गंभीर पत्रिकाओं और जर्नल्स के साथ यह सलूक इसलिए किया गया है कि क्योंकि वे लोकतांत्रिक आवाजें हैं। दरअसल यह सरकार ऐसा ही काम करने में सक्षम है और इसे हम बखूबी महसूस भी कर सकते हैं। अभी यूजीसी पूरी तरह से रूढ़िवादी चीजों को प्रमोट करने में लगी है। इसका एक गंभीर पहलू यह भी है कि वह जानबूझकर ऐसा कर रही है।
वैज्ञानिक शोधों को प्रोत्साहित करने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं दिखती। वह इतिहास से लेकर लोक जनजीवन तक को अवैज्ञानिक तौर-तरीकों से परोसना चाहते हैं। यह सब इस बात को भी प्रतिबिंबित करता है कि किस तरह से सत्ता वैज्ञानिक चीजों को भी अवैज्ञानिक तरीके से पेश करना चाहती है। इससे यह भी मानना चाहिए कि शिक्षा को वह किस हद तक गिरा सकते हैं, इसके यही सब लक्षण हैं। इसे रोकने की कोशिश नहीं हुई तो समझ लीजिए ये पूरे एजूकेशन सिस्टम को खत्म कर देंगे। इसको रोकना चाहिए। सब उनके मनमाफिक हो जाएगा क्योंकि लोगों ने सवाल उठाने बंद कर दिए हैं। मोटे तौर पर लोग सीधे सवाल उठाने से बच रहे हैं। सवाल-जवाब करने बंद हो रहे हैं। जो नेताजी बोल रहे हैं वही आंख बंद करके करते रहें। कोई सत्य को ना देखे और जो देखे उसे किनारे कर दो। एजूकेशन में पूछताछ ही बंद हो जाएगी, सवाल उठने बंद जाएंगे तो ज्ञान का निर्माण खत्म हो जाएगा। इस काम में, इस सृजन में जो भी लगा है, ये उसी पर आक्रमण कर रहे हैं। वह फारवर्ड प्रेस हो, ईपीडब्ल्यू हो या अन्य प्रगतिशील आवाजें हों। जो भी (पत्रिकाएं) सीरियस इग्जामिन कर रहे हैं, उनको सीधे टारगेट किया जा रहा है। इससे बुरा और क्या हो सकता है।
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