मोदी सरकार मंत्रिमंडल ने केंद्रीय सूची में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की जातियों के उप-वर्गीकरण की जांच के लिए गठित आयोग की अवधि डेढ़ महीना बढ़ाकर 31 जुलाई तक तक कर दी है। हालांकि, जानकारी यह भी है कि आयोग को दी गई यह समय-सीमा अंतिम नहीं है। आयोग की सिफारिशों पर फौरन अमल करने या फिर उसके द्वारा उप-वर्गीकृत की गई सूची के फौरन सामने आने (डिसक्लोज होने) पर सोशल इंजीनियरिंग की उस थ्योरी के ‘पुराने पड़ने‘ के आसार हैं, जिसके द्वारा 2019 के चुनावों की हवा बनाने की तैयारी है। यह आयोग मोदी सरकार के सामाजिक न्याय के लिए सबसे बड़ा शस्त्र माना जा रहा है, जिससे वह ओबीसी के सबसे पिछड़े तबकों को भेद (प्रभावित कर) सकता है। बता दें कि आयोग का कार्यकाल 20 जून से बढ़ाकर 31 जुलाई किया गया है।

बताया जा रहा है कि इस आयोग की रिपोर्ट के बाद मोदी सरकार 2016 में बनाई गई रणनीति (अति दलित और अति पिछड़ों को साधने) के द्वारा फिर से कामयाब हो सकती है। नफे के इस आकलन के बीच सरकार की विज्ञप्ति में दावा किया गया है कि “आयोग ने राज्य सरकारों, राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग, विभिन्न नागरिक संगठनों, पिछड़े वर्ग समुदायों से जुड़े संगठनों और प्रतिनिधियों से विस्तृत वार्ता की है। आयोग ने उच्च शिक्षण संस्थानों के अलावा केंद्रीय विभागों, केंद्र के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, बैंकों और वित्तीय संस्थानों में ओबीसी का जातिवार भर्ती का डेटा हासिल किया है।”
उप-वर्गीकरण के मायने : उप-वर्गीकरण करने के पीछे सरकार की मंशा सामाजिक समानता और न्याय के साथ ओबीसी वर्ग को और न्यायसंगत बनाने की है। आयोग के गठन को लेकर कहा गया था कि इसका काम होगा (1) सर्वाधिक पिछड़ों, (2) अधिक या मध्यम पिछड़ों और (3) पिछड़ों की श्रेणी को अलग-अलग करना। पहली श्रेणी में उन जातियों को सूचीबद्ध करना था, जो पेशेगत तौर पर सांप और सूअर पालन जैसे कामों से जुड़ी हैं। दूसरी श्रेणी में भेड़-बकरी पालन और कढ़ाई-बुनाई से जुड़ी जातियां हों, जबकि तीसरी श्रेणी में उन पिछड़ी जातियों को चिह्नित करके सूची में डालना है, जो कम या ज्यादा ज़मीन पर मालिकाना हक रखती हैं। दिल्ली हाईकोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जी. रोहिणी को पांच सदस्यीय आयोग का अध्यक्ष बनाया गया, जबकि इसके सदस्यों में केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री के अलावा सामाजिक न्याय विभाग के संयुक्त सचिव और सचिव स्तर के अधिकारी हैं। अपने गठन के तीन महीने (12 हफ्ते) बाद आयोग को रिपोर्ट देनी थी। यानी आयोग के काम करने के शुरू वक्त- 23 अक्टूबर 2017 से जनवरी 2018 तक। लेकिन हर आयोग की तरह इस आयोग की सिफारिशों को लेकर भी कोई अंतिम निष्कर्ष निकलने तक इंतजार करना होगा। हालांकि, लगता यही है कि सरकार के पास सिफारिशों को लेकर पहले से ही जानकारी है, क्योंकि पिछले महीने राजस्थान में हुए गुर्जर आंदोलन के समय गृह मंत्रालय, राज्य सरकार और गुर्जर प्रतिनिधियों की बैठक में पंचायतराज मंत्री राजेंद्र राठौड़ ने कहा, “राज्य सरकार गुर्जर समाज की मांगों के प्रति प्रतिबद्ध है। इससे लगता है कि सरकार रोहिणी कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ओबीसी आरक्षण के वर्गीकरण पर फैसला करेगी।”

श्रेणी बनाने की क्यों जरूरत : बताते चले कि ओबीसी में कई बार क्रीमी लेयर की विसंगति के सवाल उठते रहे हैं। कहा जाता है कि कथित संपन्न जातियों को ही आरक्षण का बड़ा हिस्सा लाभ के रूप में मिल जाता है। मौजूदा सरकार के इस रवैये पर जब हमने गढ़वाल विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और सामाजिक कार्यकर्ता पी. गैरोला से बात की, तो उन्होंने कहा, “जिस टाइमिंग में केंद्र सरकार ने आयोग की घोषणा की, वह सराहनीय कदम था। सरकार के नारे, खासकर ‘सबका साथ, सबका विकास’ को लेकर तालमेल बना। लेकिन, अब यह देखना होगा कि यह कितना असल ओबीसी के पक्ष में जाता है। या इसका मकसद केवल वोटों को बांधना था या फिर आए दिन दिखने वाले असंतोष को थामने भर की कोशिश इसके पीछे छिपी थी।”

गैरोला यह भी कहते हैं, “असल बात यह है कि जिस पर शक-सुब्हा करना चाहिए वह यह कि 2014 में मोदी के ‘नीच’ वाले बयान से वह यूपी में जातीय ध्रुवीकरण करने में कामयाब रहे और ओबीसी वर्ग उनके साथ चला गया। लेकिन, ध्यान रखें कि इसके बाद उन्होंने राष्ट्रपति के रूप में कोविंद को आगे करके दूसरा दांव खेला। इससे पहले विधानसभा चुनाव के लिए माकूल नतीजों के लिए वह केशव मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर यह दांव खेल चुके थे। सभी जानते हैं कि यह मायावती के वोटरों को अपने पाले में लाने को लेकर उठाया कदम था। इसलिए 2019 की रणनीति से जोड़कर सब फैसलों, सिफारिशों और घोषणाओँ को देखना ही उचित होगा।” गैरोला आगे कहते हैं, “उप-वर्गीकरण का मामला भले ही 2011 में उठा और आगे बढ़ा, लेकिन इसे अंजाम तक अगर मोदी पहुंचाते हैं, तो इसकी चुनावी कामयाबी के लिए वह खुद की पीठ थपथपाएंगे। जबकि नाकाम होने पर वह कांग्रेस की उस रणनीति को कोसेंगे कि मूल ढांचा तो यूपीए सरकार के दौरान तैयार किया गया था।”
किसी भी समाज में आपसी न्याय के लिए वैज्ञानिक समझ कहती है कि असमानता दूर होनी चाहिए। बिहार में नीतीश कुमार ने भी महादलित श्रेणी बनाई थी। श्रेणी बनने पर महादलित में शामिल जातियों को राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक लाभ तो मिला, लेकिन इनके जीवन की गुणवत्ता को बढाने के लिए बिहार सरकार ने ठोस प्रयास नहीं किए। इस तर्ज पर ओबीसी में ‘सर्वाधिक पिछड़े’, ‘मध्यम पिछड़े’ और ‘पिछड़े’ लोगों में कथित तौर पर कुछ न्याय पाने की आस में सध जाते हैं, तो यह दांव भी सफल हो सकता है। नीतियां और नीयत साफ होनी चाहिए।
दमोह से बीजेपी के सांसद और पिछड़े वर्ग के नामी नेता प्रहलाद पटेल से जब हमने इस बारे में सवाल किया, तो उन्होंने कहा कि उनके पास ऐसी कोई जानकारी या आंकड़ा नहीं है, जिसमें जस्टिस रोहिणी ने कोई सूची गुपचुप तरीके से सरकार को पहले से ही दे दी हो, जबकि उसका कार्यकाल बढ़ाया गया है। आयोग ने असल में इसी उप-वर्गीकृत सूची के विश्लेषण के लिए समय मांगा है। प्रहलाद पटेल ने कहा, “मैं इस मामले में लोकसभा की बहस में शामिल हो चुका हूं। यह निश्चित जानिए कि उप-वर्गीकरण का पिछड़े समाज को बड़ा लाभ होगा।” कांग्रेस नेता देवेंद्र आर्य का कहना है कि सरकार की घोषणा के समय से हमको पता था कि उसकी पूरी चाल पॉलिटिकल माइलेज लेने की है। सच तो यह है कि केंद्र की मौजूदा सरकार के प्रति पिछडे तबकों की कभी भी अच्छी राय नहीं रही है। जातियों को छांटने का काम करके वह ऐसे उपाय निकाल रही है कि पिछड़ी जातियों में से सर्वाधिक (पिछड़ी जातियों) के बीच अपनी पैठ मजबूत कर सके। लेकिन हमें खुशी होगी कि इस बहाने ही सही, सरकार अति पिछड़ों का कल्याण कर सके।
बहरहाल, ऐसे समय में जब सरकारी नौकरियों के लिए तमाम रास्ते बंद हो गए हैं, यह कहना कि कथित संपन्न जातियां जल्द ही आरक्षण प्राप्त अवसरों के बड़े हिस्से से वंचित हो जाएंगी और अति पिछड़ों या मध्यम पिछड़ों के लिए बहार आने वाली है, तो फिलवक़्त में यह एक खाम-ख़याली है। हां, इससे भी अहम यह है कि आयोग ने उच्च शिक्षा और सरकारी उपक्रमों में नौकरी कर रहे ओबीसी के लोगों की संख्या भी जुटाई है। इसलिए जैसे ही यह आंकड़ा उजागर होता है- ओबीसी में खलबली मचेगी और ओबीसी के लिए दुधारी सियासत पैनी हो जाएगी।
(कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी)
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