न्याय में देरी एक तरह से न्याय न होने के समान है। इसके बावजूद भारत की अदालतों में मामले लंबित होना सामान्य बात है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक आदिवासी नौजवान का मामला पिछले 10 वर्षों से मध्य प्रदेश के हाईकोर्ट में लंबित है। वह इलेक्ट्राॅनिक इंजीनियर है। उसने एमबीए भी कर रखा है। परंतु उसे नौकरी नहीं मिल सकती है, क्योंकि उसके खिलाफ आपराधिक मामला न्यायालय में लंबित है। अब इस मामले को लेकर हाई कोर्ट से निराश हो चुके आदिवासी इंजीनियर ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट ने उसे निराश नहीं किया है और उसने हाई कोर्ट को यह निर्देश दिया है कि वह इस मामले का निपटारा अधिक से अधिक छह महीने के अंदर करे।
बताते चलें कि इस मामले में संतोष के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने वाले पक्ष ने मुकदमा वापस लेने का आवेदन दे रखा है। यह भी हाई कोर्ट में विचाराधीन है।
2006 में दर्ज हुआ था मुकदमा
भारत में न्यायिक व्यवस्था की पोल खोलती यह कहानी है संतोष नामक एक आदिवासी युवक की। उसके खिलाफ धार जिले में एक प्राथमिकी 126/2006 दर्ज की गई। उस पर आरोप था कि उसने एक व्यक्ति पर धारदार हथियार से हमला किया और इस हमले में वह व्यक्ति गंभीर रूप से घायल हो गया। धार के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की अदालत ने संतोष को गुनहगार माना और 17 नवंबर 2008 को उसे पांच वर्ष के कारावास की सजा सुना दी गई। साथ ही उसे एक हजार रुपए का आर्थिक दंड दिया गया।

निचली अदालत के इस फैसले के खिलाफ संतोष ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर पीठ में अर्जी लगाई। अदालत ने उसे 25 नवंबर 2008 को 25,000 रुपए के मुचलके पर जमानत दे दी। तबसे इस मामले की सुनवाई लंबित रही। हाईकोर्ट ने करीब 10 साल के बाद 29 अक्टूबर 2018 को संतोष के मामले में संज्ञान लिया वह भी तब, जब संतोष ने हाई कोर्ट से अपने मामले की जल्दी सुनवाई के लिए अलग से अर्जी दाखिल की।
हाई कोर्ट ने नहीं सुनी अपील
हाई कोर्ट के समक्ष यह अपील की गई कि संतोष अनुसूचित जनजाति का एक बहुत ही प्रतिभाशाली युवक है, उसका भविष्य काफी उज्ज्वल है और उसे कई नौकरियां मिल सकती हैं। उसके पिता मरकानी एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे और इस अपील के अदालत में लंबित रहने के दौरान 6 सितंबर 2011 को उनकी मौत हो गई। यह भी कहा गया कि उसके पिता की मौत के सात साल के भीतर उसे अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति मिल सकती है, पर एक आपराधिक मामले में सज़ा दिए जाने के कारण वह इस मौके का फायदा नहीं उठा सका और शीघ्र ही नौकरी के लिए आवश्यक उम्र सीमा को वह पार कर जाएगा।
बहरहाल, हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ संतोष ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। बीते 19 नवंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट को इस मामले की अंतिम सुनवाई छह महीने के अंदर पूर्ण करने का निर्देश दिया है। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद संतोष को न्याय मिलने की उम्मीद बंधी है।
(इनपुट : अशोक झा / कॉपी संपादन : प्रेम)
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