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सबूत पेश नहीं कर सकी सरकार, रिहा हुए विजय कुमार आर्य

कभी देश के नक्सली-माओवादी आंदोलन की रीढ़ माने जाने वाले विजय आर्य आखिर करीब 8 सालों बाद  रिहा हो गए। यादव जाति में जन्में विजय आर्य लंबे समय तक गरीबों-मजलूमों के लिए संघर्ष करते रहे। उनके जीवन संघर्ष और भविष्य को लेकर उनकी रणनीतियों के बारे में फारवर्ड प्रेस की रिपोर्ट:

आखिरकार सरकार को माओवादियों के शीर्ष बुद्धिजीवियों में से एक और अंतराष्ट्रीय माओवादी संगठन रीम और कम्पोसा के संस्थापकों में शामिल विजय कुमार आर्य को रिहा करना ही पड़ा। हालांकि बिहार सरकार ने उन्हें जेल में बंद रखने की खूब सारी कवायद की। यहां तक कि लंबे समय तक बिहार सरकार ने आंध्र प्रदेश में चल रहे एक मामले में विजय आर्य को प्रोड्यूस नहीं किया ताकि न तो मामला खत्म हो और न ही वे रिहा हो सकें। परंतु एक के बाद एक कानूनी लड़ाईयां जीतने के बाद विजय आर्य बीते 13 सितंबर 2018 को रिहा हो गये। उन्हें बिहार के सासाराम जेल से रिहा किया गया।

अब जबकि वे रिहा हो गये हैं, बिहार में राजनेताओं के कान तो खड़े हो ही गये हैं, नक्सली संगठनों के उम्मीदों को भी हवा मिली है। हालांकि जेल से रिहा होने के बाद विजय आर्य ने भी साफ कर दिया है कि वे गरीब-गुरबों पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ अपने संघर्ष को जारी रखेंगे। इस क्रम में वे पटना से गया तक पदयात्रा निकालेंगे। जाहिर तौर पर उनके इस आह्वान से बिहार के राजनीतिक दलों की नींद हराम होना तय है।

जगदेव प्रसाद के स्कूल के विद्यार्थी रहे हैं विजय आर्य

यादव जाति से संबंध रखने वाले विजय आर्य की पारिवारिक पृष्ठभूमि राजनीतिक रही है। उनके पिता रामजतन सिंह यादव समाजवादी थे। पहले डॉ. राम मनोहर लोहिया और बाद में जब जगदेव प्रसाद ने नारा दिया-धन, धरती और राजपाठ में नब्बे भाग हमारा है तो इस नारे से प्रभावित होकर रामजतन यादव जगदेव बाबू के आंदोलन में सक्रिय हो गये। वे दो बार गुरूआ विधानसभा क्षेत्र से चुनाव भी लड़े थे। एक बार तो नक्सलियों ने उन्हें धमकी दी थी कि यदि वे चुनाव लड़ेंगे तब उनका हाथ काट लिया जाएगा। लेकिन रामजतन यादव ने उन्हें चुनौती देते हुए निर्दलीय चुनाव लड़ा था कि जिसे जो करना है कर ले, वे चुनाव लड़ेंगे।

रिहा होने के बाद एक न्यूज चैनल से बातचीत करते विजय कुमार आर्य (तस्वीर साभार – इनाडू इंडिया)

रामजतन यादव की सात संतानों(चार बेटियों और तीन बेटे) में चौथे विजय कुमार आर्य का जन्म पचास के दशक में गया जिले के कोच प्रखंड स्थित करमा गांव में हुआ। उन्होंने जगदेव प्रसाद द्वारा गया जिले के परैया में स्थापित अशोक हाई स्कूल से 10वीं परीक्षा पास की। बाद में उन्होंने अनुग्रह मेमोरियल काॅलेज, गया से अर्थशास्त्र में पीजी किया। जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने गया जिले के लारी काॅलेज में बतौर लेक्चरर नौकरी की। लेकिन यह स्थिति बनी नहीं रह सकी।

विजय कुमार आर्य का परिवार स्वतंत्र विचारों का था। ब्राह्मणवाद और अंधविश्वास से कोसों दूर उनकी बहनों ने प्रेम विवाह किया था। हालांकि जाति का बंधन नहीं टूटा था। विजय आर्य ने भी गया शहर के कंड़ी नवादा की रहने वाली स्वजातीय किरण कुमारी नामक लड़की से प्रेम विवाह ही किया। वह भी बिना किसी ब्राह्मण के।

बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें

विजय आर्य बताते हैं कि हमारे चाचा दारा सिंह उन दिनों मगध(पटना, जहानाबाद, अरवल, गया, नवादा, नालंदा) में एमसीसी के हस्ताक्षर बन चुके थे। बिना उनके इजाजत के एक भी फैसला एमसीसी नहीं लेती थी। उस वक्त एमसीसी चुनाव बहिष्कार के नारों के साथ मैदान में डटी थी। एक भाई समाजवादी तो दूसरे साम्यवादी। रास-रंग नहीं बैठा और घर में ही बगावत हो गयी। बाद में दारा सिंह पुलिस इनकाउंटर में मारे गये।

माओवादियों के शीर्ष बुद्धिजीवियों में एक थे विजय कुमार आर्य

दारा सिंह की हत्या और अपने पिता की मौत के बाद द्वंद में जी रहे विजय आर्य नब्बे के दशक में एमसीसी के ओपेन फ्रंट जन सुरक्षा संघर्ष मंच बनाकर व्यवस्था को चुनौती देना शुरू कर दिया। गया,  जहानाबाद, डालमियानगर, धनबाद, रांची, हजारीबाग समेत कई शहरों में बड़ी-बड़ी जनसभाओं को संबोधित कर तत्कालीन बिहार सरकार को परेशानी में डाल चुके थे। विजय आर्य के संघर्ष के घबराई तत्कालीन बिहार सरकार जन सुरक्षा संघर्ष मंच को प्रतिबंधित कर दिया। उनके सैकड़ों समर्थक जेल में डाल दिये गये। तब एक दौर ऐसा भी आया जब लगा कि अब विजय आर्य की राजनीति समाप्त हो जाएगी। लेकिन जिद्दी स्वभाव के विजय आर्य सरकार को धोखे में डालकर जन प्रतिरोध संघर्ष मंच बनाया और तीखा संघर्ष शुरू किया।

रिहा होने के बाद पटना में अपने परिजनों के साथ खाना खाते विजय कुमार आर्य

माओवादियों ने स्ट्रगलिंग फोरम फाॅर पीपुल्स रेसिस्टेंस बनाकर राष्ट्रीय पहचान बनायी तो विजय आर्य इसके राष्ट्रीय कौंसिल के सह-संयोजक बनाये गये। अंतराष्ट्रीय माओवादी संगठन रीम और कम्पोसा के निर्माण में महती भूमिका निभाई।

विजय आर्य माओवादियों के शीर्ष बुद्धिजीवियों में एक थे। जन ज्वार,  लाल किरण समेत कई पत्रिकाओं के संपादक मंडल में रहे। कहा तो यहां तक जाता है कि एमसीसी की लाल चिंगारी और लाल पताका का संपादन भी स्वयं आर्य ही किया करते थे।

जब सकते में आये लालू और खुद को बताया था असली नक्सली

विजय आर्य की सक्रियता जहां एक ओर केंद्र सरकार को सकते में डाल रही थी, वहीं एमसीसी इस ताकतवर नेता के संघर्षों का कायल होने लगा। लालू प्रसाद उन दिनों बिहार के मुख्यमंत्री थे और 1997 में हुए लोकसभा चुनाव में बिहार के 54 सीटों में से केवल 7 सीटों पर उन्हें जीत मिली थी। इसकी बड़ी वजह वे वामपंथी संगठनों को मानते थे। तब विजय कुमार आर्य की लोकप्रियता शिखर पर थी। हालत यह थी कि लालू प्रसाद ने कहना शुरू कर दिया था कि असली नक्सली हम ही हैं। विजय आर्य के समर्थकों को बरगलाने के ख्याल से लालू प्रसाद ने एक चाल चली। गया जिले के अधिकांश चुनावी सभाओं ने लालू प्रसाद ने कहना शुरू कर दिया कि विजय आर्य और वर्तमान सरकार की नीतियां गरीबों के लिये काम कर रही है। विजय आर्य भी हमारे साथ चुनावी सभा को संबोधित करेंगे। इसके लिये लालू शेरघाटी, परैया की सभा के बाद गुरारू आये। दोनों की यहां मुलाकात हुई। लेकिन विजय कुमार आर्य ने लालू प्रसाद के साथ मंच साझा नहीं किया। उन दिनों दोनों के मुलाकात की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनी।

1990 में बिहार के जहानाबाद जिले में एक कार्यक्रम के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद। उन दिनों नीतीश कुमार उनके साथ थे

इस मुलाकात का फायदा लालू प्रसाद को तो हुआ लेकिन माअोवादियों ने उन्हें शक की निगाह से देखा और उन्हें भूमिगत कर दिया। बाद में सोन-विध्याचल कमेटी का प्रभारी बना चंदौली-बनारस के इलाकों में भेजा। वह इलाका भी सामंती जुर्म के खिलाफ वर्ग-संघर्ष का प्रयोगशाला बनना शुरू हो गया। उसी दौरान रूटिन चेकिंग में बक्सर में विजय आर्य पुलिस के हत्थे चढ़ गये। साल भर बाद जेल से बाहर आये। फिर विजय आर्य पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्हें एमसीसी और पीपुल्स वार के विलय के समय बनी भाकपा माओवादी के केंद्रीय कमेटी का सदस्य बनाया गया।

गिरफ्तारी के बाद भी सांसत में थी सरकार की जान

नेपाल में बदल रहे हालात और सीमांचल में कमजोर पड़ रही वर्ग संघर्ष की ताकत को तेज करने के ख्याल से 30 अप्रैल, 2011 को अपने सेंट्रल कमेटी के वाराणसी सुब्रह्रणयम, पुलेंदु शेखर मुखर्जी के साथ विजय आर्य कटिहार के बारसोई पहुंचे ही थे कि अपने स्थानीय साथियों की लापरवाही से तीनों पुलिस के हत्थे चढ़ गये।

गिरफ्तारी के तुरंत बाद उन्हें हेलिकॉप्टर से पटना लाया गया। तत्कालीन डीजीपी ने तब प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुये बताया था कि तीनों नक्सली संगठन ,माओवादी के सेंट्रल कमिटी के मेंबर हैं। माओवादियों के थिंक टैंक की गिरफ्तारी बिहार पुलिस के लिए बड़ी कामयाबी हैं। इस गिरफ्तारी के बाद माओवादी संगठन की एक प्रकार से कमर टूट गयी है। गिरफ्तार नक्सली नेताओं पर बिहार ,झारखंड ,उड़िसा, आंध्रप्रदेश ,छत्तीसगढ़ ,पश्चिम बंगाल,पंजाब में नक्सली गतिविधियों का प्राथमिकी दर्ज हैं।

बिहार सरकार विजय कुमार आर्य को लेकर इतनी सजग थी कि उसने उन्हें भागलपुर सेंट्रल जेल के तृतीय खंड में हाई सिक्योरिटी में रखा था। कोर्ट पेशी के लिए गिरफ्तार नक्सलियों को जब भागलपुर सेंट्रल जेल से कटिहार कोर्ट लाया जाता था तो सुरक्षा के नाम पर सैकड़ों गाड़ियों की भारी-भरकम व्यवस्था होती थीं। आम -जनों के लिए सड़क बंद कर दिया जाता था। विजय आर्य को बिहार के भागलपुर, गया ,सासाराम, आंध्रप्रदेश ,एवं उड़ीसा के जेलों में रखा गया।

14 मामले, कोई सबूत नहीं

विजय आर्य के खिलाफ कुल 14 मामले दर्ज थे। सरकार की नजर में विजय आर्य ,इतने बड़े नक्सली नेता थे कि उनकी गिरफ्तारी के लिए 30  लाख रुपए इनाम की घोषणा की गयी थी। गिरफ्तारी के बाद पुलिस पर दबाव इस कदर था कि वह उन्हें सड़क मार्ग से ले जाने से बचती थी। लेकिन इन तमाम तामझाम के बावजूद सरकार उनके खिलाफ एक भी मामले में सबूत अदालत में पेश नहीं कर सकी। करीब 7 वर्ष 4 महीने के बाद उन्हें रिहाई मिली।

बहरहाल, लोकसभा चुनाव के ठीक पहले विजय कुमार आर्य की रिहाई से बिहार की राजनीति में उबाल आने की संभावना बढ़ गयी है। देखना दिलचस्प होगा कि उनका अगला कदम क्या होगा। क्या वह फिर से माओवादी संगठनों को मजबूत करेंगे या फिर वे चुनावी राजनीति की दिशा में आगे बढ़ेंगे?

(इनपुट : रविश कुमार मणि, कॉपी संपादन : सिद्धार्थ)


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