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‘अंग्रेजी’ से सरकारी विद्यालयों में रौनक लाने की पहल

देश के कई राज्यों ने स्कूली शिक्षा में अहम बदलाव लाते हुए अंग्रेजी को शामिल किया है। एक वजह सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या में हो रही लगातार कमी है। इसके विभिन्न पहलुओं पर जानकारी दे रहे हैं अशोक झा :

भारत में स्कूली शिक्षा को लेकर कई प्रश्न दशकों से उत्तरहीन हैं। एक बड़ा सवाल सरकारी स्कूलों में बच्चों की घटती संख्या और तेजी से बढ़ती ड्रॉप आउट रेट है। ड्रॉप आउट रेट यानी बीच में पढ़ाई छोड़ देना। आधारभूत संरचनाओं की कमी, शिक्षकों की कमी आदि सवालों को शिक्षा का अधिकार कानून के जरिए हल करने की कोशिश यूपीए सरकार ने की थी। परंतु अभी भी शिक्षा का अधिकार कानून ठंढे बस्ते में पड़ा है। एक बड़ा सवाल भाषा का है।

दरअसल स्कूलों में शिक्षा का माध्यम क्या हो इस बारे में विवाद और बहस काफी पुराना है। कुछ लोग बच्चों को उनकी मातृभाषा में एक ख़ास स्तर तक शिक्षा देने की नीति का समर्थन करते हैं जबकि कुछ लोग शुरू से ही अंग्रेजी को माध्यम बनाए जाने का समर्थन करते हैं। साथ ही गाँव और शहर हर जगह निजी स्कूलों की भरमार और उनमें अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा ने अभिभावकों को अपने बच्चों को निजी स्कूलों में डालने को प्रेरित किया है। इस वजह से सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या में निरंतर ह्रास हो रहा है।

उत्तराखंड के देहरादून में एक सरकारी स्कूल की बदहाली (साभार : न्यूज 18)

इसे लेकर केंद्र व राज्य सरकारें चिंतित हैं। सरकारी कोशिश है कि स्कूलों में अंग्रेजी को माध्यम बनाया जाय। वहीं बौद्धिकों की यह दलील कि मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम होना चाहिए, सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम के रास्ते में रोड़ा बनता रहा है। इसके अलावा स्थानीय भाषा के समर्थकों का एक तर्क यह भी है कि अंग्रेजी स्थानीय भाषा को निगल लेगी।

परंतु जो यह तर्क दे रहे हैं उन्हें यह जानना चाहिए कि स्थानीय भाषा और अंग्रेजी दो अलग-अलग भाषा होने के अलावा दो अलग-अलग दुनिया भी है। यह दुनिया समाज के दो भिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें एक ओर तो क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से पढने वाले समाज के अमूमन कमजोर और हाशिये पर डाल दिए गए समुदाय के छात्र होते हैं जबकि इसके दूसरी ओर समाज का सबल और तथाकथित प्रगतिगामी तबका होता है जो अंग्रेजी के बूते दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने की ताकत रखता है। बच्चों के लिए स्थानीय भाषा या अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने की बहस मुख्यतः इन्हीं दो बातों के बीच है। हालांकि इनके आयाम काफी बड़े और विषद हैं।

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बहरहाल कई राज्यों में अंग्रेजी को स्कूली शिक्षा का माध्यम बनाये जाने के प्रयास किये गये हैं। इससे जुड़ी एक खबर 30 जुलाई 2018 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुई। इसमें विभिन्न राज्यों में इस स्थिति का जायजा लिया गया है। मसलन पंजाब में वर्तमान सत्र से ही 1886 सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम शुरू करने की योजना थी। ये स्कूल मध्य, उच्च और उच्च माध्यमिक स्तर पर खोले जाने थे। पर सिर्फ 1424 स्कूलों ने ही इसकी सहमति दी। शेष के बारे में अधिसंरचनाओं और शिक्षकों की कमी का तर्क दिया गया है।  फिलहाल 10वीं और 12वीं को इस योजना से अलग रखा गया है। अभी सिर्फ गणित और विज्ञान ही अंग्रेजी में पढाए जाएँगे। राज्य स्कूल शिक्षा के महानिदेशक प्रशांत गोयल को उद्धृत करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है : “हम इस बारे में धीमी गति से चलना चाहते हैं। अंग्रेजी माध्यम में पढने वाले 9वीं और 11वीं के छात्र अंग्रेजी माध्यम का चुनाव कर सकते हैं।”

दिल्ली के एक निजी विद्यालय में कक्षा की तस्वीर

वहीं अप्रैल 2018 से उत्तर प्रदेश के 5000 प्राथमिक विद्यालयों को अंग्रेजी माध्यम का स्कूल बना दिया गया है। राज्य सरकार का कहना है कि हर जिले के हर ब्लाक में कम से कम पांच और अधिक से अधिक सात अंग्रेजी माध्यम के स्कूल होंगे। अभी तक सिर्फ ऐसे 40 प्रतिशत शिक्षकों को ही अंग्रेजी पढ़ाने का प्रशिक्षण दिया गया है जिन्होंने अंग्रेजी पढ़ाने में रूचि दिखाई है। राज्य में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल की वजह से सरकारी स्कूलों में छात्रों का पंजीयन बढ़ा था। पर राज्य में बुनियादी शिक्षा की संयुक्त निदेशक ललिता प्रदीप का कहना है कि राज्य सरकार की यह योजना मुश्किल में पड़ सकती है क्योंकि राज्य में अंग्रेजी सहित सभी विषयों के पाठ्यपुस्तकों की भारी कमी है।

जबकि हरियाणा  ने 418 सरकारी स्कूलों में पहली कक्षा से अंग्रेजी माध्यम की शुरुआत 2018-19 सत्र से की। साथ ही सरकार ने “मुझे अंग्रेजी से डर नहीं है” नामक कार्यक्रम शुरू की है जिसके तहत शिक्षकों की क्षमतावृद्धि की जाती है ताकि वे छात्रों कोई अंग्रेजी की पढ़ाई में मदद कर सकें।        

इसी कड़ी में उत्तराखंड सरकार ने 2017 में सभी 15 हजार सरकारी स्कूलों में कक्षा 3 में अंग्रेजी में विज्ञान की पुस्तकें पढ़ाने की शुरुआत की। प्राथमिक शिक्षा के अतिरिक्त निदेशक वीरेंद्र रावत ने कहा कि आगे चलकर 12वीं तक विज्ञान अंग्रेजी में पढ़ाया जाएगा। पर रावत का कहना है कि राज्य सभी विषयों को अंग्रेजी में पढ़ाना चाहती है पर अभी इसमें समय लगेगा।

 

इस अकादमिक सत्र से तेलंगाना सरकार ने कुछ सरकारी प्राथमिक स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम की शुरुआत की है। राज्य के उप मुख्यमंत्री कदिआम श्रीहरि का कहना है कि इस कदम की वजह से राज्य के सरकारी स्कूलों के कक्षा एक में प्रवेश लेने वाले छात्रों की संख्या 15 हजार बढ़ गई है। उनका कहना है कि कक्षा 1 से 5 तक अंग्रेजी माध्यम करने के कारण ही छात्रों की संख्या में यह वृद्धि हुई है। पर उनका कहना था कि तेलुगु के कीमत पर अंग्रेजी को बढ़ावा नहीं दिया जा रहा है।

वहीं आंध्र प्रदेश ने अपने कुल 9356 प्राथमिक स्कूलों में से 90 प्रतिशत में अंग्रेजी माध्यम की शुरुआत इस अकादमिक सत्र से की है और इसकी वजह से छात्रों के पंजीकरण में 20 फीसदी की वृद्धि हुई है। राज्य के शिक्षा मंत्री जी श्रीनिवास राव का कहना है कि अगले साल से इसमें और बढ़ोतरी होगी।

मध्य प्रदेश के एक सरकारी स्कूल का दृश्य (साभार : इंडिया टूडे)

मध्य प्रदेश में तीन साल पहले राज्य के हर प्रखंड में एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल खोला गया पर इन स्कूलों में नियमित शिक्षकों की नियुक्त अब शुरू की गई है। वहीं “स्कूल ऑफ़ एक्सिलेंस” नाम से दिल्ली सरकार ने इस साल से पांच अंग्रेजी माध्यम स्कूल शुरू किये हैं।  इनके अलावा दिल्ली के सभी स्कूलों में एक प्रभाग अंग्रेजी माध्यम स्कूल का है जिसे दशकों पहले शुरू किया गया था। आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ के सभी 146 प्रखंडों में इस सत्र से अंग्रेजी माध्यम के स्कूल शुरू किये गए हैं। ऐसा छात्रों को आसानी से नौकरी मिलने की आशा और निजी स्कूलों की ओर उनके पलायन को रोकने के लिए किया गया है। राजस्थान में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की भारी मांग है। राज्य में अंग्रेजी माध्यम के 134 स्वामी विवेकानंद सरकारी मॉडल स्कूल हैं। गुजरात में इसकी पहल 2013 में ही शुरू की गयी थी। सरकार के प्रयास से 21 हजार छात्र निजी स्कूल से अहमदाबाद नगर निगम स्कूलों में आ गए हैं। वडोदरा नगर निगम ने आठ और सूरत नगर निगम ने नौ अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की शुरुआत की है।

वहीं देश के सर्वाधिक प्रगतिशील राज्य केरल में एक भी अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं है। सरकारी स्कूलों में इसकी वजह से छात्रों की संख्या कम हो रही थी तब जाकर कुछ स्कूलों में कक्षा के एक हिस्से या किसी बैच को अंग्रेजी माध्यम की शुरुआत की है। इससे राज्य के सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या में अब वृद्धि होने लगी है। जबकि महाराष्ट्र में ऐसे सरकारी स्कूल हैं जहां कुछ विषय अंग्रेजी माध्यम में पढाए जाते हैं जिसमें विज्ञान और गणित अंग्रेजी में पढाए जाते हैं। राज्य में कुछ सरकारी मान्यता प्राप्त अंग्रेजी माध्यम स्कूल हैं। राज्य में 2016-17 में 10वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में 8।62 लाख छात्रों ने अंग्रेजी माध्यम को चुना था।

तमिलनाडु सरकार ने 2012-13 में अंग्रेजी माध्यम की शुरुआत की क्योंकि राज्य के कमजोर वर्गों ने इसकी जोरदार मांग की थी। सरकारी स्कूलों में छात्रों की घटती संख्या को रोकना भी इसका एक कारण था। पर राज्य में अंग्रेजी पढ़ानेवाले योग्य अंग्रेजी शिक्षकों की नियुक्ति नहीं किये जाने से इसका वांछित परिणाम नहीं निकला।  

जबकि एक हजार अंग्रेजी माध्यम स्कूल शुरू करने के निर्णय का कर्नाटक में भारी विरोध हो रहा है। सरकार निजी स्कूलों से छात्रों को सरकारी स्कूलों में लाने के लिए यह प्रयास कर रही है। यह विरोध इस आधार पर हो रहा है कि अंग्रेजी स्थानीय भाषा को निगल लेगी।

बहरहाल, विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा की गयी पहल सकारात्मक है। इससे वंचित तबके के बच्चे भी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ सकेंगे। लेकिन निजी विद्यालयों और उनके राजनीतिक साठ-गांठ व अन्य सामाजिक कारणों से यह इतना सहज भी नहीं है। कर्नाटक का उदाहरण हमारे सामने है।

देश भर के सरकारी स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति लगातार गिर रही है। ये बच्चे निजी स्कूलों में जा रहे हैं क्योंकि ये निजी स्कूल अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देने का वादा करते हैं। सभी राज्य सरकारों को सरकारी स्कूलों में छात्रों की गिरती संख्या ने उन्हें अंग्रेजी माध्यम को शुरू करने को प्रेरित किया है। पर यह इतना आसान नहीं है और कर्नाटक की तरह ही अन्य राज्यों में भी स्थानीय भाषाओं के समर्थक इसके विरोध में आ सकते हैं।

(कॉपी एडिटर : नवल)


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लेखक के बारे में

अशोक झा

लेखक अशोक झा पिछले 25 वर्षों से दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा से की थी तथा वे सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट, नई दिल्ली सहित कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े रहे हैं

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