अब कर्नाटक में मैसूर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में प्रोफेसर और देश के जाने माने दलित-बहुजन लेखक बी.पी. महेश चंद्र गुरु पर निलंबन की गाज गिरी है। उन पर चुनाव आचार संहिता और सेवा नियमावली के कथित तौर पर उल्लंघन का आरोप लगा है।

बताया जा रहा है कि प्रोफेसर महेश चंद्र गुरु “लोकतंत्र बचाओ- सांप्रदायिकता हटाओ” रैली में शामिल हुए थे, इसलिए उन्हें निलंबित किया गया। आपको बता दें कि आंबेडकरवादी लेखक प्रोफेसर गुरु मैसूर में पिछले कई वर्षों से महिषा-दशहरा (महिषासुर दिवस) मनाते रहे हैं। उन्हें कथित तौर पर ‘राम का अपमान’ करने संबंधी एक शिकायत के बाद जनवरी 2016 में गिरफ्तार किया गया था। उस समय उन पर यह भी आरोप लगाया गया था कि उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी और तत्कालीन मानव संसाधन विकास विभाग की मंत्री स्मृति इरानी की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं।
मामले ने कैसे पकड़ा तूल?
ताजा मामले में प्रोफेसर महेश गुरु ने मुख्य सचिव रत्न प्रभा को लिखे पत्र में कहा कि उनका निलंबन सरासर अवैधानिक है। प्रोफेसर गुरु का कहना है कि उन्होंने कोई नियम नहीं तोड़ा। वह कर्नाटक स्टेट बैकवर्ड कमीशन फ़ोरम एंड फ़ेडरेशन के तत्वावधान में आयोजित लोकतंत्र बचाओ कार्यक्रम में शामिल हुए थे। बताते चलें कि मुख्य सचिव रत्न प्रभा राज्य निर्वाचन पर्यवेक्षक समिति की अध्यक्ष भी हैं। कर्नाटक में एक चरण में चुनाव हो रहे हैं जहां 225 सीटों पर आगामी 12 मई को वोट डाले जाएंगे।
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चुनावी गहमागहमी के बीच महेश गुरु के निलंबन पर सियासत लाजिमी थी। बेंगलुरू में शनिवार को मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को पत्रकारों ने घेर लिया और पूछा कि प्रोफेसर को क्यों निलंबित किया गया? मुख्यमंत्री ने कहा कि निलंबित प्रोफेसर किसी का प्रचार नहीं कर रहे थे बल्कि वे संविधान और लोकतंत्र बचाओ कार्यक्रम में शामिल हुए थे। सीएम के बयान के बाद यानी कांग्रेस के बचाव में आने के बाद, चंद घंटों के अंदर ही भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने अपने रोड शो के दौरान कहा, “कांग्रेस ने समाज में जातियों को बांटने का काम किया है।” शाह ने कहा कि कांग्रेस ने महान हिंदू संस्कृति में कई पाप जोड़े हैं।

महेश गुरु का पक्ष
लेखक से प्रोफेसर महेश गुरु ने दूरभाष पर बातचीत में कहा, “असल बात यह है कि बीजेपी बुरी तरह से हताश हो चुकी है और अब वह चुनाव आयोग का इस्तेमाल कर रही है। मैंने खुलकर कह दिया है कि आपसे (सरकार) जो हो सकता है- कीजिए। लेकिन मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, हम एक ऑटोनोमस बॉडी के अधीन हैं- आपके नौकर नहीं। मेरे निलंबन का मामला सिंडिकेट को क्यों नहीं भेजा गया? हम जानते हैं कि उनकी इच्छा क्या है। हेगड़े (स्थानीय नेता) मुझसे कहते हैं कि मोदी जी और बीजेपी संविधान को बदलने आए हैं, लेकिन मैंने कहा है कि मोदी कुछ नहीं कर सकते हैं। हमें देश में ‘जय श्रीराम’ नहीं चाहिए। देश को न्याय चाहिए। जो समाज को बदल सके, वह भीम चाहिए। लोगों को भ्रम में रखा जा रहा है। हमारे सबके, आंबेडकर के संविधान में “सबका साथ सबका विकास” पहले से मौजूद है।”
घटनाक्रम
महेश गुरु ने मुख्य सचिव को लिखे पत्र में कहा कि उन्होंने लोकतंत्र बचाओ- सांप्रदायिक हटाओ कार्यक्रम में शिरकत की थी, जिसे दो संगठनों ने मिलकर आयोजित किया था। कार्यक्रम बीते 13 अप्रैल को हुआ था। नागरिक समाज को बचाने, लोकतंत्र की आजादी और संविधान की रक्षा विषयक कार्यक्रम में मैं मुख्य वक्ता था। प्रोफेसर ने कहा कि जागरूक और देश का एक प्रबुद्ध नागरिक होने के नाते उन्होंने अपने विचार रखे थे। इन विचारों को रखने के लिए संविधान पूरी आजादी देता है। इसीलिए उन्होंने इस विषय की हिमायत की। महेश गुरु ने कहा कि एक स्थानीय कन्नड अखबार ‘विजया कर्नाटका’ ने उनके बारे में गलत रिपोर्ट छापी जिसमें कहा गया कि उन्होंने (प्रोफेसर गुरु ने) एक चुनावी सभा में हिस्सा लिया और कांग्रेस को मौजूदा चुनावों में अपना समर्थन व्यक्त किया।
इस खबर के छपने के बाद महेश गुरु को विश्वविद्यालय प्रशासन ने कारण बताओ नोटिस जारी किया और सफाई मांगी थी। प्रोफेसर ने कहा कि उन्होंने इस बारे में साफ कर दिया था कि उनके खिलाफ की गई शिकायतें सिर्फ मनगढ़ंत हैं, जिनका आधार सिर्फ शक है। प्रोफेसर गुरु को 16 अप्रैल को नोटिस मिला और 23 अप्रैल को सेवा से निलंबित कर दिया गया।
कुल मिलाकर, पांच प्रमुख बिंदु हैं- (1) विश्वविद्यालय प्रशासन ने प्रोफेसर गुरु का पक्ष नहीं सुना, (2) न ही मामले को नियमानुसार सिंडिकेट में भेजा, (3) क्या यह उनके द्वारा महिषासुर दिवस मनाए जाने का दंड है जो चुनाव में याद दिलाया जा रहा है, (4) और क्या प्रोफेसर महेश गुरु के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन नहीं हो रहा है? और (5) अंतिम कि जैसा वृत्ताकार बुना गया है क्या एक दलित (समाज से जुड़े प्रोफेसर) के खिलाफ की गई साजिश है- जैसा प्रोफेसर गुरु का शक भी है।
प्रोफेसर गुरु ने मुख्य सचिव के अलावा प्रमुख सचिव, उच्च शिक्षा मंत्री और कई अन्य को मामले की जानकारी दी है और कहा है कि संविधान की मूल भावना में निहित विचार और अभिव्यक्ति की आजादी को बचाने के लिए विश्वविद्यालय के इस अवैधानिक आदेश को खारिज किया जाए।
वहीं मुख्य सचिव, रत्ना प्रभा के कार्यालय से हमने उनसे अपना पक्ष रखने को कहा तो जवाब मिला, “इस बारे में आपको मेल करना होगा, अन्य जानकारी के लिए आप कल फोन कर सकते हैं।”
(कॉपी एडिटर : नवल)
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