प्रत्येक आधिकारिक संवाद से ‘दलित‘ शब्द निकालने का पंकज मेश्राम का संघर्ष 13 साल पहले 2006 में एक घटना के बाद शुरू हुआ था। जिसमें नागपुर से 80 किलोमीटर दूर खैलरांजी में एक जातीय झगड़े में एक दलित परिवार की हत्या कर दी गई थी।
मेश्राम, सामूहिक हत्या के शिकार भोतमांगे परिवार के एकमात्र जीवित सदस्य भैयाजी के करीब आए और समझा कि उन ग्रामीण क्षेत्रों में जातीय भेदभाव ने कैसे काम करता है। उन्होंने कहा, “अनुसूचित जाति समुदाय को गांवों में बहुत भेदभाव का सामना करना पड़ता है और ‘दलित‘ शब्द उत्पीड़न का प्रतीक बन गया है। जब कोई आपको दलित कहता है, तो यह केवल अपमानजनक अर्थ में होता है।” उन्होंने कहा कि उन्होंने महसूस किया कि यह शब्द पूरी तरह से सरकारी रिकॉर्ड से निकाल देना आवश्यक है।

मेश्राम ने कहा, “मैंने कई विभागों को लिखा कि वे इस शब्द का उपयोग रोकें क्योंकि संविधान में इसका उल्लेख नहीं है। हमें कानूनी रूप से ‘एससी‘ के रूप में पहचाना जाता है और यही आधिकारिक नामकरण होना चाहिए। जब सभी विकल्प समाप्त हो गए तब 2016 में मैंने उच्च न्यायालय की नागपुर खंडपीठ में याचिका दायर की।“
वे वकील शैलेश नरनावरे के संपर्क में आए, जिन्होंने महसूस किया कि यह “एक मजबूत मामला था“। नरनावरे का मुख्य तर्क यह था कि दलित शब्द का कोई कानूनी पक्ष या समर्थन नहीं है। नरनावरे ने कहा, “जब संविधान स्वयं इस शब्द का उपयोग नहीं करता, तो सरकारी संवाद/संचार में इसका उल्लेख क्यों किया जा रहा है? यहां तक कि इस पर योजनाओं के नाम भी रखे जा रहे हैं। अदालत हमसे सहमत हुआ।“
दलित शब्द का उपयोग सशक्तीकरण का प्रतीक है जैसे दलित साहित्य या दलित पैंथर जैसे आंदोलन। इस तर्क से जाने–माने थियेटर अभिनेता और निर्देशक वीरेंद्र गणवीर असहमत हैं। उनका कहना है कि “दलित एक स्थिति है, पहचान नहीं है। यह एक दयनीय स्थिति है।“
लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो इस दृष्टिकोण से सहमति नहीं रखते। उनमें से एक, पूर्व राज्यमंत्री नितिन राउत ने कहा, “एक शब्द के रूप में, दलित, समुदाय के नाम के तौर पर सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया जाता है। क्या हम अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए ‘बहुजन‘ और एसटी के लिए ‘आदिवासी‘ का उपयोग नहीं करते हैं? दलित के साथ क्या गलत है?”
((कॉपी संपादन : सिद्धार्थ, अनुवाद : अनिल)
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