बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार संकट के दौर से गुजर रहे हैं। हालत यह हो गयी है कि उन्हें एक बार फिर ब्राह्मण जाति से आने वाले प्रशांत किशोर की मदद लेनी पड़ रही है। वही प्रशांत किशोर जिन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर कांग्रेस और नीतीश कुमार के इलेक्शन कैंपेन संभाल चुके हैं। प्रशांत किशोर पर नीतीश पहले भी मेहरबान रहे हैं। उस समय वे खुद आलोचनाओं के शिकार हो गये थे जब प्रशांत किशोर को बिहार विकास मिशन की बागडोर सौंप दी और कैबिनेट मंत्री पद का दर्जा भी दे दिया था। लेकिन प्रशांत किशोर ने एक भी दिन सलाहकार के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन नहीं किया। तब तत्कालीन मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने प्रशांत किशोर को लेकर नीतीश कुमार पर सवालों की बौछार कर दी थी।
प्रशांत किशोर इस बार बदले अंदाज में नीतीश कुमार के साथ आये हैं। हाल ही में एक अणे मार्ग स्थित मुख्यमंत्री आवास में संपन्न हुई जदयू कार्यकारिणी की बैठक में वह नजर आये। वह भी अलग कलेवर में। नीतीश कुमार उन्हें साथ लेकर बैठक में आये और अपने दायें बगल में बिठाया। जबकि बायें वाली कुर्सी पर वशिष्ठ नारायण सिंह को जगह दी। बैठक के दौरान ही सक्रिय कार्यकर्ता की रसीद दी गयी।
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नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी तक के लिए काम कर चुके हैं प्रशांत किशोर
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नीतीश कुमार ने दिया था कैबिनेट मंत्री का दर्जा
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उत्तर प्रदेश के बलिया में हुआ था प्रशांत किशोर का जन्म
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प्रशांत किशोर के पिता बिहार के सरकारी अस्पताल में चिकित्सक थे
इससे पहले भी नीतीश कुमार प्रशांत किशोर को अपने दल के मंत्रियों, नेताओं व विधायकों से अधिक तरजीह देते रहे हैं। वह भी तब जब प्रशांत किशोर बतौर पेशेवर उनका चुनाव प्रबंधन कर रहे थे। कहा जाता था कि मुख्यमंत्री के आवास में मंत्रियों तक को इंट्री सीधे नहीं मिलती है लेकिन प्रशांत किशोर के लिए दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं।

एक बार फिर सवाल यही कि आखिर प्रशांत किशोर को नीतीश कुमार एक बार फिर क्यों लेकर आये? क्या वह अगले लोकसभा चुनाव में कैंपेन की जिम्मेवारी फिर से उनके कंधों पर डालना चाहते हैं? यदि वे ऐसा ही करना चाह रहे हैं जिसकी संभावना अधिक है तब अपने स्वजातीय और राज्यसभा सांसद आरसीपी सिंह को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने की कोशिशों का मतलब क्या है? या इसकी वजह सवर्ण समाज पर जदयू की कमजोर होती पकड़ है?
सबसे पहला सवाल तो यही कि नीतीश कुमार को प्रशांत किशोर चुनावी वर्ष में ही क्यों याद आते हैं? वैसे तो यह सवाल बड़ा सीधा है और जवाब भी। लेकिन जो नीतीश कुमार की राजनीति को जानते-समझते हैं, वे जानते हैं कि चुनाव के समय नीतीश कुमार सबसे अधिक नर्वस होते हैं। यह कोई नई बात नहीं है। उनकी राजनीति की विशेषता यही रही है कि उन्होंने 2014 में हुए लोकसभा चुनाव को छोड़ दें तो कभी भी अपने दम पर चुनाव नहीं लड़ा। उन्हें हमेशा एक सहारे की जरुरत होती है। वर्ष 1993-94 में लालू प्रसाद से अलग होने के बाद जब उन्होंने समता पार्टी का गठन किया था तब वर्ष 1995 में हुए विधानसभा चुनाव के समय उन्होंने अपने लिए मददगार की तलाश की थी। तब उनकी मदद भाकपा माले ने की थी। लेकिन इसका लाभ उन्हें नहीं मिल सका। उन्होंने अपनी लूटिया तो डूबोई ही माले की नाव भी डूबो दी। इस चुनाव में नीतीश कुमार को केवल 8 सीटें मिल सकी थीं।
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नीतीश कुमार को पड़ती हर चुनाव में सहारे की जरुरत
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केवल 2014 में अपने बूते लड़ा चुनाव
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प्रशांत किशोर ने अमित शाह और नीतीश कुमार के बीच करायी डील
नीतीश कुमार की राजनीति को सबसे बड़ा सहारा तब मिला जब उन्होंने भाजपा का सहारा लिया। वह 1997 में हुआ लोकसभा चुनाव था। नीतीश कुमार जीते और भाजपा ने उनके साथ-साथ जार्ज फर्नांडीस और शरद यादव को केंद्र में मंत्री पद से नवाजा। फिर 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के पहले तक भाजपा के साथ ही रहे। लेकिन भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को अपना नेता मान लेने पर नीतीश कुमार ने विद्रोह कर दिया। यहां तक कि नरेंद्र मोदी को भोज पर बुलाने के बाद उन्होंने भोज रद्द कर दिया था। वजह यह रही कि भाजपा के एक रसूखदार नेता ने बिहार के अखबारों में विज्ञापन छपवा दिया जिसमें वह नरेंद्र मोदी के साथ हाथ मिलाकर खड़े थे।

लेकिन अकेले चुनाव लड़ने का फैसला नीतीश कुमार के लिए महंगा पड़ा। उन्हें करारी हार मिली। केवल दो सीटों पर जीत मिली। मतों में हिस्सेदारी पर भी फर्क पड़ा।
नीतीश कुमार यह समझ गये कि वे अकेले चुनाव लड़कर कोई तीर नहीं मार सकते हैं। यही वजह रही कि 2015 में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले अनपेक्षित फैसला लेते हुए लालू प्रसाद की शरण ली। बिहार की राजनीति में यह बड़ा परिवर्तन साबित हुआ और वही हुआ जिसकी संभावना थी। भाजपा को हार मिली। नीतीश कुमार लालू के कंधे पर चढ़कर एक बार फिर बिहार के मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर विराजमान हो गये।

जब यह सब हुआ तब प्रशांत किशोर नीतीश कुमार के साथ थे। इलेक्शन कैंपेन उनके ही जिम्मे था। लेकिन नीतीश इस बात को समझते थे कि उनके बजाय राजद को अधिक सीट मिली है और वह एक बार फिर से अपनी जड़ें जमाने में कामयाब हो चुकी है। प्रशांत किशोर की रणनीति फेल साबित हुई। इसका परिणाम भी सामने आया। नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर और उनकी पूरी टीम को अलग कर दिया। हालांकि तब उन्हें इसकी जरुरत भी नहीं थी।

प्रशांत किशोर ने भी खुद को बिहार से अलग कर लिया और 2016 में उनका पूरा अटेंशन मध्य प्रदेश में राज कर रहे भाजपा के शिवराज सिंह चौहान की राजनीति पर चला गया। फिर 2017 के प्रारंभ में आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस के प्रमुख जगमोहन रेड्डी के लिए भी कैंपेन करने लगे।
इस बीच राजद को छोड़कर भाजपा के साथ दुबारा गठबंधन कर फिर से मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार के लिए उनका वर्तमान कार्यकाल किसी दु:स्वप्न से कम नहीं है। बिहार के राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार भाजपा के साथ उनकी दूरी घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। हैरान-परेशान होकर उन्होंने समय रहते यह क्लीयर कर लेना उचित समझा कि भाजपा उन्हें कितनी सीटों पर चुनाव लड़ने की अनुमति देगी।
जानकारों के मुताबिक इस कार्य में प्रशांत किशोर ने उनकी बड़ी मदद की और भाजपा से कम से कम 15 सीटों पर चुनाव लड़ने का अाश्वासन हासिल कराया। यह आश्वासन भी किसी और ने ही बल्कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने नीतीश कुमार को दिया।

बहरहाल प्रशांत किशोर पर नीतीश कुमार का तीसरी बार विश्वास कई संकेत देता है। पहला तो यह कि वह खुद को केवल कुर्मी समाज का नेता नहीं कहलवाना चाहते हैं। जबकि भाजपा उन्हें केवल इसी रूप में देखती है कि वह ओबीसी वर्ग से आने वाले कुर्मी जाति के बड़े नेता हैं और इनके कारण राजद को मिलने वाले ओबीसी वोटों में सेंधमारी हो पाती है। नीतीश कुमार फिलहाल तीन जाति समूहों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। इनमें से एक तो अति पिछड़ा वर्ग है और दूसरे दलित वोटर हैं। तीसरे सवर्ण हैं। नीतीश अपने सवर्ण मतदाताओं को नाराज नहीं करना चाहते हैं और न ही सवर्णों के किसी नेता को आगे बढ़ाना चाहते हैं। ललन सिंह और पी के शाही जैसे नेताओं को वे पहले ही हाशिए पर कर चुके हैं। फिलहाल उनकी पार्टी में ऐसा कोई सवर्ण नहीं है जो खुद को सवर्णों का नेता कह सके।
लगभग इसी तरह की कवायद राजद ने भी की। उसने मनोज झा को राज्यसभा का सदस्य बनाकर भेजा। राजद ने यह जताने की कोशिश की कि वह सवर्णों की फिक्र करने में जदयू से कहीं आगे है। भाजपा और कांग्रेस को सवर्ण वोटों के मामले में हमेशा से लाभ मिलता रहा है।
बहरहाल, प्रशांत किशोर के लिए नयी राह इतनी आसान नहीं है। नीतीश कुमार ने उन्हें अपनी पार्टी में जगह तो दे दी है, लेकिन वे उस विरोध का क्या करें जो उनकी अपनी ही पार्टी के नेताओं से मिल रही है। उपर से भाजपा का दबाव भी कुछ कम नहीं है।आने वाले समय में नीतीश कुमार के लिए प्रशांत किशोर डूबते हुए को तिनके का सहारा साबित होंगे या नहीं, यह तो चुनाव परिणाम ही बतायेंगे।
(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ)
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