विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने 2 मई, 2018 को एक अधिसूचना जारी कर चार हजार से अधिक पत्र-पत्रिकाओं को अपनी मान्यता सूची से बाहर कर दिया। उसने इस क्रम में अनेक अनुल्लेखनीय और गुमनाम शोध-जर्नलों को भी कथित तौर पर अपनी सूची से बाहर किया है, जिन पर अनुचित लाभ लेकर गुणवत्ताहीन शोध-आलेख प्रकाशित करने के आरोप थे। लेकिन उनकी आड़ लेकर उन उच्चगुणवत्ता वाली चर्चित पत्रिकाओं को भी बाहर कर दिया गया, जो प्रतिरोधी वैचारिक रुझानों के लिए जानी जाती हैं।
बाहर की जाने वाली पत्रिकाओं में फारवर्ड प्रेस, इकनाॅमिक एंड पॉलिटिकल वीकली का ऑनलाइन संस्करण, समयांतर, हंस, वागर्थ, जन मीडिया, गांधी-मार्ग आदि शामिल हैं। गौरतलब है कि इन पत्रिकाओं को उद्धृत किए बिना मानविकी विषयों का शायद ही कोई शोध मुक्कमल बनता है। इतना ही नहीं, यूजीसी ने इनके साथ बौद्ध मत, अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजाति संंबंधी विमर्शों को प्रस्तुत करने वाली सभी पत्रिकाओं को ब्लैकलिस्ट कर दिया। इसका अर्थ यह है कि इन पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों को न अकादमिक मान्यता मिलेगी, न ही इनमें लिखने पर शोधार्थियों व प्राध्यापकों को यूजीसी द्वारा निर्धारित प्वाइंट मिलेंगे।
इन्हें बाहर करने के कारणों को बताते हुए यूजीसी ने दावा किया कि उसे “अनेक ‘अनाम लोगों’ तथा कुछ अध्यापकों, अध्येताओं, अकादमिक जगत के अन्य सदस्यों के अलावा प्रेस प्रतिनिधियों से इन पत्रिकाओं की गुणवत्ता में कमी की शिकायतें’’ मिली थीं, जिसके बाद एक कमिटी बनाकर इन पत्रिकाओं को बाहर किया गया है।
फारवर्ड प्रेस में हम इस प्रकरण पर निरंतर सामग्री प्रकाशित कर आपको मामले की गंभीरता और इसके फलाफल से परिचित करवाने की कोशिश कर रहे हैं। इस श्रृंखला में आज पढें कमल चन्द्रवंशी की दूसरी रिपार्ट :
यह है पीयर-रिव्यू की असल सत्यनारायण कथा
-कमल चंद्रवंशी
इस समय जबकि देश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाएं और जर्नल्स यूजीसी की मान्यता सूची से बाहर करने के लिए सरकार पर सवाल उठा रहे हैं, सरकार ये भ्रम फैलाने की कोशिश कर रही है कि उसने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जिससे पत्रिकाओं की साख को नुकसान पहुंचा हो। साथ ही, ऐसी भी कोई कार्रवाई नहीं की है कि जिससे उच्च शिक्षण संस्थानों के स्कालर्स के सामने परेशानी पैदा हो गई है।
इस बारे में यूजीसी से मिली आधिकारिक जानकारी के मुताबिक, मई 2018 के बाद के कोई परिवर्तन नहीं आया है। यानी आयोग से ब्लैकलिस्ट की गई 4305 पत्रिकाओं में से फिलहाल वह भी बहाल नहीं की गई हैं जो देश में आम से लेकर अकादमिक समाज में बड़ी प्रतिष्ठा रखती हैं। उनमें अन्य के साथ-साथ फारवर्ड प्रेस भी है। लेकिन इस बीच 12 सितंबर,2018 को ‘द हिंदू‘ ने एक खबर प्रकाशित की है कि पहले से मौजूद नियम के मुताबिक किसी भी शिक्षक को ‘पीयर-रिव्यूड‘ यानी (भारतीय संदर्भ में तथाकथित जानकारों से) समकक्ष पुनर्रीक्षण या पुनर्विलोकित या समीक्षित पत्रिकाओं में छपी सामग्री पर अंक अर्जित करने का लाभ दिया जाएगा। खबर के मुताबिक समकक्ष पुनर्रीक्षण का कदम उठाने से शिक्षकों को उनके शोध में स्कोर बढ़ाने में मदद मिलेगी। लेकिन हकीकत यह नहीं है। यहां हम अपने पाठकों को ‘पीयर-रिव्यूड’ की जानकारी और सच्चाई से रूबरू कराएंगे लेकिन पहले भ्रम में डालने वाली इस खबर की खबर ले लेते हैं।
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यूजीसी को देश के बौद्धिक समाज पर पुलिसिंग करने का अधिकार नहीं : आशीष नंदी
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आलोचनाओं के बाद भी यूजीसी के रवैये में बदलाव नहीं
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नियम के नाम पर अराजकता फैला रहा यूजीसी
खबर ने क्या भ्रम फैलाया?
खबर के मुताबिक, अनुमोदित पत्रिकाओं के अलावा पीयर-रिव्यूड पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री के लिए अंक हासिल किए जा सकेंगे। खबर कहती है कि हाल ही में अधिसूचित किए गए यूजीसी के मानक स्पष्ट हैं। इसके मुताबिक विश्वविद्यालय और कॉलेज के शिक्षकों के लिए भर्ती और पदोन्नति के लिए अपने शोध स्कोर को सुधारने और बढ़ाने के लिए अंक अर्जित करना आसान कर दिया गया है। यूजीसी ने अनुमोदित पत्रिकाओं की अपनी सूची के अनुसार, सभी पीयर-रिव्यू़ड के लिए यह प्रावधान किया है। और हाल में यूजीसी द्वारा अधिसूचित की गई जानकारी के मुताबिक मानकों से संबंधित नियम इस बारे में स्पष्ट हैं। खबर में कहा गया है कि ‘द मैथॉडलॉजी फॉर कैल्कूलेटिंग एकेडिमिक/रिसर्च स्कोर ऑफर प्वाइंट्स फार “रिसर्च पेपर इन पीयर-रिव्यूड ऑर यूजीसी लिस्टेड जर्नल्स।” (अकादमिक/शोध अंक स्कोर की गणना के लिए पद्धति “पीयर-रिव्यूड या यूजीसी की अनूमोदित पत्रिकाओं में शोध पत्र” के लिए अंक प्रदान करती है।)
सच यह है कि यूजीसी ने अपनी वेबसाइट पर जारी अधिसूचनाओं में ‘या ’(हिंदी), ऑर (अंग्रेजी), और ‘…/’ (ऑब्लिक) आदि-आदि में कोई भी इस्तेमाल नहीं किया है। सीधे-सीधे स्टैंडिग कमेटी (स्थायी समिति) की अनुमोदित सूची, संशोधित सूची के सर्वोपरि होने का जिक्र किया है।
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लेकिन कुछ देर के लिए ‘द हिंदू’ की उपरोक्त् खबर को सही भी मान लिया जाय तो गौर करें इसी खबर में कहा गया है कि विज्ञान, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, कृषि और पशु विज्ञान में ऐसे प्रत्येक पेपर के लिए, कॉलेज या विश्वविद्यालय शिक्षक को आठ अंक मिलेंगे। भाषा, मानविकी, कला, सामाजिक विज्ञान, पुस्तकालय, शिक्षा, शारीरिक शिक्षा, वाणिज्य, प्रबंधन और अन्य संबंधित विषयों में प्रत्येक पेपर के लिए 10 अंक अर्जित किए जा सकेंगे। नियम कहता है : “पूरा आकलन शिक्षक के रखे गए सबूतों पर आधारित होने चाहिए जैसे कि प्रकाशित सामग्री की प्रति …।” इस खबर को ऐसे पेश किया गया है कि जैसे यूजीसी ने कोई बहुत प्रगतिशील कदम उठा दिए हैं और इस बीच अकादमिक जगत में मची हलचल महज बेमानी है।
सवाल है कि क्या यूजीसी द्वार अनुमोदित और ब्लैकलिस्ट की गई पत्रिकाओं की सूची बदल गई है या अनुमोदन की ‘पद्धति’ बदल गई है? सच्चाई में ऐसा कुछ भी नहीं है। जाहिर तौर पर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषयक मामलों में यह खबर इसीलिए कुछ भी नहीं कहती क्योंकि ऐसा कहने से भ्रम खत्म हो जाता है। ऐसा होता तो बताया जाता कि पीयर-रिव्यूड इनमें कहां-कहां है और कौन सी पत्रिकाएं हैं, उनकी सूची कहां है, इसका कहीं कोई हिसाब है तो दिखाया जाय। यूजीसी का साफ कहना है कि स्थायी समिति द्वारा तैयार की गई जांच-सूची संबंधी मानदंडों पर गुणवत्ता के मानदंडों पर घटिया और संदिग्ध पत्रिकाओं को हटाया गया। इस बारे में किसी तरह का समझौता नहीं है और सभी स्कालर्स को रिवाइज्ड सूची के अनुसार ही मान्यता संबंधी स्थिति को देखना चाहिए।
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें
हाल के दिनों में मौजूदा सरकार के मूल-चरित्र पर सवाल उठे हैं कि वह राजनीतिक तौर पर भ्रम की स्थिति बनाकर समाज में लाभ लेना चाहती है। उच्च शिक्षा जैसे दूरगामी महत्व के क्षेत्र में भी वह इस प्रयोग को कर रही है और सच्चाई को दरकिनार करके गंभीर समाचार पत्रों को जरिया बनाकर यह हथकंडा अपना रही है।
पीयर-रिव्यू क्या है
पीयर-रिव्यूड का अमेरिका जैसे देश में मेडिकल साइंस की पत्रिकाएं और जर्नल्स को लेकर हो हल्ला रहता है। इसके पीछे शायद सबसे बड़ा कारण मेडिकल साइंस का दुनिया में सबसे अधूरा और कमजोर विज्ञान होना है। पीयर-रिव्यू का आशय किसी लेख के प्रकाशन से पूर्व उसे उसी विषय-क्षेत्र में काम कर रहे किसी अन्य वैज्ञानिक या विशेषज्ञ द्वारा पढ़ी या चेक करने या उसकी समीक्षा किए जाने प्रक्रिया से होता है।
दुनियाभर के जानकार ये सवाल उठाते रहे हैं कि पीयर-रिव्यू को परिभाषित करना संभव ही नहीं है। वह भेदभावपूर्ण है और आपसी हितों के टकराव को जन्म देता है। जानकारों के मुताबिक किसी भी कार्य-संबंधी मामले में इसकी परिभाषा यही बनती है कि अगर हम पचास लोगों में से सभी ने एक ही किसी प्रक्रिया को होते देखा तो हर एक सहमत हो सकते हैं और इस तरह अधिकांश समय अपने कनिष्ठ सहकर्मी की समीक्षा करना संभव हो सकता है जो आसान भी है। इसे यों समझ सकते हैं कि भारतीय संदर्भ में सौ में से अस्सी बाह्मण ‘विद्वान’ अगर सत्यनारायण की कथा को सत्य बताते रहे हैं तो मानकर चलना चाहिए कि यह सत्य जिस भी पीयर-रिव्यू में होगा, पास हो जाएगा। यह एक सरल उदाहरण है।
कुल मिलाकर संबंधित और प्रासंगिक क्षेत्र के भीतर एक पेशे के योग्य लोगों द्वारा आत्म-विनियमन का यह एक रूप है। माना जाता है कि पीयर-रिव्यू की विधियों को गुणवत्ता के मानकों को बनाए रखने, प्रदर्शन में सुधार और विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए नियोजित किया जाता है। अकादमिक क्षेत्र में विद्वानों की सहकर्मी समीक्षा अक्सर प्रकाशन के लिए अकादमिक पेपर/जर्नल की उपयुक्तता निर्धारित करने के लिए इसका उपयोग होता है।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि इसी बीच यकायक दिल्ली से निकलने वाली राष्ट्रीय विज्ञान संचार और सूचना स्रोत संस्थान (निस्केयर) से निकलने वाली पत्रिकाएं और जर्नल्स इधर अपनी वेबसाइट में अपने को पीयर-रिव्यूड पत्रिकाओं में खुद को रखने और दिखाने लग गई हैं। यहां से 10 से अधिक जर्नल्स निकलते हैं। इसकी वेबसाइट ने लिखा गया है- इस पीयर-रिव्यूड (पुनर्विलोकित) अनुसंधान पत्रिका में हिन्दी में शोधपत्रों, समीक्षाओं, पुस्तक समीक्षाओं, सम्मेलनों की रिपोर्ट का प्रकाशन किया जाता है। बताते चलते है कि इस संस्था के प्रमुख वही शख्स हैं जो नई सरकार मे महत्वाकांक्षी किसान चैनल लेकर आए थे।
सरकार की मंशा साफ है। वह अपने 2 मई 2018 के स्टैंड पर कायम है। वह दाएं-बाएं में ऐसे शिगूफे छोड़ रही है ताकि शैक्षणिक क्षेत्र में भी बहस चले जैसे कि उसने सियासत में ‘एक देश एक चुनाव’ का राग छेड़कर मीडिया से लेकर चुनाव आयोग तक, सबको व्यस्त कर दिया है।
प्रतिक्रियाओं का दौर जारी
लेकिन हम यूजीसी की कार्यप्रणाली से नाराज अकादमिक समुदाय की राय के हर उस पक्ष को यहां रख रहे हैं जो यूजीसी के खिलाफ गोलबंदी की अपील कर रहे हैं। जाहिर है उनको समाज विज्ञानियों और दूसरे क्षेत्र से जुड़े विद्वानों का भी साथ मिल रहा है।
जेएनयू में आर्ट स्कूल ऑफ एथेटिक्स के प्रोफेसर कौशिक भौमिक ने कहा, “मैं पत्रिकाओं और जर्नल्स के बारे में यूजीसी की कथित ‘अनुमोदित’ की सूची पर लिए निर्णय का किसी भी सूरत में समर्थन नहीं करता। मैं इस फैसले के खिलाफ वैचारिक रूप से एक मंच पर खड़े लोगों के साथ हूं। यूजीसी का फैसला अन्यायपूर्ण है और अकादमिक और व्यावहारिक रूप से प्रतिकूल है।” कौशिक भौमिक जेएनयू में समाज और सिनेमा अध्ययन में अग्रणी हैं। उन्होंने लैंड आर्ट और जेन व बोन्साई की अवधारणाओं से अपनी गहन अध्ययन किया और एशिया भर में जाने गए। कौशिक आर्ट और समाज के जरिए औद्योगिकीकरण को पहचानने के हुनर के लिए जाने जाते हैं।
ईपीडब्ल्यू के मैनेजर गौरंग प्रधान ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा, “यूजीसी में क्या कुछ चल रहा है हम हैरान हैं। इस समय देश में किस प्रकार का वातावरण बनाया जा रहा है, ये समझने और समझाने की कोई ज़रूरत नहीं है। यह स्पष्ट है। जैसे आक्षेप और दोषारोपण (पत्रिकाओं पर) किए गए हैं, उसकी गहराई से पड़ताल की जरूरत है। ईपीडब्ल्यू के ऑनलाइन संस्करण को छोड़ दिया था, जो असल में प्रिंट की मूल पत्रिका के संस्करण का ही डिजिटल प्रतिरूप (हूबहू) है।” गौरंग ने कहा कि हमलोगों ने यूजीसी से इस बारे में पत्राचार किया था। हम जल्द ही उनके साथ बैठक करने की सोच रहे हैं। उन्होंने कहा कि वह अपने संपादकीय सहयोगियों के साथ इस बारे में अंतिम रूपरेखा तैयार कर रहे हैं।
हैदराबाद विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री और अब रिटार्यड प्रोफेसर डी. नरसिम्हा रेड्डी कहते हैं, “प्रतिष्ठित पत्रिकाओं को अनुमोदन सूची से बाहर करने पर यूजीसी ने रोष पैदा करने का काम किया है। वह लोग जो अकादमिक स्वतंत्रता के उच्च मूल्यों के दायरे में रहते हैं, उनमें गुस्सा स्वाभाविक है। इन पत्रिकाओं में छपकर स्कॉलर नाम और प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं। यूजीसी की इस कार्रवाई से लोगों में इन पत्रिकाओं और प्रकाशनों के प्रति और अधिक मोह बढ़ेगा, इसलिए भी इस दौरान यूजीसी ने अराजकता पैदा की है। साथ ही अपनी और असहिष्णुता को जगजाहिर किया है। विरोध दर्ज कर रहे लोगों में मैं तहेदिल से साथ हूं।”
समाजशास्त्री डॉक्टर के.एन. नंदन का कहना है कि आजादी के बाद सत्ता का इतनी बुरी तरह दुरुपयोग पहले कभी नहीं हुआ था। यूजीसी 2014 से निरंतर जिस तरह की गतिविधियों को अंजाम दे रहा है उसे देखकर तनिक भी नहीं लगता कि यह कोई ऐसा संस्थान है जिसे विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के हितों की जरा-सी भी परवाह है। यूजीसी की चेयर पर किसी तानाशाह की जरूरत न कभी थी और न ही कभी होगी। जब सरकारें देश की बौद्धिक संपदा को नष्ट करने का षड्यंत्र कर रही हों तब यूजीसी जैसे संस्थान की विनाशकारी भूमिका निश्चित रूप से माफी के लायक नहीं है। ऐसे समय में हम बौद्धिक समुदाय का दायित्व बनता है कि अपनी आलोचना के माध्यम से उसे नीतिगत होने के लिए दबाव बनाने का प्रयास करें।
प्रसिद्ध राजनीतिक मनोवैज्ञानिक, सामाजिक सिद्धांतवादी और आलोचक आशीष नंदी ने यूजीसी की कार्रवाई पर तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की है। वह कहते हैं, “मैं यूजीसी की अपरोक्ष रूप से लादी गई सेंसरशिप का विरोध करता हूं। जैसा रवैया फारवर्ड प्रेस और अन्य के साथ किया गया है, यह करतूत निंदनीय है। यूजीसी को देश के बौद्धिक समाज पर पुलिसिंग करने का कोई अधिकार नहीं है।”
सांस्कृतिक मोर्चे पर सक्रिय उपेन्द्र पथिक यूजीसी की कार्रवाई को लेकर रोष में हैं। वह अर्जक संघ की सांस्कृतिक समिति के पूर्व राष्ट्रीय संयोजक हैं और फारवर्ड प्रेस के पाठक भी हैं। वह कहते हैं, “यह महज पत्रिकाएं (जो ब्लैकलिस्ट की गई) नहीं हैं बल्कि मिशन हैं, आंदोलन भी है। फारवर्ड प्रेस समाज के पिछड़े हुए लोगों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास कर रहा है। वह खोजपरक आलेखों के जरिए सामाजिक सरोकारों को पहुंचाते हैं। जंगलों और पहाड़ों और गुफाओं में जाकर महिषासुर संबंधी मिथक और किंवदन्तियां इसी पत्रिका ने खोजी है। वह भी प्रामाणिक दस्तावेजों के साथ। ये सब शोधार्थियों के लिए बहुत उपयोगी हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों के लिए भी बहुत उपयोगी हैं। सामाजिक,सांस्कृतिक और धार्मिक कुरीतियों और समाज में व्याप्त अंधविश्वास को मिटाने में अहम है। समाज के निचले तबके को जगाने में सक्रिय लोगों को खत्म करने का प्रयास हो रहा है। यूजीसी को मान्यता समाप्त करने की कार्रवाई पर पुनर्विचार करना होगा।”
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क/रंजन)
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