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विकास का खामियाजा भुगत रहे आदिवासी, अब जल संकट झेलने को मजबूर

जल, जंगल और जमीन वाले आदिवासियों को जंगल और जमीन से विस्थापित किया ही जा रहा है। अब उन्हें जल से भी महरूम किया जा रहा है। पूरे देश में आदिवासी भीषण जल संकट से गुजर रहे हैं। इस बीच नीति आयोग की 15 जून को जल प्रबंधन पर समग्र रिपोर्ट आई। आयोग ने राज्य तो बताए लेकिन अपने लाल-पीले किए नक्शे में जल संकट ग्रस्त इलाकों के नाम का उल्लेख ही नहीं है। कमल चंद्रवंशी की रिपोर्ट

आदिवासियों को पानी देना सरकार की प्राथमिकता ही नहीं है। मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड के सभी आदिम जनजातीय बहुल इलाके बूंद-बूद पानी के लिए तरस रहे हैं। सीधी (मध्यप्रदेश) में विलुप्त होती बैगा जनजाति के कल्याण के लिए उत्थान के लिए बना ‘बैगा प्रोजेक्ट’ फेल हो गया है। कुसुम जिले के दूरदराज़ के इलाकों में पानी की बूंद-बूंद के लिए संघर्ष है। मनडोलिया में हैंडपंप लगे हैं लेकिन दो साल से सब सूख गए हैं। रोजगार गांरटी के तहत बनाया भी कुआं काम नहीं कर रहा है। हैंडपंप और कुआं सूखने बाद अब गंदे नाले पानी के ‘स्रोत’ अलावा उनके पास कोई ‘विकल्प’ नहीं बचा है।

सीहोर (मध्य प्रदेश) में भी तीन दर्जन से अधिक आदिवासी परिवार गंदे नाले से पानी लाने को विवश हैं। जहां थोड़ा बहुत पानी पहुंचाया भी गया है उस बस्तर में सैकड़ों आदिवासी हर साल जहरीले पानी से मर रहे हैं। इस समय बस्तर में 92, कोंडागांव में 40, कांकेर में 57, बीजापुर में 6 बस्तियों में फ्लोराइड वाले पानी से फ्लोरोसिस से पीड़ित हैं। भोपाल पटनम के गेर्रागुड़ा फ्लोरइड वाले पानी से कई बच्चे असमय बीमारियों की चपेट में आ गए। बंडा, पापेट व अन्य गांवों में जलसंकट का समाधान नहीं हो पाया है। विनैका आज भी पानी की समस्या से जूझ रहा है। श्योपुर (म. प्र.) में सैकड़ों महिलाओँ ने कलेक्ट्रेट ऑफिस पहुंचकर जोरदार प्रदर्शन किया और पानी का इंतजाम फौरन न करने पर तीन दिन का अल्टीमेटम दिया।

श्योपुर का संकट: पानी की तलाश में भटकते लोग और कलेक्ट्रेट पर प्रदर्शन करती आदिवासी महिलाएं (फोटो : दीपक पाटेकर)

चांचौड़ा और बीनागंज में जलापूर्ति की लाइन पिछले पांच दशक से जंग खाकर खत्म होने के कगार पर हैं। एक स्थानीय बुजुर्ग कहते हैं कि खानपुरा तालाब से सत्तर के दशक में दो वाटर फिल्टर प्लांट बनाए गए थे जिनसे पानी फिल्टर करके सप्लाई किया जाता था। स्थानीय निवासी यह भी शिकायत कर रहे हैं कि वाटर फिल्टर प्लांट जाम हो चुके हैं। जिससे अब दस इंची की जगह तीन इंची पानी पाइप से पानी सप्लाई होता है। एक ही प्लांट होने के कारण प्लांट की सफाई करना ही संभव नहीं है। ऐसा करेंगे तो सफाई कार्य के चलते दो सप्ताह तक जलापूर्ति रुक जाएगी। चांचौड़ा एवं बीनागंज में चार-चार टैंकर जल आपूर्ति के लिए लगाए हैं लेकिन वो नाकाफी हैं।

मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाकों का उल्लेख यहां अधिकाधिक इसलिए भी कि केंद्र सरकार ने अभी बीते 15 जून को राज्यवार बेहतर जल प्रबंधन के लिए पांच टॉपरों में एमपी को दूसरा नंबर दिया है। कुछ ऐसे ही जैसे बंडा (म. प्र.) में बीजेपी के विकास प्रभारी मंत्री हरवंश सिंह राठौर नंबर देते हैं, ‘हमारे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के मार्गदर्शन में हर जिले, कस्बे और गांव नया मुकाम हासिल कर रहे हैं। हमने जनसुविधाओँ के लिए पहले से बड़ा और स्थाई बुनियादी ढांचा खड़ा किया है।’ ‘हकीकत के नाम पर यह सूरज को दीया दिखाना जैसा है।’ कांग्रेस नेता दीपक पाटकर कहते हैं, ‘नीति आयोग झूठ बोल रहा है।’

क्या कहता है नीति आयोग?

नीति आयोग देश के समाज और अर्थ-वैज्ञानियों की जिम्मेदार संस्था है। उसकी रिपोर्ट में गंभीर जल संकट की ओर इशारा किया गया है। एक लाइन में कहें तो देश में 60 करोड़ लोगों के सामने पानी का गंभीर संकट है। यह देश के इतिहास के सबसे गंभीर जल संकट का दौर है। पानी की कमी से लाखों लोगों की जान और उनकी आजीविका पर खतरा मंडरा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, कई राज्य, जिनमें एमपी का पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ भी है, में जल प्रबंधन की स्थिति बेहद खराब है। 75 प्रतिशत आबादी को पीने के पानी के लिए दूर-दूर तक जाती है। इसके बावजूद जल प्रबंधन को लेकर कई राज्य गंभीर नहीं हैं।

रिपोर्ट कहती है, ‘गांवों में 84 प्रतिशत आबादी जलापूर्ति से वंचित है। जिन्हें पानी मिल रहा है, उसमें 70 प्रतिशत प्रदूषित है। रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ को 50 से भी कम अंक मिले हैं। छत्तीसगढ़ 9वीं रैंक के साथ एक पायदान नीचे आया है। प्रदेश को 49.1 अंक मिले हैं। रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में 20 प्रतिशत भूजल के स्त्रोत का अति शोषण हो रहा है। बारिश के पानी को बचाने के लिए, रेन वॉटर हार्वेस्टिंग की जरूरत है। यहां खेती का 60 फीसद से ज्यादा हिस्सा सिंचाई के लिए बारिश के पानी पर निर्भर है। हार्वेस्टिंग के लिए केवल 40 फीसदी हिस्से में काम हो पाया है। राज्य शहरों में गंदे पानी के ट्रीटमेंट में फिसड्डी है। यहां शहरों में केवल 3% गंदे पानी का ट्रीटमेंट होता है। वैश्विक जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 देशों में भारत 120वें स्थान पर है। हैरानी नहीं कि रिपोर्ट में गुजरात टॉप पर है। 2015-16 और 2016-17 के आंकड़ों के आधार पर तैयार इस रिपोर्ट के अनुसार जल प्रबंधन में झारखंड का प्रदर्शन सबसे खराब है। पूर्वोत्तर के पहाड़ी राज्यों में त्रिपुरा टॉप पर है। नीति आयोग ने जल प्रबंधन क्षेत्र में राज्यों में प्रतिस्पर्द्धा बढ़ाने के लिए रैंकिंग शुरू की थी। इसे 28 मानकों जैसे भूजल, जलाशयों का रखरखाव, सिंचाई, कृषि, पेयजल, नीति और प्रशासन को शामिल किया गया था। गौरतलब है कि आयोग ने जल प्रबंधन में गुजरात को सबसे अव्वल तो मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र को क्रम से दो से पांच तक के अंक दिए हैं। देश के 50 राज्य ऐसे हैं जहां पेयजल शुद्धता और गंदे पानी को ट्रीटमेंट के बाद उपयोगी बनाने की दिशा में काम करना अनिवार्य हो गया है। वॉटर हार्वेस्टिंग के बिना ऐसा संभव नहीं है।

श्योपुर की मिसाल

मध्य प्रदेश का श्योपुर आदिवासियों के साथ घोर अन्याय का प्रतीक है। यह अभावों की धरती है। लेकिन सियासी रोटी सेंकने के लिए माकूल जगह भी है। सारे ग्रामीण क्षेत्रों में जल स्तर तेजी से गिर गया है। हैंडपंप पानी नहीं दे रहे। जंगल से लगे गांवों में पानी की समस्या और भी गंभीर है। पानी की समस्या को लेकर लोग प्रशासन की एक जन सुनवाई में पहुंचे तो हकीकत कैमरों में कैद हुई।

मध्यप्रदेश, छ्त्तीसगढ़, बिहार झारखंड का हाल सबसे खराब। (मैप चार्ट: नीति आयोग)

चंद्रपुरा गांव की सुमिला अन्य 25 से अधिक महिलाओं के साथ कलक्ट्रेट में पहुंचीं थीं। महिलाओं ने कहा कि हैंडपंप खराब हो गए हैं। दूर खेतों से पानी ढोकर लाना पड़ रहा है। मजबूर होकर श्योपुर आना पड़ा। आदिवासी लाली ने कहा, खेतों से पीने का पानी लाना पड़ रहा है। इसके अलावा गांव में जो शौचालय बन चुके हैं, उनको कैसे इस्तेमाल करें जब पानी ही नहीं है। राहत उपायों के लिए प्रशासन से कुछ इमदाद मिलती है तो वह पंचायत स्तर रुक जाती है। पानी के अभाव में आदिवासी जनता रोगों से ग्रसित है। ढेगदा गांव निवासी कंचन आदिवासी ने बताया कि उसके बेटे कैलाश आदिवासी के गले में गठान है। वह गंभीर रूप से बीमार है। डॉक्टर अशोक खरे से रोगी का परीक्षण कराया और सरकारी वाहन अस्पताल भेजा। कलेक्टर ने कहा, आवश्यकता पडने पर राज्य बीमारी सहायता निधि में प्रकरण तैयार कर स्वीकृत कराई जा रही है। गिरधरपुर निवासी रामकिशन आदिवासी अपनी पत्नी पानाबाई का दर्द रखा। वह कैंसर से पीड़ित हैं। 8 माह से उसका इलाज चल रहा है। डॉक्टरों ने ऑपरेशन की सलाह दी है लेकिन बीपीएल सूची में नाम नहीं होने से आर्थिक सहायता नहीं मिल पा रही है। यहीं बड़ौदा निवासी ओमप्रकाश काछी ने बताया कि उनका नाम बीपीएल सूची में  शामिल नहीं हुआ। कहीं इलाज कराने में सक्षम नहीं हैं। वीरपुर, बंधाली, रानीपुरा के गांवों की परेशानियों का अंत नहीं है। कई लोगों ने संकट और इससे उपजी बीमारियों के समाधान ना करने को लेकर जमकर नारेबाजी की।

वहीं पहाडगढ़ (मध्य प्रदेश) मुरैना से 12 मील की दूरी पर है। यह गुफाओं की बड़ी श्रृंखलाओं के जाना जाता है। भीमबेटका गुफाओं में सभ्यता के प्रारंभ में होने के प्रमाण हैं। कन्हार के सरपंच रामश्री शिवचरण ने कहा क्षेत्र में सारे गांवों के हैंडपंप बंद है। जलस्रोतों की जानकारी के लिए प्रशासन ने ग्राउंड रिपोर्ट तैयार कर रहा है। लेकिन पानी के लिए रिपोर्ट आने तक का इंतजार नहीं किया जा सकता है। जौरा क्षेत्र क एसडीएम राजन नाडिया कहते हैं, ऐसा नहीं है, हम टैंकर भेजकर पानी का बंदोबस्त कर रहे हैं। इलाके के लोगों का कहना है कि अनुपलब्धता के चलते वो पांच किलोमीटर दूर से पानी लाने को मजबूर हैं। कुछ संपन्न इलाकों में ट्यूबवेल मालिकों के हाथ-पैर पकड़कर लोग पीने का पानी ला रहे हैं। यह भी सच है कि नदी, झरनों का पानी सूख गया है। मवेशियों के लिए तो पानी बिल्कुल भी नहीं है। सरपंच कहते हैं जिला मुख्यालय बैठे अधिकारियों को इसकी जानकारी है। बावजूद इसके पानी की समुचित व्यवस्था नहीं हो रही है।

बहरहाल पेयजल की इस हालत में खेती और सिंचाई की बात बेमानी है। धार, बडवानी, खरगोन, झाबुआ और अलीराजपुर जैसे आदिवासी जिलों में किसान पारंपरिक रूप से ‘पाट की खेती’ से पानी से बचाते थे। स्थानीय निवासी मनीष बताते हैं कि निमाड़ का इलाका सतपुड़ा पर्वत शृंखला की ऊँची–नीची पहाड़ियों की ऊसर जमीन का पठारी क्षेत्र है। आदिवासी फलियों (गाँवों) तक पहुँचने के लिए पैदल ही लम्बा पहाड़ी रास्ता पार करना पड़ता है। अब पाट की खेती मुश्किल होती जा रही है क्योंकि दूर-दूर तक पानी नहीं है।

(कॉपी एडिटर : नवल)


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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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