1993 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के मामले में जब सुप्रीम कोर्ट ने अन्य पिछड़ा वर्ग के उपर क्रीमीलेयर लगा दिया तब प्रशासनिक अमले में इस वर्ग का प्रतिनिधित्व अनुसूचित जाति की तुलना में कम था। आज भी हालत में बहुत अधिक सुधार नहीं हुआ है। इसलिए यह जायज मांग है कि एससी और एसटी के तर्ज पर ही ओबीसी को पदोन्नति में आरक्षण मिले। यह कहना है ओबीसी मामलों के विशेषज्ञ अधिवक्ता कोंडला राव का। उनकी यह मांग इसलिए भी मौजूं है कि सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ पदोन्नति में दलितों को आरक्षण देने के सवाल पर सुनवाई कर रही है। यह सुनवाई कई मायनों में खास है। खास इसलिए कि संविधान पीठ ने विभिन्न उच्च न्यायालयों और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूर्व में दिये न्यायादेशों की समीक्षा कर रही है।
12 साल बाद हो रही सभी न्यायादेशों की समीक्षा
असल में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने एम. नागराज बनाम भारत संघ मामले की समीक्षा संबंधी सुनवाई शुरू कर दी है। सुनवाई के क्रम में उन फैसलों की समीक्षा की जा रही है जिनका असर न केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों पर पड़ेगा बल्कि इससे पूरा आरक्षित वर्ग प्रभावित होगा। इनमें ओबीसी के लोग भी शामिल होंगे। इसकी वजह यह है कि संवैधानिक पीठ संविधान की धारा 15 और 16 दोनों के तहत किये गये प्रावधानों की समीक्षा कर रही है।
ओबीसी के हितों को लेकर संसद से लेकर अदालत तक संघर्ष करने वाले पूर्व राज्यसभा सांसद हरिभाऊ राठौड़ भी मानते हैं कि अदालत को संविधान की धारा 16(4) के तहत पिछड़ा वर्ग, एससी और एसटी तीनों को एक साथ देखना चाहिए।

संविधान की धारा 16(4) में शामिल है पिछड़ा वर्ग
एक अहम सवाल जिसे संविधान पीठ ने छेड़ दिया है, वह संविधान की धारा 16(4) से जुड़ा है। यह धारा राज्य को वंचित तबके की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण का प्रावधान करने का अधिकार देता है। इस धारा में वंचित तबके को विशेष रुप से परिभाषित नहीं किया गया है। इसके मुताबिक यह धारा सभी पिछड़े वर्गों के लिए है। जाहिर तौर पर इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग भी शामिल है। लेकिन इसके उपखंड 16(4ए) और 16(4बी) में केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान है।
कायदे से तो होना यह चाहिए था कि मूल धारा 16(4) में निहित पिछड़ा वर्ग में शामिल सभी जातियों को एक समान नजर देखा जाता और इसके उपक्रम किये जाते कि आरक्षण का लाभ सभी को मिले। यहां तक कि पदोन्नति में एससी और एसटी को आरक्षण दिया जा सकता है तो ओबीसी को इससे वंचित करने का कोई विशेष मतलब नहीं रह जाता।
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बता दें कि पांच सदस्यीय पीठ जो कि पदोन्नति में आरक्षण के सवाल पर पिछले 12 वर्षों से चल रहे कानूनी दांव-पेंच और बहस की समीक्षा कर रही है, उसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र कर रहे हैं। इस पीठ में न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ, आरएफ नरीमन, एसके कौल और इंदु मल्होत्रा शामिल हैं। जब यह मामला पीठ को सौंपा गया तब उसके समक्ष सवाल यह था कि 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने एम. नागराज बनाम भारत संघ के मामले में जो निर्णय दिए थे, क्या उस पर पुनर्विचार की जरूरत है।

क्रीमीलेयर को लेकर बहस
दरअसल संविधान पीठ इसे व्यापक बना रही है। अब वह इसे केवल पदोन्नति में आरक्षण तक सीमित नहीं रख रही है। उसने इसकी जद में आरक्षण के पूरे प्रावधान को ले लिया है। उदाहरण के लिए बीते 3 अगस्त, 2018 की सुनवाई में पीठ ने केंद्र सरकार से पूछा कि जब ओबीसी पर क्रीमीलेयर लागू हो सकता है तब एससी और एसटी पर क्यों नहीं? अदालत में मौजूद भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने पीठ से कहा कि अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जनजातियाँ हजारों साल से भेदभाव और असमानता झेल रही हैं। वे आज भी पिछड़े हुए हैं और उन्हें सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में आरक्षण की जरूरत है। वेणुगोपाल ने कहा कि अनुच्छेद 16(4) में आरक्षण की बात की गई है और इसके तहत राज्यों को अधिकार दिया गया है कि वे अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को प्रोन्नति में आरक्षण देने का प्रावधान कर सकते हैं।
केंद्र सरकार के इस प्रतिनिधि का सवाल अपने आप में उलझा हुआ था। सवाल यह था कि जब 16(4) के तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कर्मियों को पदोन्नति में आरक्षण का प्रावधान किया जा सकता है तब ओबीसी को क्यों नहीं? लेकिन इस बारे में वेणुगोपाल ने कुछ भी नहीं कहा।
बताते चलें कि एम. नागराज मामले में अपने फैसले में 2006 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने प्रोन्नति में आरक्षण देने से साफ़ मना कर दिया था पर कहा था कि राज्य इसके लिए प्रावधान कर सकते हैं लेकिन ऐसा करने से पहले उनको इस समूह के बारे में प्रतिनिधित्व संबंधी आंकड़े जुटाने होंगे ताकि यह साबित किया जा सके कि यह समूह पिछड़ा है और सरकारी रोज़गार में उसका प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है। राज्य को यह भी बताना होगा कि अगर वह इस तरह का आरक्षण देता है तो इसका प्रशासनिक सक्षमता पर क्या असर पड़ेगा।
संसद को है संशोधन का अधिकार
बहरहाल, संविधान पीठ ने अभी हाल ही कहा कि राज्य 16(4) के तहत ही पदोन्नति में आरक्षण देने को बाध्य नहीं है। इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने एम. नागराज मामले और अन्य मामले में भी यह स्पष्ट कर चुका है कि 16(4) के तहत मिले अधिकार मौलिक अधिकार नहीं हैं और इनके साथ कोई कर्तव्य नहीं जुड़ा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि संविधान पीठ ने आरक्षण को खारिज किया है। उसने तो आरक्षण के संबंध में संसद में बनाये गये कानून के आधार पर ही सरकार से जवाब मांगा है। लिहाजा यह जिम्मेदारी सरकार की है कि वह ओबीसी के संबंध में आंकड़े संविधान पीठ को उपलब्ध कराये ताकि इस वर्ग को भी पदोन्नति में आरक्षण का लाभ मिल सके। वैसे भी लोकतंत्र में संसद सर्वोपरि है। वह चाहे तो कानून बना सकती है और चाहे तो 16(4) के संदर्भ में संशोधन कर सकती है। इससे ओबीसी को भी आरक्षण का लाभ मिले, यह मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।
(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ)
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