अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ (बामसेफ) के गठन के करीब चार दशक पूरे हो चुके हैं। इन चार दशकों के दौरान इस संगठन ने बहुजनों को जागरूक करने व उन्हें संगठित करने के अपने मिशन को आगे बढ़ाया है। इसका परिणाम राजनीतिक मोर्चे पर भी दिखा। दलित-बहुजन अब यह समझ चुके हैं कि वे भी शासक बन सकते हैं। हालांकि बहुजन आंदोलन, जिसकी मजबूत बुनियाद बाबा साहब डॉ. आंबेडकर ने रखी थी और उसी बुनियाद के आधार पर मान्यवर कांशीराम ने एक मजबूत आंदोलन खड़ा किया, हाल के वर्षों में उसकी तपिश कम हुई है। बामसेफ की चार दशकों की यात्रा और मौजूदा राजनीतिक परिदृश्यों के संबंध में फारवर्ड प्रेस ने बामसेफ के अध्यक्ष वामन मेश्राम से विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश :
बहुजन समाज के अधिकारों के लिए गठित बामसेफ के बैनर तले मान्यवर कांशीराम के साथ मिलकर आपने काम किया। कांशीराम जी अब नहीं रहे। आज के हालात में उस मुहिम को आप कहां पाते हैं?
देखिए, बहुजन समाज की लड़ाई की शुरुआत हम सबने बामसेफ यानी अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ से की थी और यह संगठन आज भी इस लड़ाई को जारी रखे हुए है। हां, समय के साथ लड़ाई के तौर-तरीकों में हम लोग जरूर बदलाव करते रहे हैं। जैसे अब बहुजन क्रांति मोर्चा, भारत मुक्ति मोर्चा के बैनर तले देश भर के बहुजन समाज के लोगों व संगठनों से अपील कर रहे हैं कि वे अपने बैनर, पोस्टर व अस्तित्व को बनाए रखते हुए एक छतरी (मोर्चे) के नीचे आएं, ताकि बहुजन समाज की लड़ाई पूरी ताकत से लड़ी जा सके। हमारे समक्ष चुनौतियां बड़ी हैं, लेकिन हम पीछे हटने वाले नहीं हैं।

वामन मेश्राम, राष्ट्रीय अध्यक्ष, बामसेफ
- बसपा से ठगा महसूस कर रहा बहुजन
- भ्रष्टाचार मामले के कारण बसपा में बढ़ा ब्राह्मणों का कद
- जिस जाति का विरोध, उसी जाति के लोग हो गए हैं मायावती के बाद सर्वेसर्वा
- सतीश मिश्रा की बसपा में है नंबर-दो की हैसियत
एक समय था, जब बसपा और बामसेफ एक-दूसरे के पूरक माने जाते थे। आज ऐसा नहीं लगता। इस पर आपका क्या कहना है?
आपका कहना बिलकुल सही है और जिस तरह भाजपा और आरएसएस को लोग एक-दूसरे काे अपना पूरक मानते हैं, ठीक उसी तरह बसपा और बामसेफ को भी माना जाता था। कांशीराम जी की अगुवाई में बहुजन समाज 80 के दशक में एकजुट होने लगा था। 1981 में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति और 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना कर बहुजन समाज को अधिकार दिलाने के लिए संकल्प लिया था। पिछड़े वर्ग के नेता मुलायम सिंह के साथ समझौता कर सपा और बसपा ने उत्तर प्रदेश में सरकार भी बनाई थी, लेकिन कांशीराम के नहीं रहने के बाद पिछड़ा-दलित गठजोड़ जारी नहीं रखा जा सका और यही सबसे बड़ी राजनीतिक भूल हुई। पिछड़े और दलित अलग-अलग चुनाव लड़े और आपस में वोट बंटे, जिसका फायदा ब्राह्मणवादी सोच वाली पार्टियां- भाजपा और कांग्रेस उठा ले गईं। सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की ही बात करें, तो 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा दोनों का एक तरह से सफाया हो गया।
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें
बसपा को आप करीब से जानते रहे हैं, तो आपकी नजर में इस पार्टी की मौजूदा स्थिति की मुख्य वजह क्या रही?
देखिए, यह कटु सत्य है कि जिस जाति विशेष का विरोध करने के लिए पार्टी का गठन किया गया हो, वही जब उस जाति के चंगुल में फंस जाएगी, तो भरोसा तो टूटेगा ही। बसपा के साथ भी बिलकुल वैसा ही हुआ है। क्योंकि, ब्राह्मण व ब्राह्मणवादी सोच का कांशीराम ताउम्र विरोध करते रहे। लेकिन, आज स्थिति क्या है? इसी जाति का बंदा राष्ट्रीय महासचिव बनकर पार्टी में नंबर-दो का स्थान हासिल किए हुए है।
जी हां, बिल्कुल। आपको बता दें कि यह व्यक्ति पेशे से वकील हैं और पार्टी ने उन्हें शुरू से लीगल मामलों के लिए हायर किया हुआ है। जब तक कांशीराम जी जीवित रहे, तब तक उन्हें जो जिम्मेदारी दी गई थी यानि लीगल सेल की, उन्हें वहीं तक सीमित रखा गया था। लेकिन, कांशीराम जी के नहीं रहने पर उनका हस्तक्षेप पार्टी में इस कदर बढ़ गया कि मायावती के बाद वह पार्टी के नंबर-दो की पाेजिशन के नेता हो गए।
इसकी प्रमुख वजह आप क्या मानते हैं? कहीं मायावती पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप तो वजह नहीं है?
यह पता लगाना तो आप मीडिया वालों का काम है। लेकिन, साक्ष्य को प्रमाण की जरूरत है क्या? जनता खासकर बहुजन समाज इन सभी चीजों को बड़ी ही बारीकी से देख रहा है और कहना अतिशयाेक्ति नहीं कि बसपा के भीतर ब्राह्मणों के बढ़ते कद से वे लोग (बहुजन) खुद काे ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।
ऐसे में क्या आपके पास कोई खास योजना है?
इस सवाल का जवाब हम पहले प्रश्न में ही दे चुके हैं कि हमारा संगठन भारत मुक्ति मोर्चा और बहुजन मुक्ति मोर्चा देश भर में बहुजनों को जगाने के काम में जुट गया है। जल्द ही आपको इसका रिजल्ट दिखना शुरू हो जाएगा।
इधर आप राजनीतिक रूप से भी सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। खबर आई कि आप और आपकी पार्टी शरद यादव के नवगठित दल में विलय कर रहे हैं। फिर बाद में ऐसा क्या हुआ कि आप शिवपाल यादव से मिले?
बामसेफ की विचारधारा को लागू करते हुए राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखने वाले लोगों ने बहुजन मुक्ति पार्टी बनाई और मेल-जोल उसी क्रम में हुआ होगा। लेकिन, विलय जैसी कोई बात हमारी जानकारी में तो नहीं है। हां, शिवपाल यादव से जरूर मिला था और उनसे आंदोलन के सिलसिले में जरूर बातचीत चल रही है। जल्द आपको लखनऊ में बड़े जलसे के रूप में इसका रिजल्ट देखने को मिलेगा।
शिवपाल ही क्यों, अखिलेश भी क्यों नहीं?
आपने बिल्कुल सही कहा। बड़ी लड़ाई लड़ने के लिए सबका साथ होना जरूरी है और हम तो विपक्ष के महागठबंधन के भी पक्षधर हैं। समर्थन मांगा गया, तो उस पर भी विचार का विकल्प खुला रखा है।
अंत में एक सवाल कि प्रमुख राजनीतिक पार्टियां भी दलित-पिछड़ों को लेकर काफी सीरियस हैं, चाहे वोट बैंक का ही मामला क्यों न हो?
अगर ये लोग सही मायने में बहुजनों के प्रति सीरियस होते, तो आज इस बहुसंख्यक समुदाय के लोगों को यह दिन देखना नहीं पड़ता। देश को आजाद हुए सात दशक से ज्यादा का समय बीत चुका है, लेकिन आज भी ये लोग समाज में मौजूद भेदभाव और बराबरी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जब हम समाज की प्रवृत्ति और उसकी दशा पर गौर करते हैं, तो पाते हैं कि संसाधनों और सत्ता पर कुछ लोगों का अधिकार है। बहुसंख्यक आबादी संसाधनों और सत्ता में हिस्सेदारी से वंचित है। यही वजह है कि अब भी समाज में कई तरह के वंचित तबके मौजूद हैं। फिर चाहे अनुसूचित जाति हो, अनुसूचित जनजाति हो या फिर अल्पसंख्यक समुदाय। समय-समय पर इन जाति-समुदायों को लेकर कई आयोगों का गठन हुआ है और इन सभी आयोगों ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सामान्य जाति के लोगों की तुलना में इन वंचित समूहों के लोग सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक मापदंडों पर पिछड़े हुए हैं। दलितों की बात करें तो न्यायिक व्यवस्था, नौकरशाही, सरकारी महकमों, उच्च शैक्षणिक संस्थानों, उद्योग-धंधों और मीडिया में दलितों की उपस्थिति नहीं के बराबर है। राजनीतिक दलों में भी दलितों के साथ भेदभाव होता है और शीर्ष नेतृत्व पर तथाकथित ऊंची जातियों का दबदबा रहता है। जो दलित नेता राजनीति में अपनी ताकत दिखाने की कोशिश करता है, उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है और वैसे ही दब्बू दलित नेताओं को तरजीह दी जाती है, जो पार्टी के निर्णायक मंडल में नहीं होते हैं। यानी इन्हें सत्ता में आने के बाद भी राजनीतिक दल अपने मंत्रिमंडल में महत्व नहीं देते हैं। उनके लिए सशक्तिकरण और न्याय से जुड़ा हुआ मंत्रालय एक तरह से तय होता है।
(काॅपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)
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मा0 वामन मेश्राम साहब कभी भी दलित शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं किन्तु आप ने दलित शब्द का प्रयोग किया है, क्यों ?
मा0 वामन मेश्राम साहब कभी भी दलित शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं किन्तु आपने किया है, क्यों ?
mr, vaman mesram sahab aap logo ko bhadkate hai .ye jo aap kar rahe hai vo desh droh hai aaj bjp ki hi den hai jo apne bharat ki pahchan vashva me hai kya ye galat hai
aur aapko bata du ki mai hi nahi pura desh modi ji k sath hai aur modi ji is bar bhi jitenge tum shirf bhasan dete raho