अतरिक्त उत्पादन या सरप्लस का संचय उसके पास होता है जो इस जातिगत वर्गीकरण में ऊपर बैठा होता है।
स्त्री-पुरुष (जेंडर) संबंध : स्त्री-पुरुष संबंध से मतलब है भौतिक वस्तुओं का उत्पादन और अतिरिक्त श्रमिकों की आपूर्ति के लिए संतानोत्पत्ति।
अतिरिक्त उत्पादन (सरप्लस) : उत्पादन कार्य में लगे कामगारों को मिलने वाले पारिश्रमिक और उत्पादित वस्तु की बाजार में कीमत में जो अंतर होता है वह अतिरिक्त उत्पादन या सरप्लस कहलाता है।
उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली : उत्पादन के साधन (जैसे कच्चा माल, मशीनरी, सुविधाएं आदि), अतिरिक्त उत्पादन (उत्पादन कार्य में लगे कामगारों को मिलने वाले पारिश्रमिक और उत्पादित वस्तु की बाजार में कीमत में अंतर जो ‘सरप्लस’ कहलाता है) पर किसी निजी व्यक्ति का कब्जा होता है जो कि अंततः पूंजी के संचय में तब्दील होता है।
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