बीते दिनों गुजरात में एक वर्ष के बच्चे के साथ किया गया कुकृत्य हैवानियत को प्रदर्शित करता है। पुलिस ने इस प्रकरण में बिहार के एक युवक को हिरासत में लिया है। अब हैवानियत का शिकार वे सब हो रहे हैं जो यूपी और बिहार के हैं। उन्हें मारा-पीटा जा रहा है और गुजरात से भगाया जा रहा है। गुजरात छोड़कर जा रहे लोगों में मुख्य रूप से मजदूर, रेहड़ी-ठेला लगाकर गुजर-बसर करने वाले लोग हैं। रिपोर्टें बता रही हैं कि वहां उत्तर भारतीयों को हिन्दी बोलते ही मारा जा रहा है। कई कारखाने ठप पड़े हैं। वैसे भी गुजरात में मजबूरी के मजदूर बने कौन?
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक के कुकृत्य को प्रांत या क्षेत्र विशेष के माथे मढ़ा जा रहा है। यह समाज की अपंगता है। इससे पहले 1984 और गुजरात में ही 2002 में ऐसी घटनायें हो चुकी हैं।
गुजरात में जो अभी हो रहा है, उसके लिए कांग्रेस के विधायक अल्पेश ठाकोर और उनकी ठाकोर सेना को जिम्मेदार बताया जा रहा है। यह जांच का विषय है। सवाल उठता है कि कहीं ठाकोर महाराष्ट्र वाले बाल ठाकरे तो नहीं बनना चाहते हैं?
इस वस्तुनिष्ठ प्रश्न का पर्याय कुछ इस तरह भी गढ़ा जा सकता है-“क्या यह कांग्रेस के दोमुंहे बोल तो नहीं?”। बात जो भी हो, गुजरात के राजनीति में एक बात जाहिर है, चाहे आप बाएँ तरफ हो या फिर दाएँ, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और ब्राह्मणवाद का अविभाजित रूप या फिर कटुता का प्रतिबिंब मिल ही जाएगा।

एक बात और। बिहारी-यूपी वाले कब से इतने डरपोक हो गए? मिर्च मसाला वाले चलचित्रों में तो इन्हे ‘डॅान’ की तरह प्रदर्शित किया जाता है। कथित तौर पर माना जाता है कि प्रशासनिक सेवाओं में इनकी मेधा का जवाब नहीं। यह एक मिथ्या है जिसे मैं बिहारी होने के नाते खंडन करता हूँ। 20 करोड़ की जनसंख्या पर गिने-चुने की मेधा एक हास्य विषय है। हकीकत यह है कि बिहारियों और यूपी वालों में गिरा शिक्षा का स्तर लकवा की तरह इन्हें मारे जा रहा है। यह एक पेचीदा उलझन है, शायद हमारे पास उत्तर न हो। अगर उनको इसका बोध होता तो इन उपद्रवकारियों के झूठे राज्यवाद को कानूनियत और इज्जत से उन्हीं के पल्ले न डाल देते?
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पलायन इस वृतांत का अभिन्न हिस्सा है जो आज के मानव वृत्ति पर खरोंच जैसा ही है। मानवीय मूल्यों के ऊपर अंधराष्ट्रीयता का मंडराना कटु अनुभव के साथ विवेचनीय भी है। रोहिंग्या लोगों को भारत से खदेड़ना उन्हें मौत के मुंह में धकेलने जैसा ही है, यह मानवीय अपराध नहीं तो और क्या है? शायद गुजराती गाँधी जिंदा होते तो सत्ताधरी गुजराती से असहमत होते। क्या उन दिनों जब अमित शाह को गुजरात से निकाला दिया गया था तो वह पलायन नहीं कर रहे थे? ध्यान दें तो मालूम चलेगा कि मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनना भी पलायन ही है। तो फिर इस अमानवीय कृत्य पर चुप्पी क्यों?
क्या है पलायन? आखिर मौकों की तलाश ही तो है। अंतर यह है कि गुजराती पलायन कर विदेश जाते हैं, वहीं यूपी-बिहार के दिहाड़ी मजदूर गिने चुने महानगरों तक ही सीमित रह जाते हैं। दिलचस्पी की बात यह है कि ‘पटेल’ अमेरिका, ब्रिटेन और आयरलैंड के प्रमुख उपनामों में से एक है, वही उत्तर-पूर्व दिल्ली और सूरत के उधना में यूपी-बिहार वाले जमघट लगाते हैं।
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जहाँ संविधान की गरिमा है, उसी बिन्दु पर हम सब भी अवस्थित हैं और आंतरिक पलायन का अधिकार हमें संविधान ही देता है। इस बिन्दु से शायद फैलते विषैले राज्यवाद को भी कम करने का मौका मिले। एक गणतांत्रिक राष्ट्र में राज्य स्तरीय द्वेषपूर्ण विभाजन अमर्यादित और असंवैधानिक है। इस ध्रुवीकरण का सिर्फ राजनीतिक स्वार्थ है जिसे नेता फायदा अनुसार कुरेदते हैं। अगर वैश्वीकरण के डर से कोई बाजार को वर्ग विशेषानुसार सीमाबद्ध किया जा रहा है तो यह अर्थव्यवस्था के उद्भव का विरोध सूचक है। स्थानीय वर्ग की बात करना कोई गलत बात नहीं, आवश्यक भी है, लेकिन इसकी सीमा भी है, राज्य और केन्द्र सूची इसी को स्थापित करती है। इसका पर्याय हिंसा तो नहीं, तो फिर राष्ट्र-राष्ट्रीयता और भारत-भारतीय क्या?
जहाँ इस संवैधानिक संरचना के इतने आंतरिक शत्रु हों, वहां कारगिल से बड़ी जंग भारत को लड़नी होगी, शायद एक नहीं, बहुतेरे। यह मानसिकता की लड़ाई होगी जिसे हर भारतीय को हर एक दिन लड़ना पड़ेगा। अगर हम ऐसा करने में अक्षम रहे तो इस द्वेष का अंत मुश्किल ही नहीं बल्कि अकल्पनीय है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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