यह कहना कि एससी-एसटी को आरक्षण की आवश्यकता है क्योंकि वे पिछड़े हैं, ब्राह्मणवादी दुष्प्रचार है
पदोन्नति में आरक्षण के संबंध में केंद्र सरकार के दोषपूर्ण दृष्टिकोण को समझना जरूरी है। पिछड़ापन का अर्थ है “जितनी प्रगति होनी चाहिए या जितने की उम्मीद की जाती है, उसकी तुलना में कम प्रगति की स्थिति”। सबसे बड़ी जरूरत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पिछड़ेपन की जड़ को उजागर करना है।
उनके पिछड़ेपन की जड़ जाति व्यवस्था है। अनुसूचित जाति- अुनुसूचित जनजातियों को आरक्षण इसलिए प्रदान किया जाता है क्योंकि हजारों सालों से उनके खिलाफ भेदभाव किया गया था, और यह भेदभाव अभी भी जारी है। अनुसूचित जातियों-अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ भेदभाव उनकी सामाजिक और जातिगत पहचान पर आधारित है। इस संदर्भ में उनकी आर्थिक स्थिति कोई मायने नहीं रखती। इसलिए, अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजातियों के आर्थिक पिछड़ेपन का आरक्षण से कोई लेना-देना नहीं है।
ब्राह्मणवादी दुष्प्रचार
आर्थिक स्थिति से आरक्षण को जोड़ना ब्राह्मणवादी दुष्प्रचार है और इन वर्गों की आकांक्षाओं को दबाने के एक अभियान का हिस्सा है। ‘पिछड़ेपन’ का टैग एक अपमानजनक अर्थ लिए हुए है। यह इस सोच को बढ़ावा देता है कि दलितों और जनजातियों को जो दिया जा रहा है, वह उनका अधिकार नहीं, बल्कि ऊंची जातियों द्वारा दिया जाने वाला दान है।

पदोन्नति या किसी अन्य क्षेत्र में आरक्षण पूरी तरह से सामाजिक पहचान के आधार पर दिया जाना चाहिए और आर्थिक सुरक्षा और आर्थिक लाभ प्रदान करते समय ही पिछड़ेपन पर विचार किया जाना चाहिए। यह समझना महत्वपूर्ण है कि कई समुदाय हैं जो पिछड़े हैं। जब सरकार कहती है कि वह पिछड़ेपन के आधार पर दलितों या जनजातियों के लिए आरक्षण बढ़ा रही है, तो यह उन्हें अन्य पिछड़े समुदायों से जबर्दस्ती जोड़ रही है। डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ की प्रस्तावना में इस तथ्य को रेखांकित किया है कि अनुसूचित जातियां-अनुसूचित जनजातियां केवल पिछड़ेपन की शिकार नहीं हैं।
जातीय भेदभाव की विदेशों तक पहुंच
जैसा कि डॉ. आंबेडकर ने भविष्यवाणी की थी, जब सवर्ण हिंदू विदेशों में जाकर बसेंगे, तब जाति एक वैश्विक समस्या बन जाएगी। हाल ही में सवर्ण हिंदू समूहों के दबाव में, ब्रिटिश सरकार जातीय भेदभाव के खिलाफ कानून बनाने के अपने निर्णय से पीछे हट गई है। हालांकि इस कानून को ब्रिटिश सरकार ने वापस ले लिया, लेकिन इससे इस सवाल की महत्ता कम नहीं हो जाति कि आखिर ब्रिटेन में “जातीय भेदभाव के खिलाफ कानून” की मांग क्यों हुई? जाहिर है, यह निश्चित रूप से पिछड़ेपन की वजह से नहीं । ब्रिटेन में भारतीय मूल के दलित, पिछड़ी स्थिति में नहीं हैं (प्रति व्यक्ति आय के आधार पर), फिर भी भेदभाव की घटनाएं होती हैं, जिनके कारण ब्रिटिश सरकार ने इस तरह के कानून पर विचार किया।

यहां तक कि संयुक्त राज्य अमरीका में, 2016 में ‘संयुक्त राज्य अमेरिका में जाति: दक्षिण एशियाई अमेरिकियों में जाति सर्वेक्षण’ शीर्षक से एक सर्वेक्षण हुआ, जिसमें इस तथ्य की पुष्टि हुई कि दक्षिण एशियाई अमेरिकी संस्थानों में दलितों को विभिन्न प्रकार के जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में दक्षिण एशियाई मूल के लगभग 1,500 लोगों के सर्वेक्षण में पाया गया कि उत्तर देने वालों में लगभग 26 प्रतिशत दलितों को उनकी जाति के कारण शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा था। 20 प्रतिशत ने अपने कार्यस्थल पर भेदभाव के बारे में बताया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि 40 प्रतिशत दलितों को पूजा के स्थानों पर अपमानजनक स्थिति से गुजरना पड़ा, यह स्थिति धार्मिक मामले में है। 40 प्रतिशत दलित स्त्री-पुरूषों की प्रेमी या प्रेमिका ने उनकी जाति के चलते उनसे किनारा कस लिया गया।। कुल मिलाकर, 60 प्रतिशत दलितों ने बताया कि उन्होंने जाति आधारित अपमानजनक चुटकुले और टिप्पणियां झेलीं।
मानसिक बुनावट के शिकंजे
अनुसूचित जाति-अनुूसूचित जनजाति के खिलाफ भेदभाव सदियों से गढ़ी गई मानसिकता के चलते है। पिछड़ेपन के आधार पर इसे समझने की कोशिश करना किसी न किसी तरह से इस समस्या को कायम रखना है। यहां तक कि निम्न जातियों के जो लोग आर्थिक प्रगति कर लेते हैं, उनके साथ भी जातीय भेद-भाव होता रहता है।
भारत में, भले ही अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति समुदाय के कुछ लोग आर्थिक तौर पर सवर्ण जातियों के बराबर की हैसितयत प्राप्त कर ले, तब भी उस वर्ग में या उससे भिन्न वर्ग में उनकी स्थिति दोयम दर्जे की स्थिति बनी रहती है। आर्थिक सुरक्षा के मामले को छोड़कर पिछड़ेपन की आवश्यक शर्त अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के मामले में लागू नहीं होती। पिछड़ेपन की जगह अपना ध्यान ‘सामाजिक और जातीय पहचान’ पर केंद्रित करना चाहिए।
जहां तक मौजूदा एनडीए सरकार का सवाल है, भले ही सरकार खुद को दलित समर्थक होने का दावा करती है, लेकिन इसे बहुत सारे लोगों द्वारा दलित-विरोधी कहा जाता है। यदि सरकार अनुसूचित जातियों-अनुसूचित जनजातियों को एक सम्मानजनक और स्वाभिमानी जीवन देने के लिए वास्तव में उत्सुक है, तो उन्हें अनुसूचित जातियों-अनुसूचित जनजातियों के सवाल को इस तरह से संबोधित करना चाहिए जिससे उनके जीवन के हर पहलू का विश्लेषण हो सके। केवल भाषणवाजी दलितों के बीच अधिक नाराजगी और भ्रम पैदा करेगी, जो आरक्षण और अन्य अधिकार मांगने के हकदार हैं।
(अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद : अनिल, कॉपी-संपादन : सिद्धार्थ)
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