2 अप्रैल 2018 की तरह आगामी 9 अगस्त को प्रस्तावित दलित बहुजनों आदिवासियों के भारत बंद की तैयारियों को लेकर इस बार स्वत:स्फूर्त के बजाय ‘तैयारी’ जैसा बहुत कुछ है। दलित पिछड़ों के तमाम संगठनों ने अबकी प्रस्तावित बंद को लेकर अपने समुदाय से ताल्लुक रखने वाले एससी, एसटी, ओबीसी सांसदों और विधायकों को आंदोलन के लिए पार्टी लाइन से अलग हटकर समर्थन देने की जोरदार अपील की है। आयोजकों ने अपने समाज से जुड़े 131 सांसदों और 1000 से अधिक विधायकों से कहा है कि वो अपने समुदाय के हितों के प्रति अपना कर्तव्य ना भूलें। सांसदों और विधायकों को तमाम संगठन जल्द ही एक अपील जारी करने वाले हैं।

दलित-बहुजन संगठनों ने अपनी अपील में कहा है कि तीन महीने से अधिक हुआ, जब उन सभी ने मिलकर 2 अप्रैल को भारत बन्द किया था। उस समय हम सबने सरकार को चेताया था कि वह दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समेत पिछड़े वर्गों के अधिकारों और सम्मान के साथ खिलवाड़ बंद करे। लेकिन बंद को लेकर आदिवासियों के सामने कोई सैद्धांतिक मतभेद ना होने बावजूद एक बार फिर से पसोपेश की स्थिति है। आदिवासियों ने कहा है कि 9 अगस्त को दुनियाभर में आदिवासी दिवस मनाया जाता है जिसके कार्यक्रमों की वजह से इन दिन को चुनना व्यावहारिक नहीं है। आदिवासी संगठनों ने गुस्सा जाहिर करते हुए कहा है कि 9 अगस्त का ही दिन क्यों चुना गया। जबकि ट्राइबल लोग पूरी दुनिया में वर्ल्ड इंडिजिनस डे मनाते हैं। आप नहीं चाहते कि ट्राइबल ऐसा कोई दिन मनाएं। 2 अप्रैल को भी जानबूझकर आप लोगों ने भारत बंद किया था क्योंकि एक अप्रैल को ट्राइबल दिल्ली में संसद के घेराव कार्यक्रम बना रहे थे। यह तो ट्राइबल को रोकने की कोशिश है। लेकिन इस बार आदिवासी 9 अगस्त विश्व आदिवासी दिवस धूमधाम से मनाएंगे।

दलित और पिछड़े समाज की 20 सूत्रीय मांगों को लेकर बंद आहूत किया गया था, यह उसी की दूसरी कड़ी के रूप प्रचारित किया जा रहा है। इसमें सबसे प्रमुख मांग है कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम से कोई छेड़छाड़ ना की जाए। आरोप है कि सरकार इसे “कमजोर पड़ने” देने की कोशिशों में लगी है। 2 अप्रैल के पहले भारत बंद की सफलता से नेताओँ के होश फाख्ता हो गए थे, उनके भी जो दलित बहुजन समाज का नेतृत्व करते आए हैं। जाहिर है इस बार के बंद का राजनेताओं को गहराई से नोटिस लेने पर मजबूर होना पड़ा है। बताया जा रहा है कि इस बार एलआईयू बहुत नीचे के स्तर से हालात पर नजर रख रहे हैं।

ऑल इंडिया आंबेडकर महासभा (एआईएएम) के अध्यक्ष अशोक भारती के मुताबिक “हम अपने समुदाय के नेताओँ (सांसदों,विधायकों को) बस इतना बता रहे हैं कि उन पर समुदाय का कर्ज है, उसे चुकाएं। दलित पिछड़े नागरिक समुदाय की अनदेखी करके नेता बनें जरूर हैं लेकिन लड़ाई को वो कुंद ना पड़ने दें। सरकार ने कई आश्वासन और वायदे किए। सरकार ने कहा कि वह अध्यादेश लाकर अत्याचार निवारण एक्ट पर सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले से पड़े असर को ख़त्म करेगी। वह निर्दोष एससी/ एसटी/ ओबीसी लोगों पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा व उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में चंद्रशेखर, शिव कुमार प्रधान, उपकार बावरे व हज़ारों अन्य पर ज़बरन लगाए गए मुक़दमों को वापस लेगी। आरक्षण व पदोन्नति में आरक्षण बहाल करेगी। विश्विद्यालयों व कॉलेज में नियुक्ति में हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए यूजीसी का सर्क्यलर कैंसिल करेगी। न्यायपालिका में हिस्सेदारी के लिए ठोस क़दम उठाएगी। लेकिन अब लग रहा है कि संसद का मौजूदा मानसून अधिवेशन 16वीं लोकसभा का अंतिम अधिवेशन है। सरकार ने ना तो अभी तक कोई आश्वासन पूरा किया है और ना ही सरकार कोई वायदा निभाने को लेकर तैयार दिखती है। सच ये है कि हमारे हज़ारों नौजवानों को झूठे मुक़दमों में जान-बूझकर फँसाया गया है। उन्हें लगातार परेशान किया जा रहा है। तमाम राजनीतिक नेता और दल एक बार फिर दलितों को अकेला छोड़ कर अपने धंधे में लग गए हैं।
आदिवासियों में विरोध
आपको बता दें कि यूएनओ से 9 अगस्त के विश्व आदिवासी दिवस मान्यता मिली है। यह दिन आदिवासी समाज में धूमधाम से मनाया जाता है। 9 अगस्त की अपील से आदिवासियों में गुस्सा होना जाहिर है। यह उनकी ताकत से मिली सफलताओं के जश्न का दिन है। हरनाम मरावी गोंडवाना ने कहा है कि भारत बंद का फैसला 9 अगस्त को ही क्यों तय किया गया? हम सबको यह पता होना चाहिए कि यह दिन कितना अहम होता है। विनोद परास्ते कहते हैं कि दलित समाज का हम सम्मान करते हैं लेकिन 9 अगस्त को सभी आदिवासियो का त्यौहार है जो कि इस साल बहुत ही धूमधाम से मनाने की तैयारी है। आदिवासी अपनी एकता की परिचय देने वाले हैं। आदिवासियों के हितों को ध्यान रखकर अपील नहीं की गई। राजा राजतिलक ने कहा कि इसलिए इस तारीख को ना चुनें क्योंकि इस दिन जगह जगह इंडिया में रहने वाले ट्राइबल्स और इंडिजीनस लोग संगोष्ठी कार्यक्रम करेंगे। डॉक्टर सूर्या बाली ने कहा कि ऐसा क्यों किया गया, समझ से परे है। एक दिन तो मिला है ट्राइबल लोगों को अपने अस्तित्व को दुनिया को दिखाने को उसको भी राजनीति की चौखट पर बलि चढ़ा रहे हो।

बहरहाल, बंद समर्थकों ने कहा है कि वह पीछे नहीं हटने वाले। इस समय सोशल मीडिया से लेकर उन सब इलाकों में रहने वाले लोगों में बेचैनी और उत्सुकता बढ़ गई है जहां अप्रैल की आवाज पूरे देश सुनी थी। हालांकि दलित बहुजन संगठनों ने कहा कि वो सारा बंद कार्यक्रम, चर्चा, बैठकें और सभाएं क़ानून सम्मत और शांतिपूर्ण ढंग से करेंगे। सरकारी मशीनरी अपना काम देखे। हमारा मकसद उनको परेशान करना नहीं है, न अधिकारियों की धमकियां देना।
अप्रैल की सीख
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी (प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटीज़) एक्ट को लेकर कहा था कि इन मामलों में तुरंत गिरफ़्तारी नहीं होनी चाहिए और शुरुआती जाँच के बाद ही कार्रवाई होनी चाहिए। इसके बाद दलित बहुजन और आदिवासी समाज में काफी गुस्सा था और किसी सियासी दल की अपील के बिना भी बंद सफल रहा था। बंद में देश के कई हिस्सों में हिंसक प्रदर्शन हुए थे। मध्य प्रदेश में हिंसक झड़पों में छह लोगों की मौत हो गई थी। भिंड में बजरंग दल और भीम सेना के कार्यकर्ताओँ में हिंसक झड़पें हुईं। राजस्थान के अलवर में पुलिस और प्रदर्शनकारियों में झड़पें हुई जहां 2 लोग मारे गए थे। बाड़मेर में बंद समर्थकों और दुकानदारों में टकराव हुआ तो उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में भी 4 लोगों की मौत हो गई थी। झारखंड, हरियाणा समेत पंजाब में जमकर हिंसा हुई थी। देशभर में एक दर्जन से ज्यादा लोग मारे गए थे।
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