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बापसा : ब्राह्मणवाद के लिए वास्तविक चुनौती

ब्राह्मणवाद, कथित सामाजिक न्यायवादियों की जातिवादी-कुनबा परस्ती और वामपंथियों के द्विजवाद को जेएनयू में बासपा कड़ी चुनौती दे रहा है। बिरसा, फुले और आंबेडकर के विचारों पर खड़े इस छात्र संगठन ने देश के अपमानित, उपेक्षित और विपन्न जातियों से आने वाले छात्र-छात्राओं को प्रत्याशी बनाया है। कनक केशरी का पत्र

संपादक के नाम पत्र

आदरणीय संपादक महोदय,  

जेएनयू में कल छात्र-संघ के चुनाव होने वाले हैं। फेसबुक और ट्‍विटर पर देख रहा हूं कि कई मित्रों की नजर उस पर है। लेकिन फारवर्ड प्रेस ने इस बार इस विषय पर बहुत कम सामग्री दी है। जबकि पिछले सालों में हम आपकी पत्रिका के माध्यम से इस चुनाव को समझने की कोशिश करते थे। मुझे नहीं पता कि इसका क्या कारण है। क्या आप लोगों ने भी अब मान लिया है कि आरएसएएस के हमले ने जेएनयू को वैचारिक रूप से नेस्तनाबूद कर दिया है? और उस पर अब बात करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला?

बीती रात जेएनयू में प्रेसिडेंशियल डिबेट थी। जिसे कई लोगों ने विभिन्न यूट्यूब चैनलों पर डाला है। मैं प्राय: सबको देख गया। सामाजिक न्याय के नाम पर भावुकता पूर्ण अपीलें मुझे रास नहीं आतीं। इन अपीलों के माध्यम से जिस सच्चाई को छुपाया जा रहा होता है, वह अब हम जैसे बाहरी लोगों से भी छुपा नहीं है।

छात्र राजद, छात्र समता, छात्र सपा, छात्र कांग्रेस, छात्र बीजेपी, छात्र रालोसपा, छात्र जदयू, छात्र बसपा, छात्र फलां पार्टी– ऐसी चीजों का क्या अर्थ है? नाम में बहुत कुछ रखा होता है। नाम आपके गॉड-फादरों की सोच और आपके भविष्य का पता तो देते ही हैं, साथ ही यह भी बताते हैं कि उनके पास किसी किस्म का उदात्त भाव है या नहीं है।

कम्युनिस्ट पार्टियों के अपने छात्र संगठन हैं, उनके अपने स्वतंत्र नाम हैं। सीपीआई (एम) का ‘स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया’, सीपीआई (एमएल) का ‘ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन’, सीपीआई (माओवादी) का ‘डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन’ आदि। इसी प्रकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के छात्र संगठन का नाम है– ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्’, कांग्रेस के छात्र संगठन का नाम है– ‘नेशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ इंडिया’। इन नामों के अपने अर्थ, अपने प्रकट-परोक्ष विजन और लक्ष्य हैं। ‘अखिल भारतीय’ और ‘नेशनल’ के नाम पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व के इरादे भी हैं। लेकिन इन नामों के पीछे कोई  वैचारिकी तो है! कम से कम यह तो है कि इन दलों ने यह माना है कि छात्र उनके राजनीतिक गुलाम नहीं है, उनके संगठनों का अपना स्वतंत्र नाम, स्वतंत्र पहचान होनी चाहिए।

दु:खद यह है कि जेएनयू जैसे भारत के प्रतिष्ठित उच्च अध्ययन संस्थान में राजनीतिक दलों के नाम से छात्र संगठन बन रहे हैं। इससे तो अच्छा होगा कि इस प्रकार के छात्र संगठन अपने नाम छात्र यादव, छात्र कोइरी-कुर्मी, छात्र ब्राह्मण-मुसलमान, छात्र ब्राह्मण-बनिया, छात्र कुशवाहा, छात्र दलित-ठाकुर आदि रख लें। क्योंकि बिना किसी वैचारिकी के  अंतत: वे करेंगे तो यही।

हां, कल जेएनयू के प्रेसिडेंशियल डिबेट को देते हुए व उससे संबंधित विभिन्न खबरों को पढ़ते हुए मुझे बिरसा-अंबेडकर-फूले स्‍टूडेंट एसोसिएशन (बापसा) से उम्मीदें जगीं हैं। जैसा कि मैंने कहा कि नाम में बहुत कुछ रखा होता है। इस संगठन का नाम भी इनकी सोच के बारे में बताता है। बापसा ने छात्र-संघ के अध्यक्ष पद के लिए टी. प्रवीण (तेलांगना की अछूतों के लिए भी अछूत और विपन्न अनुसूचित जाति – मडिगा परिवार से), उपाध्यक्ष के लिए पी. नाइक (कालाहांडी, उडीसा की एक अनुसूचित जाति परिवार से), जनरल सेक्रेट्री के लिए विश्वंभर नाथ प्रजापति (उत्तर प्रेदश की कुशीनगर के कुम्हार – अति पिछड़ी जाति से) और ज्वाईंट सेक्रेटरी के लिए कनकलता यादव (आजमगढ़ की यादव परिवार से) को मैदान में उतारा है।

बापसा के प्रत्याशी (बायें से) अध्यक्ष पद के लिए टी. प्रवीण, उपाध्यक्ष के लिए पी. नाइक, जनरल सेक्रेटरी के लिए विश्वंभर नाथ प्रजापति और ज्वाईंट सेक्रेटरी के लिए कनकलता यादव

मैंने इनकी सामाजिक पृष्ठभूमि इसलिए बतायी ताकि आप समझ सकें कि किसी संगठन का नाम उसके विचारों में भी कैसे काम करने लगता है। अध्यक्ष के सर्वोच्च पद पर देश की सबसे अपमानित जातियों में से एक मडिगा जाति के प्रत्याशी हैं। आंध्रप्रदेश-तेलांगना में यह जाति अछूतों में भी अछूत हैं। दलित भी इनके घर का पानी नहीं पीते। उपाध्यक्ष पद के लिए भूख से त्रस्त कालाहांडी की अनुसूचित जाति से आने वाले उम्मीदवार हैं। जनरल सक्रेरेटरी के लिए एक अति पिछड़ा परिवार का युवक और ज्वाईंट सेक्रेटरी पद के लिए पिछड़ा में मजबूत जाति यादव का उम्मीदवार, लेकिन महिला!

छात्र राजद के अध्यक्ष पद के प्रत्याशी जयंत जिज्ञासु

दूसरी, उस छात्र संगठन को देखिए जो गला-फाड़ कर सामाजिक न्याय होने का दावा कर रहा है। उसकी पैतृक-मातृक पार्टी पर एक परिवार का कब्जा है। जेएनयू में पहली बार चुनाव में उतरते हुए भी उसने अध्यक्ष पद का अपना प्रत्याशी अपनी जाति के ही एक युवक को बनाया है जो उस परिवार से ज्यादा गला फाड़ कर अपने आकाओं की तारीफ में कसीदे काढ़ रहा है। अपने प्रेसिडेंशियल डिबेट के भाषण के 60 फीसदी हिस्से में उसने लालू और तेजस्वी यादव के कसीदे पढ़े। इन्होंने अपने आस-पास जो टीम जमा की है, वह भी उसी एक जाति की है।

बहरहाल, लिखने बैठा तो थोड़ा लंबा हो गया। लेकिन ये स्थितियां दुखी करने वाली हैं। उम्मीद करता हूं कि  जेएनयू के दलित-पिछड़े और आदिवासी विद्यार्थी इन चीजों को समझ रहे होंगे और इनका माकूल उत्तर देंगे। हम फारवर्ड प्रेस से भी इन विषयों पर निरंतर सामग्री की उम्मीद करते हैं, ताकि इस परिदृश्य को मुकम्मल रूप से समझ सकें।

कोई उत्तर न मिलने के बावजूद पिछले काफी समय से आपको ईमेल्स करके अपने विचार बताता रहता हूं, उम्मीद है आप अन्यथा नहीं लेते होंगे।

आज न्यूज 18 की वेबसाइट ने किन्हीं ओमप्रकाश जी का एक लेख बापसा पर छापा है। लेख अटैच कर रहा हूं। संभव हो तो इसे देखें।

कनक केशरी, हिलसा, नालंदा, बिहार


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बापसा : ऐसे बना राइट और लेफ्ट के लिए चुनौती

ओम प्रकाश (न्यूज 18)

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी छात्र संघ चुनाव में आमतौर पर लेफ्ट बनाम लेफ्ट की जंग होती रही है। लेकिन अब ऐसा नहीं है। यहां अांबेडकरवादी राजनीति के नाम पर उभरा बापसा (बिरसा-अंबेडकर-फूले स्‍टूडेंट एसोसिएशन) भी बड़ी ताकत बनता नजर आ रहा है। यह लेफ्ट-राइट दोनों को ललकार रहा है। इसने पिछले दो चुनावों से लेफ्ट फ्रंट और एबीवीपी दोनों की नाक में दम किया हुआ है। इस बार यह और आक्रामक है। बापसा ने लाल और भगवा झंडे को भाई-भाई बताकर वामपंथी गढ़ में छात्रों को नया विकल्प देने की कोशिश की है।

15 नवंबर 2014 को अस्‍तित्‍व में आया यह संगठन 2015 से चुनाव मैदान में है। 2016 में यह अध्‍यक्ष पद के लिए 1545 वोट लेकर दूसरे नंबर पर था। उपाध्‍यक्ष पद पर उसे तीसरा स्‍थान मिला था। 2017 के चुनाव में उसे कुल 4620 वैध मतों में से अध्यक्ष पद के लिए 935 वोट मिले। इस बार यहां लेफ्ट, एबीवीपी और बापसा में सीधी जंग है।

पिछले दो चुनाव परिणाम से यह साफ हो चुका है कि बापसा जेएनयू परिसर में अपने पैर जमा चुकी है। बस उसे सीट की दरकार है। ‘लाल दुर्ग’ में लेफ्ट का मुकाबला सिर्फ ‘भगवा’ से ही नहीं बल्कि ‘नीले’ रंग से भी है। बापसा 2014 में बना संगठन है, जो भीमराव आंबेडकर, सावित्री बाई फुले और बिरसा मुंडा के बताए रास्ते पर चलने का दावा करता है। यानी जेएनयू कैंपस में यह आंबेडकरवादी राजनीति का चेहरा है। वो सभी लेफ्ट संगठनों पर ब्राह्मणवादी होने का आरोप लगाता है।

इसके नेता राहुल सोनपिंपले कहते हैं, “लेफ्ट बात जरूर करता है लेकिन एससी/एसटी, ओबीसी और मुस्लिमों को अपने संगठन में जगह नहीं देता। इसलिए अब देश की तरह ही जेएनयू में भी नीली क्रांति का उदय हो रहा है।”

इसने अपने गठन के बाद से कैंपस में एससी/एसटी, पिछड़ों, आदिवासियों, मुस्‍लिमों, कश्‍मीरियों और पूर्वोत्‍तर के रहने वाले विद्यार्थियों में अपनी पैठ बनानी शुरू की। इन्‍हीं पर फोकस किया।

मीडिया से दूर रहकर इसने अपना काडर मजबूत किया। नतीजा यह हुआ कि यह लेफ्ट के लिए उन्‍हीं के गढ़ में चुनौती बन गया।

लेफ्ट की जीत का रथ रोकने के लिए एबीवीपी और बापसा दोनों खड़े हैं। इसीलिए इस बार आईसा (ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन), एसएफआई (स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया), डीएसएफ (डेमोक्रेटिक स्‍टूडेंट्स फेडरेशन) और एआईएसएफ (ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फैडरेशन) चार संगठन मिलकर अपना किला बचाने में जुटे हुए हैं। बात एबीवीपी की करें तो लेफ्ट से नाराज जो छात्र उसके साथ जुड़ते उन्‍हें बापसा में विकल्‍प मिल चुका है।

(न्यूज 18 में प्रकाशित खबर का संपादित अंश)

कॉपी-संपादन प्र.रं./सिद्धार्थ/राजन


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