‘अनुच्छेद 16(4) पूरी तरह से पिछड़े वर्ग (ओबीसी) से जुड़ा हुआ है और इसका अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से कोई लेना देना नहीं है। ऐसे में एम नागराज मामले के फैसले में सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि अनुच्छेद 16(4ए) और 16(4बी) का मूल 16(4) है और ये दोनों ही संशोधन 16(4) के खिलाफ नहीं हैं, गलत है।’ ऐसा कहना है महाराष्ट्र विधान परिषद के वर्तमान सदस्य और पूर्व सांसद हरिभाऊ राठोड का।
राठौड़ का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के ऐसा कहने से भ्रम पैदा हो गया है। इस भ्रम की वजह से एम नागराज मामले में एससी-एसटी की चर्चा तो हो रही है पर पिछड़े वर्ग की कोई चर्चा नहीं हो रही है जबकि मूल अनुच्छेद 16(4) सिर्फ और सिर्फ पिछड़े वर्ग की ही चर्चा है।

राठौड़ कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के इस कदम से ऐसा लगने लगा है कि अनुच्छेद 16(4) सिर्फ एससी-एसटी से संबंधित है जबकि ऐसा नहीं है। राठौड़ इस मुद्दे को बहुतेरे मंचों से उठाते रहे हैं और जब सांसद थे तो उन्होंने एक निजी सदस्य बिल भी इस बारे में लाया था। उनका कहना है कि नेताओं की अज्ञानता और उदासीनता के कारण यह बात आगे नहीं बढ़ पाई।
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एम नागराज बनाम भारत संघ मामले में 2006 में अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा था कि 16(4ए) और 16(4बी) संशोधन न्यायसम्मत है और यह 16(4) का हिस्सा है।

एम नागराज मामले में अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अनुच्छेद 16(4) में एक ही वर्ग ‘पिछड़ा वर्ग के नागरिक’ को स्वीकार किया गया है। वह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की अलग से चर्चा नहीं करता है, जैसा कि अनुच्छेद 15(4) करता है। लेकिन इसके बावजूद यह किसी भी विवाद से परे है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति भी ‘पिछड़ी जाति के नागरिकों’ में शामिल है और उनको अलग से आरक्षण दिया जा सकता है। देश भर में यह एक पूर्णतया-स्वीकृत बात है। इसके पीछे तर्क क्या है? तर्क यह है कि अगर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों को अगर एक साथ मिलाया गया तो ओबीसी सारे पदों पर काबिज हो जाएंगे और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। यही तर्क ज्यादा पिछड़ा और पिछड़ा श्रेणी बनाने की मांग करता है। हम यह नहीं कहना चाहते हैं कि, और हम इसको दोहराते हैं, कि ऐसा किया ही जाना चाहिए। हम सिर्फ यह कह रहे हैं कि अगर कोई राज्य ऐसा करना चाहता है, तो ऐसा करने की इजाज़त क़ानून के तहत नहीं है।”
कोर्ट ने एम नागराज मामले में कहा कि इंदिरा साहनी मामले में कोर्ट ने एक ओर ओबीसी और दूसरी ओर एससी और एसटी के बीच उप-वर्गीकरण को संवैधानिक माना है। इसलिए कोर्ट ने इस मामले में अपने फैसले में कहा कि राज्य को एससी और एसटी में ओबीसी के बरक्स उप-समूह बनाने की अनुमति है।
बहरहाल, हरिभाऊ राठोड का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट में चल रही इस प्रकार की बहसों से भ्रम पैदा हो रहा है, क्योंकि अनुच्छेद 16(4) मूल रूप से एससी-एसटी के बारे में है ही नहीं।
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