सभा के एजेंडे से आदिवासियों या अनुसूचित क्षत्रों से संबंधित जरूरी मुद्दे गायब
पंचायतीराज अधिनियम से अलग, छत्तीसगढ़ राज्य पंचायत उपबन्ध (अनुसूचित क्षेत्र विस्तार) अधिनियम, 1996 के तहत बना “पेसा” कानून एक प्रकार से जंगल-जमीन पर आदिवासी अधिकारों तथा समाज की प्रथाओं-परंपराओं के संरक्षण के लिए ग्रामसभाओं को विशिष्ट अधिकार देता है। मगर इस कानून के बनने के बाद से ही लगातार 23 सालों से सरकारों और पूरी सरकारी मशीनरियों ने इसका मखौल उड़ा रखा है।

आदिवासियों की परंपराओं व प्रथाओं को तहस-नहस करके उन्हें कमजोर करने और जंगल व जमीन की उनकी मल्कियत की लूट-खसोट को बनाए रखने के लिए कभी “पेसा” कानून के तहत ग्रामसभाएं होने न दी, और यदि कहीं स्वस्फूर्त तरीके से किसी ग्रामसभा ने कोई निर्णय किया भी तो उसे माना नहीं गया, लागू होने नहीं दिया गया। ऐसे में मजबूर आदिवासियों ने प्रतिकार और जन-जागरण के लिए पत्थलगड़ी की अपनी रीति का सहारा लिया और जगह-जगह ग्रामसभाएं करके आदिवासी अधिकारों, खासकर “पेसा” कानून से संबंधित बातें पत्थरों पर लेख व चित्रों में उकेड़ कर पत्थलगड़ी शुरू की। प्रत्युत्तर में सरकारी मशीनरियों ने कभी इन्हें क्रिश्चयन मिशनरियों की साजिश तो कभी नक्सली गतिविधि बताकर जबरदस्त दमनकारी अभियान भी चलाया। फॉरवर्ड प्रेस ने इसे महीने भर पहले “पत्थलगड़ी आंदोलन : आर-पार की लड़ाई लड़ रहे आदिवासी” शीर्षक से प्रमुखता से प्रकाशित भी किया था।
मगर इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकारी दमनचक्र अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए आदिवासियों के पत्थलगड़ी आंदोलन को रोकने में नाकामयाब रहा। पत्थलगड़ी के अलावा अन्य विभिन्न आदिवासी आयोजनों, भले ही वे धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजन रहे हों, उनमें भी आदिवासी अधिकारों, प्रथाओं-परंपराओं और “पेसा” कानून महत्वपूर्ण विषय बनते रहे। सरकार और सरकारी मशीनरियों के प्रति आदिवासियों में इस तेजी से बढ़ता असन्तोष चुनावी वर्ष में सरकार और सत्ता पार्टी के लिए किसी “खतरे की घंटी” से कम नहीं है।
आनन-फानन में, 23 साल से जिस “पेसा” कानून पर कुंडली मारकर सरकार बैठी थी, उसे लागू करते हुए इस कानून के तहत 10 और 11 जून को विशेष ग्रामसभाएं आयोजित करने का निर्देश जारी किया गया। छत्तीसगढ़ शासन के आदेश के अनुसार- अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत उपबंध विस्तार अधिनियम 1996 के अंतर्गत पांचवी अनुसूचित क्षेत्र में 10 एवं 11 जून को विशेष ग्रामसभा का आयोजन किया जाएगा। प्रदेश के 27 जिलों में से 13 पूर्णतः एवं छह आंशिक रूप से अनुसूचित क्षेत्र विस्तार अधिनियम 1996 के अंतर्गत आते हैं। इनमे 5055 हजार ग्राम पंचायतें हैं। पहली नज़र में, शासन का यह आदेश पत्थलगड़ी आंदोलन कर रहे आदिवासियों की जीत है।

मगर क्या सचमुच आदिवासियों का पत्थलगड़ी आंदोलन जीत गया? क्या सरकार ने उनके आगे घुटने टेक दिए? इसे समझने और उससे भी ज्यादा समझते हुए चौकस रहने की जरूरत है। “पेसा” कानून के तहत ग्रामसभाएं करने के छत्तीसगढ़ सरकार के शासनादेश में ग्रामसभा के लिए चार विभागीय एजेंडा समाहित किए गए हैं। ये हैं- पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग, वन विभाग और आदिम जाति अथवा अनुसूचित जाति विकास विभाग। दूसरी ओर, अनुसूचित क्षेत्रों की विकराल समस्याओं, जैसे- अजजा समुदाय की जमीनों पर अवैध कब्जा, धोखाधड़ी बिक्री, सामुदायिक वन पट्टा, गौण खनिज लीज सर्वेक्षण खनन, भू-अर्जन से पहले “पेसा” के तहत ग्रामसभा का निर्णय, अनुसूचित क्षेत्र में अवैध नगरीय निकाय गठन आदि के मुद्दों को गायब कर दिया गया है। इस प्रकार चतुराईपूर्वक आदिवासियों या अनुसूचित क्षत्रों से संबंधित जरूरी मुद्दों को गायब करके केवल “पेसा” कानून के तहत ग्रामसभाएं आयोजित करने का शासनादेश जारी करना, चुनावी माहौल में आदिवासियों को लॉलीपॉप थमाकर उनके असन्तोष को कम करने का प्रयास मात्र लगता है।
मगर सर्व आदिवासी युवा प्रभाव के अध्यक्ष विनोद नागवंशी को यह पत्थलगड़ी आंदोलन की जीत लगती है। नागवंशी कहते हैं- “हाल ही में पत्थलगड़ी का जो अभियान चला, उसका ही परिणाम है कि “पेसा” एक्ट में ग्रामसभा कराने को लेकर शासनादेश निकला है। हमारी सरकार के साथ बातचीत हुई थी, जिसमें सर्व आदिवासी समाज अथवा समाज के दो रिटार्यड आईएएस शामिल थे। इसमें हमने पहली बात तो यही रखी थी की “पेसा” कानून के अंतर्गत ग्रामसभा कराइए और दूसरा सारे प्रशासनिक अमले को “पेसा” कानून पढ़ाइए, क्योंकि वे इसे जानते ही नहीं। अब सरकार तय नहीं करेगी कि ग्रामसभा को क्या करना है, बल्कि ग्रामसभा तय करेगी कि सरकार के क्रियान्वयन में क्या करना है। एक तरह से देखा जाए तो यह पहली जीत है।”
आदिवासी अधिकार व “पेसा” कानून
आदिवासियों के लिए कानून तो बनाए गए हैं, लेकिन सरकारों ने उन्हें इनसे वंचित कर रखा है। आज की स्थिति में प्रदेश के कलेक्टरों को “पेसा” कानून के तहत होने वाली ग्रामसभा व सामान्य ग्रामसभा में अंतर की जानकारी भी नहीं है। प्रशासनिक अमला सामान्य क्षेत्र के कानून को अनुसूचित क्षेत्र में थोपकर ग्रामसभा करवाता है। “पेसा” कानून लाने का उद्देश्य आदिवासी क्षेत्रों में अलगाव की भावना को कम करना और सार्वजनिक संसाधनों पर बेहतर नियंत्रण तथा प्रत्यक्ष सहभागिता तय कर लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत बनाना था। केरल के एक मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट नियमन दिया था कि जिसकी जमीन, उसका खनिज। इनका नारा था- मावा नाटे, मावा राज। वेदांता मामले में 2012 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार लोकसभा या विधानसभा नहीं, सबसे ऊंची ग्रामसभा है। अनुसूचित क्षेत्रों में केंद्र या राज्य सरकार की एक इंच जमीन नहीं है। कैलाश वर्सेज महाराष्ट्र सरकार के एक में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि सात फीसदी आदिवासी ही इस देश की मूल बीज हैं, बाकी अप्रवासियों की संतानें हैं। आदिवासियों की लंबी लड़ाई के बाद 73वें संविधान संशोधन में “पेसा” कानून को सम्मिलित किया गया था।
“पेसा” कानून से अनभिज्ञ प्रशासन
अनुसूचित क्षेत्र बस्तर में वनाधिकार पर काम कर रहे युवा सामाजिक कार्यकर्ता अनुभव शोरी कहते हैं- “पेसा कानून के अनुसार किसी भी ग्राम पंचायत में सरपंच, पंच व सचिव सर्वोच्च नहीं हैं। ये सब ग्रामसभा के प्रति जवाबदेह हैं और सभा की विश्वसनीयता तक ही कार्य कर सकते हैं। पारम्परिक ग्रामसभा ही सर्वोच्च है। सरपंच व सचिव पंच महज सरकारी एजेंट हैं और पूरा अधिकार पारम्परिक ग्रामसभा के पास होता है। ग्रामसभा का निर्णय सर्वमान्य व सर्वोच्च है। लेकिन व्यवस्था इसके उलट है। अनुसूचित क्षेत्र के संवैधानिक प्रावधानों से अनभिज्ञ जिला प्रशासन द्वारा सरपंच व पंच को सर्वोच्च बताकर ग्रामसभा के प्रस्तावों और निर्णयों को अमान्य किया जा रहा है जो संविधान की मूल व्यवस्था के विपरीत है।”

बस्तर संभाग मुख्यालय जगदलपुर के कलेक्टर धनंजय देवांगन बातचीत में कहते हैं कि “पेसा” एक्ट में ग्रामसभा होती है। लेकिन वे पंचायतीराज अधिनियम 1994 को ही “पेसा” एक्ट के दायरे में लाते हैं। वे दावा करते हैं कि उनकी ट्रेंनिग के दौरान उन्हें “पेसा” एक्ट के बारे में बताया गया था। दूसरी ओर, अनुसूचित क्षेत्र में पदस्थ एक जिला कलेक्टर नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि प्रशासन आकादमी की ट्रेंनिग के दौरान उन्हें “पेसा” कानून के बारे में नहीं बताया जाता। पदस्थापना के बाद पता चलता है कि अनुसूचित क्षेत्रों में “पेसा” कानून के तहत ग्रामसभाएं होती हैं जिनपर ग्रामसभा का पूर्णतः नियंत्रण होता है। कलेक्टर साहब स्वीकार करते हैं कि अनुसूचित क्षेत्रों में भी ग्रामसभाएं पंचायतीराज अधिनियम के तहत ही होती हैं। हालांकि वे मानते हैं कि सामान्य क्षेत्र और अनुसूचित क्षेत्र के कानून अधिकार भिन्न हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार गैरकानूनी काम कर रही
“पेसा” कानून की ड्राफ्टिंग के वक्त बीडी शर्मा के साथ काम किए सामाजिक कार्यकर्ता विजय भाई कहते हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार अबतक गैरकानूनी काम करते आई है। आज तक सामुदायिक वन अधिकार पट्टे नहीं दिए गए हैं। यहां तक कि “पेसा” कानून के तहत छत्तीसगढ़ में पहली दफा ग्रामसभा हो रही है। उस दौर में इस कानून को पारित कराने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी गई थी। कानून तो आया, लेकिन इस कानून का सरकारों ने मख़ौल उड़ा रखा है। अनुसूचित क्षेत्रों के लिये पांचवीं अनुसूची के अनुच्छेद 244(1), पंचायत उपबंध का अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार अधिनियम 1996, वनाधिकार अधिनियम 2006 की अधिसूचना कमशः देश के राष्ट्रपति व राज्यपाल के द्वारा जारी हुई, परंतु इन कानूनों को कार्यपालिका के अधिकारी संविधान सम्मत सेवा करने की प्रतिज्ञा करके भी अज्ञानतावश अपने ही हाथों तोड़ रहे हैं, जो कि गम्भीर अपराध है। एक प्रकार से अनुसूचित क्षेत्र के नागरिकों के साथ यह संवैधानिक भेदभाव ही है जिसके कारण ही इन क्षेत्रों में समन्वित विकास नहीं हो पा रहा है तथा शांति क़ायम नहीं हो पा रही है। इन क्षेत्रों में आज़ादी से आज तक सर्वाधिक बजट आवंटित कर ख़र्च किया जा रहा है, मगर यह खर्च कहाँ और कैसे हो रहा है, इस पर गम्भीर सवाल खड़े होते हैं।

क्या है “पेसा” अधिनियम-1996
“पेसा” कानून समुदाय की प्रथागत, धार्मिक एवं परंपरागत रीतियों के संरक्षण पर असाधारण जोर देता है। इसमें विवादों को प्रथागत ढंग से सुलझाना एवं सामुदायिक संसाधनों का प्रबंध करना भी सम्मिलित है। “पेसा” कानून एक सरल व व्यापक शक्तिशाली कानून है जो अनुसूचित क्षेत्रों की ग्रामसभाओं को क्षेत्र के संसाधनों और गतिविधियों पर अधिक नियंत्रण प्रदान करता है। यह अधिनियम संविधान के भाग 9 जो कि पंचायतों से सम्बंधित है, का अनुसूचित क्षेत्रों मे विस्तार करता है। “पेसा” कानून के माध्यम से पंचायत प्रणाली का अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार किया गया है। विकेंद्रीकृत स्वशासन का मुख्य उद्देश्य गाँव के लोगों को स्वयं अपने ऊपर शासन करने का अधिकार देना है।
“पेसा” ग्रामसभा की शक्तियां यानी आदिवासियों के अधिकार
1. “पेसा” एक्ट की धारा 4 (क) (ख) के अनुसार परम्परागत कानूनों सामाजिक, धार्मिक रूढ़ी प्रथाओं और सामुदायिक संसाधनों का परम्परागत प्रबंधन तकनीकों का आदिवासी जीवन में केंद्रीय भूमिका की पहचान करना और उन्हें अनुसूचित क्षेत्रों में स्वशासन की मूलभूत सिद्धान्त बनाये रखना है। रूढ़िगत प्रथाओं की संवर्धन संरक्षण में “पेसा” ग्रामसभा को एकाधिकार है।
2. अनुसूचित क्षेत्र की भूमि नियंत्रण, नियमन व निर्णय की शक्ति : “पेसा” की धारा 4 (ड) यह व्यवस्था करती है कि अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि कब्जा तथा अजजा के व्यक्ति की गलत तरीके से कब्जा की गई भूमि को वापस दिलाने का अधिकार “पेसा” ग्रामसभा को है। इस प्रावधान के संदर्भ में भू-राजस्व संहिता 1959 की धारा 170 ख में संशोधन कर नई उपधारा 2-क जोड़ी गई है।
3.”पेसा” की धारा 4 (ड) (प) के तहत अनुसूचित क्षेत्रों में “पेसा” ग्रामसभा को उस गाँव के भीतर मादक द्रव्यों के निर्माण, उसका कब्जा, परिवहन, मादक द्रव्यों की बिक्री, उपभोग की व्यवस्था हेतु नियम बनाकर नियंत्रण/प्रतिबंध लगाने की शक्ति है।
4.अनुसूचित क्षेत्रों में साहूकारी पर पूर्ण प्रतिबंध अर्थात न तो धन उधार देगा और न ही लेगा, की शक्ति “पेसा” ग्रामसभा को है। इस आदेश का उलंघन करने पर दो साल के कारावास या 10 हजार रुपये तक जुर्माना या फिर दोनों दण्ड एक साथ का प्रावधान है।
5. “पेसा” की धारा 4 (झ) के तहत अनुसूचित क्षेत्रों में किसी भी प्रकार का भू-अर्जन चाहे वह विकास परियोजना के लिए हो या किसी भी प्रकार की निर्माण भूमि प्रयोग के लिए हो, भू-अर्जन से पहले प्रभावित व्यक्ति द्वारा गाँव की पर्यावरण अध्ययन की रिपोर्ट, व्यवस्थापन एवं पुनर्वास की विस्तृत जानकारी से “पेसा” ग्रामसभा को अवगत कराया जाना अनिवार्य है। उसके पश्चात ही “पेसा” ग्रामसभा का भू-अर्जन का निर्णय अंतिम व सर्वमान्य होगा।
6.गौण खनिज का नियंत्रण नियामन : “पेसा” एक्ट की धारा 4 (ट) (ठ) के तहत अनुसूचित क्षेत्र की गाँव की परंपरागत सीमा के अंदर गौण खनिज की नियंत्रण, खनन पट्टा, सर्वेक्षण, नीलामी या उपयोग करने की पूर्ण शक्ति पेसा ग्रामसभा को प्राप्त है।
7. लघु वनोपज के संग्रहण, मूल्य निर्धारण व विक्रय की शक्ति :
“पेसा” अधिनियम की धारा 4 (ड)(पप) में यह प्रावधान है कि “पेसा” ग्रामसभा को गौण वनोपज (लकड़ी को छोड़कर सभी वनोउत्पाद) के संग्रहण, मूल्य निर्धारण व विक्रय (नीलामी) करने की शक्ति प्राप्त है।
8. वन अधिकार अधिनियम 2006 की धारा 5 के तहत गाँव की वनों को सुरक्षा संवर्धन नियंत्रण की सामुदायिक दावा की शक्ति।
9. गाँव के बाज़ार पर नियंत्रण की शक्ति।
10. गांव की रूढिजन्य परम्परों की सुरक्षा संवर्धन की शक्ति।
(कॉपी एडिटिंग : अनिल)
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