सबसे पहले डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था – “संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ”। जब उन्होंने यह नारा दिया था उनका इशारा देश के पिछड़ा वर्ग पर था। वे विभिन्न जातियों में बंटे पिछड़ा वर्ग को यह अहसास कराना चाहते थे कि वह लोकतंत्र में अपनी शक्ति को पहचाने। दलित राजनीति पहले से ही देश में मुखर थी। लेकिन बाद के दिनों में जगदेव प्रसाद ने नया नारा दिया – “सौ में नब्बे भाग हमारा है, नब्बे पर दस का शासन नहीं चलेगा”। उनके इस नारे में पूरा बहुजन समाज था। पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और और अनुसूचित जनजाति वर्ग।
नब्बे के दशक में मंडल कमीशन की अनुशंसा लागू होने के बाद ओबीसी वर्ग की राजनीति ने नया शक्ल अख्तियार किया। हुआ यह कि विभिन्न राज्यों में ओबीसी के नेतृत्व में बहुजन एका बनी। फिर चाहे वह बिहार हो या फिर उत्तर प्रदेश। मध्य प्रदेश में भी इसका व्यापक असर देखने को मिला।
देश में अगले साल लोकसभा चुनाव होने हैं। वहीं पांच राज्यों में चुनाव की उद्घोषणा हो चुकी है। मिजोरम को छोड़ शेष चार राज्यों यथा तेलंगाना, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बहुजन राजनीति इस हद तक हावी है कि कोई भी पार्टी इन्हें नजरअंदाज करने का जोखिम नहीं ले सकती है।
इस रिपोर्ट में हम मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की चर्चा करेंगे जहां बहुजन राजनीति सिर चढ़कर बोल रही है। सबसे पहले चर्चा मध्य प्रदेश की। पिछले पंद्रह वर्षों से यहां शिवराज सिंह चौहान की हुकूमत है जो स्वयं ओबीसी से आते हैं। 2013 में हुए विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर निगाह डालें तो भारत के इस प्रदेश में चुनावी गणित को समझना आसान हो जाएगा।
मध्य प्रदेश में सरकार उसी की जो दे बहुजनों को प्राथमिकता
मध्य प्रदेश में कुल 230 विधानसभा क्षेत्र हैं। वर्गवार बात करें तो यहां बहुजन मतदाताओं की हिस्सेदारी 81 प्रतिशत है। इसमें अल्पसंख्यक शामिल नहीं है। बीते चुनाव में बहुजनों के अधिकाशं वोट भाजपा के खाते में गये। एक वजह यह भी रही कि भाजपा ने 35 फीसदी सीटों पर ओबीसी उम्मीदवारों को मौका दिया था। जबकि कांग्रेस ने 27 फीसदी सीटों पर ओबीसी उम्मीदवार उतारा था। कांग्रेस और भाजपा को प्राप्त मतों में इसका अंतर भी साफ-साफ दिखा। भाजपा को कुल 44.9 फीसदी मत मिले थे जबकि कांग्रेस को 33.7 फीसदी। सीटों के लिहाज से बात करें तो भाजपा ने 71.7 फीसदी सीटों पर जीत हासिल किया। वहीं 25.2 प्रतिशत सीटों पर जीत मिली।

इन आंकड़ों को ध्यान से देखें तो मध्य प्रदेश में राजनीति बिसात पर बिछाये जा रहे मोहरों और चली जा रही चालों को आसानी से समझा जा सकता है। एक बार फिर भाजपा ने शिवराज सिंह चौहान में विश्वास व्यक्त किया है। उमा भारती जैसे नेताओं को इस बात के लिए तैयार किया जा रहा है कि वे भी चौहान को अपना समर्थन दें। लेकिन इस बार दो पेंच फंस गये हैं।
पहला तो यह कि कांग्रेस बहुजन मतदाताओं को ध्यान में रखकर गठबंधन कर रही है। इसमें उसे एससी-एसटी एक्ट को लेकर मचे बवाल से मदद मिल रही है। केंद्र सरकार द्वारा एससी-एसटी एक्ट संशोधन विधेयक लाए जाने और उसे कानून बनाये जाने से सवर्ण नाराज हैं। इसकी मुखर अभिव्यक्ति सवर्णों द्वारा भारत बंद के दौरान दिखी थी। बाद में शिवराज सिंह चौहान ने सवर्णो को खुश करने के लिए मध्य प्रदेश में इस कानून को कमजाेर करने को लेकर बयान दिया। लेकिन उनके बयान का असर न तो सवर्णों पर हुआ है और न ही बहुजनों पर। सवर्ण तो इस कदर नाराज हैं कि शिवराज सिंह चौहान की प्रचार गाड़ी पर पत्थर फेंके जा रहे हैं।
दूसरी ओर जय आदिवासी युवा शक्ति जैसे संगठनों का असर भी साफ देखा जा सकता है। राज्य में कुल 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। इसके अलावा माना जाता है कि 35-38 सीटों पर आदिवासियों का वोट निर्णायक है। यही कारण है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों आदिवासियों को मनाने में जुटे हैं।
इसके पहले अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी कर्मचारी संघ(अजाक्स) ने सूबे की राजनीति में यह कहकर चिंगारी सुलगा दी कि बहुजन सवर्ण उम्मीदवारों को वोट न करें। इस आह्वान का असर भी इस बार के चुनाव पर पड़ना लाजमी है।
छत्तीसगढ़ में भी बहुजन मतदाताओं पर निगाहें
मध्य प्रदेश को ही विभाजित कर बनाये गये प्रांत छत्तीसगढ़ में ओबीसी और आदिवासी आवाजें मुखर हो गयी हैं। यहां भी बहुजन मतदाताओं की हिस्सेदारी 91 फीसदी है। इनमें 46.1 प्रतिशत ओबीसी, 31.1 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति और 14.2 प्रतिशत मत अनुसूचित जाति के मतदाताओं का है। 2013 में हुए चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच बहुजन मतों का बंटवारा हुआ। दोनों के बीच अंतर एक प्रतिशत से भी कम केवल 0.7 फीसदी था। भाजपा को 41 प्रतिशत और कांग्रेस को 40.3 प्रतिशत मत मिले थे। लेकिन 0.7 फीसदी का अंतर कांग्रेस को इतना भारी पड़ा कि उसे केवल 43.3 प्रतिशत सीटें मिली और भाजपा को 54.4 प्रतिशत सीटें।

मध्य प्रदेश के जैसे यहां भी बहुजन एका के प्रयास जोरों पर हैं। हाल ही में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, ओबीसी और अल्पसंख्यक मोर्चा के प्रतिनिधियों ने कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी से मिलकर साफ शब्दों में कह दिया कि यदि वे बहुजनों को अधिक से अधिक मौका दें तो इन वर्गों का वोट कांग्रेस को मिल सकता है। हालांकि अभी तक कांग्रेस के द्वारा अंतिम रूप से कोई निर्णय नहीं लिया गया है।
वहीं मायावती के युवा सिपाहसलार रहे देवाशीष जरारिया ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर बहुजन मतदाताओं में पैठ बनाने की उसकी मुहिम को तेज कर दिया है। जबकि मायावती और अजीत जोगी बहुजनों के वोटों को गाेलबंद करने काे एक हो चुके हैं। अजीत जोगी की की पाटी जनता कांग्रेस और मायावती की पार्टी बसपा ने गठबंधन का एलान पहले ही कर रखा है। मायावती 35 क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार उतारेंगी।

बताते चलें कि छत्तीसगढ़ विधानसभा की कुल 90 सीटों में 29 सीटें अनुसूचित जनजाति और 10 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। जानकार बताते हैं कि यहां 67 सीटों पर बहुजनों की सीधी दावेदारी बनती है।
राजस्थान में गहलोत बनाम सिंधिया
अब यदि राजस्थान की बात करें तो यहां ओबीसी राजनीति लंबे समय से प्रभावी रही है। वर्तमान में कांग्रेस ने अशोक गहलोत को कमान सौंप कर ओबीसी मतदाताओं के बीच एक पैठ सुनिश्चित कर ली है। यहां ओबीसी मतदाताओं की कुल हिस्सेदारी 45.5 फीसदी है। इसमें यदि एससी के 19.1 और एसटी के 14.3 प्रतिशत मतदाताओं को जोड़ दें तो बहुजन मदताओं का कुल योग 78.8 प्रतिशत हो जाता है। यहां की राजनीति इसी आंकड़े के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस के पक्ष में।
मसलन 2013 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अशोक गहलोत को किनारे करने का फैसला महंगा पड़ा था। उसे भाजपा से 12.1 प्रतिशत कम वोट मिले। यह एक बड़ा अंतर साबित हुआ। भाजपा को 81.5 प्रतिशत सीटों पर जीत मिली और कांग्रेस को केवल 10.5 प्रतिशत।

लेकिन इस बार जिस तरह से ओबीसी, दलित और आदिवासी मुखर हुए हैं, 2013 को फिर से दुहराना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा। यह इसलिए भी कि वसुंधरा राजे सिंधिया बहुजनों को पिछले पांच वर्षों में आकर्षित कर पाने में विफल रही हैं।
बहरहाल, इन राज्यों के चुनाव परिणाम जब सामने आयेंगे तब यह भी स्पष्ट हो सकेगा कि बहुजनों की एकता की दशा और दिशा क्या है। इसका असर अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव पर होगा ही।
(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ)
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