सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के कर्मियों के आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने 26 सितंबर, 2018 को अपना ऐतिहासिक फैसला सुना दिया है। संविधान पीठ ने केंद्र और राज्य सरकारों को पदोन्नति में आरक्षण देने की अनुमति दे दी है। साथ ही आरक्षण के लिए मात्रात्मक आंकड़े की अनिवार्यता को भी समाप्त कर दिया है।
साथ ही अब इस अटकलबाजी पर भी विराम लग गया है कि ओबीसी के तर्ज पर एससी और एसटी के लिए भी क्रीमीलेयर लागू किया जायेगा।
यह केंद्र और राज्य सरकारों के लिए अहम फैसला है। इससे देश के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कर्मियों को लाभ मिलेगा।
दरअसल 12 साल पहले एम. नागराज मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक शर्त रख दी थी कि सरकार आरक्षण देने से पहले जिस जाति को आरक्षण देना चाहती है, उसके बारे में मात्रात्मक आंकड़े प्रस्तुत करे कि वह आर्थिक और सामाजिक स्तर पर कितना पिछड़ा है और सेवाओं में उसकी हिस्सेदारी कितनी है।
बारह साल बाद केंद्र आैर राज्य सरकारों की याचिका के उपरांत सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2018 में इस मामले को लेकर एक संविधान पीठ का गठन किया था। इस पीठ को यह तय करना था कि 12 साल पुराने नागराज फैसले पर फिर से विचार करने की जरूरत है या नहीं। लेकिन 26 सितंबर 2018 को दिये अपने फैसले में कोर्ट ने यह साफ कर दिया है कि एम. नागराज मामले में जो शर्त निर्धारित की गयी थी, वह अब निष्प्रभावी हो गई है।
इस संविधान पीठ की अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने की। इस पीठ में जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस इंदु मल्होत्रा भी शामिल रहे।
गौरतलब है कि अक्टूबर 2006 में नागराज बनाम भारत संघ के मामले में पांच जजों की संविधान बेंच ने इस मुद्दे पर निष्कर्ष निकाला कि राज्य नौकरी में पदोन्नति के मामले में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। साथ ही यह भी कहा था कि अगर वे अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करना चाहते हैं और इस तरह का प्रावधान करना चाहते हैं तो राज्य को वर्ग के पिछड़ेपन और सार्वजनिक रोजगार में उस वर्ग के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता दिखाने वाले मात्रात्मक आंकड़े एकत्रित करने होंगे।
(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ)
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