अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण संशोधन अधिनियम, 2018 का विरोध कर रहे सवर्ण समाज के लोगों को बीते 7 सितंबर 2018 को फिर झटका लगाा। सर्वोच्च न्यायालय ने अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति (एससी-एसटी) अत्याचार निवारण संशोधन कानून पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। हालांकि न्यायालय ने कानून की वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका को स्वीकार कर लिया है और केंद्र सरकार से छह सप्ताह के अंदर जवाब मांगा है।
गौर तलब है कि बीते 6 सितंबर 2018 को इसी कानून को वापस लेने की मांग को लेकर सवर्ण समाज के लोगों द्वारा भारत बंद का आह्वान किया गया था। इसके पहले 25 अगस्त 2018 को अधिवक्ता पृथ्वीराज चौहान और अधिवक्ता प्रिया शर्मा ने अलग-अलग याचिका दायर कर संसद द्वारा पारित संशोधन विधेयक को चुनौती दी। अपनी याचिका में दोनों अधिवक्ताओं ने कहा था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 में संसद द्वारा संशोधन के बाद ब्लैकमेल करने का हथियार बनकर रह गया है। इसके जरिए निर्दोष नागरिकों और लोक सेवकों को फंसाना आसान हो जाएगा। इस संबंध में एक याचिका बाद में अधिवक्ता संदीप लांबा द्वारा भी सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी।
सुनवाई के लिए याचिका स्वीकार
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए. एम. खानविलकर और डी. वाई. चंद्रचूड़ की खंडपीठ ने वकील पृथ्वी राज चौहान और प्रिया शर्मा की याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार करते हुए कहा कि केंद्र सरकार का पक्ष जाने बिना कानून के कार्यान्वयन पर रोक लगाना उचित नहीं होगा। इसके साथ ही न्यायालय ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर छह सप्ताह के भीतर जवाबी हलफनामा दायर करने को कहा है।

बताते चलें कि केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 में धारा 18ए जोड़ते हुए संसद में संशोधन विधेयक हाल ही में संपन्न हुए मानसून सत्र के दौरान पेश किया था जिसे राज्यसभा और लोकसभा द्वारा पारित कर दिया गया था। ऐसा कर केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त किये गये प्रावधानों को फिर से बहाल किया ताकि कानून को मूल स्वरूप में लाया जा सके। इसी की वैधानिकता को याचिकाकर्ताओं ने चुनौती दी है।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से कमजोर हुआ था एक्ट
उल्लेखनीय है कि शीर्ष अदालत ने गत 20 मार्च 2018 को दिये गए फैसले में एससी-एसटी कानून के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए धारा 18 के उन प्रावधानों को निरस्त कर दिया था, जिसके तहत आरोपी को तुरंत गिरफ्तार करने, तत्काल प्राथमिकी दर्ज करने और अग्रिम जमानत न देने की व्यवस्था की गयी थी। न्यायालय ने इन प्रावधानों को निरस्त करते हुए कहा था कि एससी-एसटी अत्याचार निवारण कानून में शिकायत मिलने के बाद तुरंत मामला दर्ज नहीं होगा, पुलिस उपाधीक्षक या इस रैंक का अधिकारी पहले शिकायत की प्रारंभिक जांच करके पता लगाएगा कि मामला झूठा या दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं है। इसके अलावा इस कानून में प्राथमिकी दर्ज होने के बाद अभियुक्त को तुरंत गिरफ्तार नहीं किया जायेगा। सरकारी कर्मचारी की गिरफ्तारी से पहले नियोक्ता/सक्षम अधिकारी और सामान्य व्यक्ति की गिरफ्तारी से पहले संबंधित जिले के पुलिस अधीक्षक की मंजूरी ली जाएगी। इतना ही नहीं, न्यायालय ने अभियुक्त की अग्रिम जमानत का भी रास्ता खोल दिया था।

विरोध के बाद सरकार ने बनाया था कानून
न्यायालय के इस फैसले का व्यापक राजनीतिक विरोध हुआ था और विभिन्न राजनीतिक दलों ने इससे कानून के कमजोर होने की बात कही थी। उसके बाद 2 अप्रैल 2018 को देश भर में विरोध-प्रदर्शन और आंदोलन हुए थे।
केंद्र सरकार ने पुनरीक्षण याचिका दायर की थी, लेकिन इसके बावजूद भारी जनाक्रोश व राजनीतिक दबाव ने सरकार को बैकफुट पर ला दिया और उसने मानसून सत्र के दौरान संसद में संशोधन विधेयक पेश किया व पारित कराया। राष्ट्रपति से स्वीकृति के बाद इसे अधिसूचित भी कर दिया गया है और यह कानून प्रभावी हो चुका है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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