उत्तराखंड हाईकोर्ट के एक अधिवक्ता को अनुसूचित जाति के एक अधिकारी के खिलाफ झूठा शपथ पत्र दायर करना महँगा पड़ गया। पहले तो अधिवक्ता ने फेसबुक पर इस अधिकारी के खिलाफ अनाप-शनाप लिखता रहा और उसको भ्रष्ट बताता रहा। फिर इस मामले में मुकदमा दर्ज होने के बाद उसने कोर्ट के समक्ष झूठा शपथ पत्र दायर किया। हाईकोर्ट को जब इस बात का पता चला तो उसने इस पर कड़ा रुख अपनाते हुए अधिवक्ता पर दो लाख रुपए का जुर्माना लगाया।
इस मामले में न्यायमूर्ति लोक पाल सिंह ने कहा कि झूठा हलफनामा दायर करना शपथ भंग करने जैसा है क्योंकि शपथ पत्र को आईपीसी की धारा 191 के तहत साक्ष्य माना गया है।
बहरहाल अधिवक्ता चंद्रशेखर करगेती पर आरोप था कि उसने अपने कुछ अन्य साथियों के साथ मिलकर उत्तराखंड के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग के सचिव गीता राम नौटियाल के खिलाफ झूठे आरोप लगाए थे। करगेती ने नौटियाल को भ्रष्ट अधिकारी बताया और फेसबुक पर उसके खिलाफ झूठा पोस्ट लिखा।

अपने खिलाफ इस तरह के दुष्प्रचार से आहत नौटियाल ने करगेती के खिलाफ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत मामला दर्ज कराया।
चार्जशीट के आधार पर विशेष जज (एससी/एसटी अधिनियम), देहरादून ने इन अपराधों का संज्ञान लिया और करगेती को 2017 में सम्मन जारी किया।
इसके बाद चन्द्रशेखर करगेती ने सीआरपीसी की धारा 482 के तहत कोर्ट में एक आवेदन दायर किया था जिसमें उसने अपने खिलाफ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 31(पी) और 31(क्यू) के तहत लगाए गए अभियोगों को खारिज करने की मांग की थी।
इसके समर्थन में कोर्ट के समक्ष उसने शपथ पत्र दायर किया जिसमें उसने आरोप लगाया कि नौटियाल ब्राह्मण है और वह अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में नहीं आता। उसने इसी आधार पर अपने खिलाफ एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत मुकदमा वापस लेने की मांग की। अपने आवेदन में करगेती ने लिखा,“ यहाँ यह बताना महत्त्वपूर्ण है कि नौटियाल गढ़वाल क्षेत्र का एक उच्च श्रेणी का ब्राह्मण है और एक ब्राहमण द्वारा यह कहते हुए एफआईआर दायर करना कि वह अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति का है, और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत कार्रवाई के उसकी मांग निजी वैर को निपटाने के लिए कोर्ट की प्रक्रिया के दुरुपयोग का उत्कृष्ट उदाहरण है।”
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उसके आवेदन पर गौर करने के बाद मामले की सुनवाई करने वाले एकल जज ने आदेश दिया कि जब तक इस मामले का हाईकोर्ट से निपटारा नहीं हो जाता, करगेती के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाय।
नौटियाल ने इस आदेश के खिलाफ एक विशेष अनुमति याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की। परंतु शीर्ष अदालत ने उनकी याचिका अस्वीकार कर दी और हाईकोर्ट को इस मामले को शीघ्र निपटाने को कहा।

हालांकि, जब उत्तराखंड हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति लोकपाल सिंह ने इस मामले की सुनवाई शुरू की तब उन्हें जानकारी मिली कि नौटियाल झूठे शपथ पत्र के आधार पर वह अदालत से अपने पक्ष में आदेश प्राप्त करने में सफल रहा है।
नौटियाल ने अपने बचाव में चकराता, देहरादून जिला, के तहसीलदार द्वारा जारी जाति प्रमाणपत्र पेश किया जो 1998 में जारी किया गया था और जिसमें कहा गया था कि वह जौनसारी अनुसूचित जाति समुदाय का है।
हाईकोर्ट ने इन दस्तावेजों की जांच के बाद कहा कि करगेती ने मनमाफिक आदेश प्राप्त करने के लिए झूठा शपथ पत्र दायर किया था और कहा कि अपने दावे के समर्थन में वह कोई सबूत पेश नहीं कर पाया।

यह निष्कर्ष निकालते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि आवेदनकर्ता को कोई राहत नहीं दी जा सकती। तल्ख टिप्पणी करते हुए कोर्ट ने कहा, “…कोर्ट यह मानता है कि आवेदक से इसकी भारी कीमत वसूली जानी चाहिए। आवेदक कोई साधारण व्यक्ति नहीं है, वह एक अधिवक्ता है, उसे शपथ के तहत बयान देने के समय ज्यादा सतर्क और सावधान रहना चाहिए, पर उसने …शपथ के तहत कोर्ट के समक्ष झूठे बयान दर्ज किये।”
इसलिए कोर्ट ने इस अधिवक्ता पर दो लाख रुपए का जुर्माना लगाया ताकि “हलफनामे की पवित्रता” बची रह सके। उसे एक महीने के अंदर यह राशि रजिस्ट्री में जमा करने का निर्देश दिया गया।
(कॉपी एडिटर : एफपी डेस्क)
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