कर्नाटक की सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाले मैसूर शहर के चामुंडी हिल्स पर बीते 7 अक्टूबर 2018 को राज्य के मूल निवासियों ने महिष दसरा मनाया। मुख्य कार्यक्रम का आयोजन महिषा प्रतिष्ठाना समिति के तत्वावधान में किया गया। इस आयोजन में प्रगतिशील संस्थाओं की अहम भूमिका रही। इनमें उरिलिंगीपेड्डी मठ, अशोकापुरम अभिमानिगाला बेलागा, दलित वेलफेयर ट्रस्ट, अम्बेडकर अभिमानिगाला बालागा, रिसर्च स्कॉलर्स एसोसिएशन (मैसूर), यूनिवर्सिटी गेस्ट फैकल्टी फ़ोरम, दलित स्टूडेंट फ़ेडरेशन के अलावा और कई अल्पसंख्यक संगठन शामिल रहे।
कार्यक्रम की शरुआत मैसूर शहर के टाउन हॉल से हुई जहां से एक विशाल जुलूस निकाला गया। इसमें अलग-अलग तरह के लोक नृत्य करने वाली मंडलियां शामिल भी हुईं। यह जुलूस चामुंडी हिल्स के शिखर पर बने महिषासुर की प्रतिमा स्थल तक गया। यह जुलूस बहुजन सांस्कृतिक प्रतिरोध की मुखर अभिव्यक्ति करने में सफल रही। हजारों की संख्या में मूलनिवासियों ने इसमें भाग लिया और महिषा के प्रति सम्मान प्रकट किया। इनमें कई प्रगतिशील विचारक, सांस्कृतिक शख़्सियतें, सामाजिक कार्यकर्ता, रिसर्च स्कॉलर और बड़ी संख्या में बहुजन छात्र शामिल रहे। इस आयोजन ने उस मिथक को तोड़ा जिसमें महिषासुर को शैतान के रूप में चित्रित किया जाता है।

बताया जाता है कि महिषा इस इलाके में बौद्ध धर्म को प्रसारित करने के लिए सदियों पहले आए थे। चूंकि वे यहां के शासक थे और उनकी प्रतिष्ठा ‘जनता के राजा‘ के रूप में थी इसलिए ऐतिहासिक रूप में मैसूर (मैसुरु) को पहले महिषापुरी, महिषुरु और महिषामंडला के रूप में जाना जाता था।
इस अवसर पर उरिलिंगीपेड्डी मठ के स्वामी ज्ञानप्रकाश ने जुलूस के पहले टाउन हॉल के सामने डॉ. बी.आर. आंबेडकर की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया। इसके बाद विधायक जारकिहोली ने जुलूस और मोटरसाइकिल रैली को हरी झंडी दिखाई। अपने पुरखे महिषा को याद करते हुए जब यह जुलूस टाऊन हॉल से निकली तब यह आकर्षण का केंद्र बन गया। चामुंडी हिल्स की ओर चले इस जुलूस में एक खुले वाहन में महिषासुर का विशाल चित्र था, जिसके पीछे लोकनृत्य के कलाकारों का समूह चल रहा था।

जुलूस का समापन चामुंडी हिल्स के शिखर पर ‘मूलनिवासीगाला महिषा सम्सक्रुथिका हब्बा 2018‘ और ‘महिषा मंडलाडा‘ सभा में तब्दील हो गया।
अपने संबोधन पूर्व मंत्री रह चुके विधायक सतीश जारकिहोली ने कहा, “वे आंबेडकर और पेरियार को मानते हैं, जिन्होंने आज़ादी के पहले और बाद में सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र हासिल करने के लिए भारत के मूलनिवासियों के संघर्षों की अगुवाई की थी।”
उन्होंने कहा, “महिषासुर को एक शैतान के रूप में ग़लत दर्शाया गया, क्योंकि वो ऊंची जाति से नहीं थे। चामुंडी हिल्स के शिखर पर लगी महिषासुर की मूर्ति में बदलाव के लिए मैं आम लोगों और अकदामिक जगत के लोगों से मशविरा करूंगा। वो एक बौद्ध राजा थे, जिन्होंने मैसूर में विकास की कई परियोजनाएं शुरू की थीं।“

वहीं उरिलिंगीपेड्डी मठ के स्वामी ज्ञानप्रकाश ने अपने संबोधन में महिषा को अपना रक्षक और एक महान राजा बताया, जिन्होंने ऐतिहासिक बौद्ध विरासत का प्रतिनिधित्व किया।
इसके पहले पुस्तक प्राधिकार के पूर्व अध्यक्ष और लेखक बंजागेरे ने कार्यक्रम की शुरुआत भारतीय संविधान की भूमिका पढ़कर की।
उन्होंने कहा, “ये आर्य ही थे, जिन्होंने महिषा को शैतान के रूप में चित्रित किया, जबकि वे एक महान राजा थे और इस इलाक़े की रक्षा की। बाहर से आये आर्यों ने खेती के लिए जंगलों को नष्ट करने की कोशिश की। जब महिषा ने आर्यों की इस कोशिश का विरोध किया, तो उन्होंने उन्हें शैतान के रूप में प्रचारित किया। आर्यों ने चामुंडी को, जोकि उस इलाके में समुदाय की नेता थीं, महिषा को मारने के लिए भड़काया। बाद में आर्यों ने चामुंडी को देवी के रूप में स्थापित किया और इस पहाड़ी का नाम उनके नाम पर रख दिया। तब तक इस पहाड़ी की ख्याति महाबलागिरी के रूप में प्रचलित हो गई थी। आर्यों ने उन मूल निवासियों का बहिष्कार किया जिन्होंने उनके सामंती और जातिवादी, साजिश और उत्पीड़न करने के रवैये की मुख़ालफ़त की। राजा अशोक के ज़माने के शिलालेखों में महिषा के नाम का ज़िक्र है, जो महिषा की अहमियत को साबित करता है। किसी भी शिलालेख में उत्तर भारत के किसी राज़ा का ज़िक्र नहीं है।“

मीडिया विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर बी.पी. महेश चंद्र गुरु ने कहा, “असुर शैतान नहीं थे। उन्होंने समाज की और मानवीय मूल्यों की रक्षा की। चामुंडी एक बुरा प्रतीक था। शैतान के रूप में महिषा को चित्रित करने के पीछे वैदिक ताक़तें थीं, जिन्होंने आम जनता पर ये थोपा।”
महिषा के बौद्ध राजा होने की जारकिहोली की बातों का समर्थन करते हुए प्रोफेसर गुरु ने कहा, “इस इलाके में बौद्ध धर्म का प्रचार करने और न्याय पूर्वक शासन करने के लिए अशोक महान ने उन्हें ईसापूर्व तीसरी शताब्दी में भेजा था।“

चामुंडेश्वरी की ‘नाडा देवाथे‘ (भूमि की देवी) की आम धारणा का खंडन करते हुए प्रोफ़ेसर महेश चंद्र गुरु ने कहा, “वो एक देवी थीं, जिन्हें स्थानीय स्तर पर मारम्मा के नाम से जाना जाता था। ब्राह्मणवादी ताक़तों ने ही उन्हें इलाके की ‘नाडा देवाथे‘ के रूप में प्रचारित किया…हम महिषा उत्सव में उस महान शासक की विरासत को याद कर रहे हैं, जो मानवता के लिए खड़ा हुआ।“ उन्होंने मैसूर शहर के केंद्र में एक बौद्ध भिक्षु के रूप में महिषा की प्रतिमा लगाए जाने और मैसूर विश्वविद्यालय का नाम ‘महिषा विश्वविद्यालय‘ करने की मांग की।
लेखक और प्रोफेसर के.एस. भगवान ने भी प्रो. गुरु की मांग का समर्थन करते हुए पहाड़ी के ऊपर लगे महिषासुर की मौजूदा प्रतिमा को हटाने की मांग की। उन्होंने कहा, “मौजूदा मूर्ति की जगह, महिषा को एक बौद्ध भिक्षु के रूप में दर्शाती हुई मूर्ति लगानी चाहिए। इतिहास हमें बताता है कि महिषा एक दयालु शासक थे, जो मानवीय थे और जिन्होंने समाज के कल्याण के लिए काम किया। अगर वो शैतान होते तो मैसूर का नाम उनके सम्मान में क्यों रखा जाता?”

प्रोफ़ेसर के.एस. भगवान ने कहा, “स्कूल और कॉलेजों में इतिहास के रूप में जो कुछ पढ़ाया जाता है उसका क़रीब क़रीब आधा हिस्सा झूठ होता है। जबकि सच पढ़ाने की ज़रूरत है। मैसूर मूल रूप से महिषा मंडला कहलाता था। महिषासुर एक महान व्यक्ति थे और उनका नाम आज भी ज़िंदा है। वो एक शैतान थे, ये एक ग़लतफहमी है। देश में सभी धर्मों का अस्तित्व परस्पर शांति पूर्वक होना चाहिए। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि महिषा को कलंकित किया जाए। हम किसी का विरोध नहीं करते, बल्कि हम मूलनिवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।“
इस मौके पर बंजागिरी, प्रोफ़ेसर के.एस. भगवान, जनानाप्रकाश, बासवा लिंगामूर्ति, हाजी मूलिस्था चिस्ती और अन्य लोगों ने तर्कवादी सिद्धास्वामी द्वारा लिखित किताब ‘बौद्ध राजा महिषासुर‘ का विमोचन किया।

चामुंडी हिल्स पर आयोजित इस कार्यक्रम के मुख्य मंच को कर्नाटक में सामाजिक न्याय के नायक ‘बासवालिंगप्पा‘ को समर्पित था। मंच का नामकरण उनके नाम पर ‘बासवालिंगप्पा‘ रखा गया था।
बताते चलें कि बासवा ने भूमि सुधार को लागू किया था और हाथ से मैला उठाने की प्रथा को ख़त्म किया था। उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी कर्नाटक में तार्किकता को बढ़ावा देने और दलित-बहुजनों के सशक्तिकरण में लगा दी।
कार्यक्रम को स्वामी ज्ञानप्रकाश, प्रोफ़ेसर नानजाराजे उर्स, पूर्व एमएलसी पुट्टासिद्दा शेट्टी, के.एस. शिवाराम, नंदा महिषा, पूर्व मेयर पुरुशोत्तम, बी.एम. महादेवामूर्ति, एस.डी.पी.आई. (सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ इंडिया) के नेता पुट्टानानैया, बीएसपी (बहुजन समाज पार्टी) नेता मांड्या कृष्णमूर्ति, डी.एस.एस. (दलित संघर्ष समिति) के कार्यकर्ता हरिहरा आनंदस्वामी, सामाजिक कार्यकर्ता भारत रामास्वामी, पत्रकार सोमैया मालेयूरु, ए.पी.एम.सी. (एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी) के अध्यक्ष जावारप्पा, लेखक हारोहाल्ली राविंदा, जाग्रुति ऑन लाइन के समाचार संपादक बालाजी काम्बले, लेखक प्राज्वल शिशि (बुद्ध एंड अम्बेडकर एसोसिएशन, नांजांगुड) बैंगलुरु सिद्धार्थ, शांताराजू (ऑनरेरी प्रेसिडेंट, दलित वेलफेयर ट्रस्ट), प्रोफ़ेसर टी.एम. महेश (दलित वेलफेयर ट्रस्ट के अध्यक्ष), सिद्दारामा शिवायोगी, बासवा लिंगामूर्ति, हाजी मूलिस्था चिस्ती, डॉ. मंगलामूर्ति, महादेवामूर्ति, महादेवास्वामी (रिसर्च स्कॉलर एसोसिएशन के प्रेसिडेंट), डॉ श्रीनिवास, डॉ. महादेवस्वामी, डॉ निंगाराजू, रमेश, डॉ. दिलीप कुमार, एम.नारासैया, गौथम देवानूर, गुरुमूर्ति, महेश सोसाले (मैसूर यूनिवर्सिटी दलित स्टूडेंट फ़ेडरेशन के ऑनरेरी कन्वीनर), खलील (एस.डी.पी.आई. नेता), कृष्णमूर्ति और सोसेल सिद्दाराजू (बीएसपी नेता) और दलित माइनॉरिटीज़ संघ, गुलबर्ग के कार्यकर्ता आदि की उपस्थिति ने आयोजन को और यादगार बना दिया।
(अंग्रेजी से अनुवाद : संदीप, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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