आरक्षण का लाभ ही नहीं, सामाजिक जिम्मेदारी भी समझे ईबीसी
आजादी के बाद बिहार की राजनीति में सामाजिक न्याय पहली बार मुद्दा तब बना, जब मुंगेरीलाल कमीशन का गठन किया गया था। वह समय भोला पासवान शास्त्री का था। 40 साल पहले यानी मंडल कमीशन के गठन से भी आठ साल पहले। इस आयोग का गठन 1971 में हुआ और 1976 में इसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। बीते 10 नवंबर को इस आयोग के द्वारा रिपोर्ट सौंपे जाने की 40वीं वर्षगांठ के मौके पर बिहार की राजधानी पटना में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। अत्यंत पिछड़ा वर्ग पदाधिकारी एवं कर्मचारी कल्याण समिति, बिहार के संयुक्त तत्वावधान में इस गोष्ठी में पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश राजेंद्र प्रसाद, रिटायर्ड आईएएस मणिकांत आजाद, जेएनयू के प्रो. सुबोध नारायण मालाकर, पटना विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रो. शिवजतन ठाकुर, पत्रकार दिलीप मंडल, बामसेफ के वरिष्ठ नेता कुमार काले और डा. वीरेंद्र ठाकुर आदि ने भाग लिया।
पटना के बिहार उद्योग परिसंघ (बीआईए) के सभागार में आयोजित यह कार्यक्रम कई मायनों में खास रहा। यह इसलिए भी खास रहा, क्योंकि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को संवैधानिक संरक्षण के रूप में प्राप्त आरक्षण पर हमले की संस्थागत कोशिशें शुरू हो गई हैं। अटल बिहारी सरकार में संविधान समीक्षा आयोग गठित कर संविधान की प्रस्तावना और इसके मूल स्वरूप से छेड़छाड़ करने की चेष्टा की गई थी। हाल के वर्षों में संवैधानिक संस्थानों पर भी हमला शुरू हो गया है। न्यायपालिका, आरबीआई से लेकर सीबीआई तक की स्वायत्तता पर खतरा उत्पन्न हो गया है। ऐसे माहौल में अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए अति पिछड़ी जातियाें के सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता सक्रिय हो गए हैं।
मुंगेरीलाल आयोग : लागू किए जाने की घोषणा पर भड़क उठे थे सवर्ण
बताते चलें कि जून 1971 में तत्कालीन मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री ने पिछड़ी जातियों को राज्य सरकार की सेवाओं में आरक्षण देने के लिए मुंगेरीलाल की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया था। आयोग का मुख्य काम पिछड़ी जातियों की पहचान, उनकी सामाजिक व शैक्षणिक स्थिति का अध्ययन और आरक्षण के स्वरूप के संबंध में सिफारिश करना था। इस आयोग ने फरवरी, 1976 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। आयोग ने पिछड़ा वर्ग में 128 जातियों को सम्मिलित किया था। इनमें से 94 जातियों को अति पिछड़ी जाति की श्रेणी में रखा था। उस समय अति पिछड़ी जातियों की आबादी करीब 38 फीसदी बताई गई थी। 1977 में कर्पूरी ठाकुर दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने अक्टूबर, 1978 में मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की और उसी साल 10 नवंबर को आरक्षण लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी गई। तकनीकी भाषा में पिछड़ी जातियाें के लिए एनेक्चर-2 और अति पिछड़ी जातियों के लिए एनेक्चर-1 शब्द का इस्तेमाल किया गया।
कर्पूरी ठाकुर द्वारा इस पहल का तब बिहार के सवर्णों ने खूब विरोध किया था। पूरे बिहार में कर्पूरी ठाकुर की आलोचना की गई। तब जातिगत दंगों से पूरे बिहार में कोहराम मच गया था। सवर्णों द्वारा कर्पूरी ठाकुर को गालियां तक दी गई थीं।
गोष्ठी में अति पिछड़ा वर्ग के हितों पर विचार-विमर्श
गोष्ठी दो सत्रों में विभाजित थी। पहले सत्र का मुद्दा था- ‘आरक्षण की चुनौती’, जबकि दूसरे सत्र का मुद्दा था- ‘अति पिछड़ा समाज, बौद्धिक चिंतन’। इस मौके पर लगभग सभी वक्ताओं ने इस बात पर एक राय रखी कि आरक्षण का लाभ उठा रहे लोगों को आरक्षण के लाभ काे ही नहीं, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी को भी समझना होगा। यदि आरक्षण का लाभ उठाकर समाज से कट जाएंगे, तो आप आरक्षण की लड़ाई को भी मजबूती से नहीं लड़ पाएंगे।
बिहार के 12 में से सात विश्वविद्यालयों के कुलपति राजपूत
पटना विश्वविद्यालय के प्रो. शिवजतन ठाकुर ने साफ शब्दों में कहा कि यदि आरक्षण का अधिकार छीना जाता है, तो इसके लिए हम खुद जिम्मेदार होंगे। हम अपने अधिकारों की रक्षा के लिए जागरूक नहीं हुए और अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़े, तो आरक्षण को बचाना मुश्किल होगा। उन्होंने कहा कि संवैधानिक प्रावधानों के साथ नियम-कानून की जानकारी भी जरूरी है। बिहार लोकसेवा आयोग के पांच सदस्यों में तीन भूमिहार हैं। बिहार के 12 विश्वविद्यालयाें के कुलपतियों में सात राजपूत जाति के हैं। इसलिए जरूरी है कि हम शिक्षा के लिए आगे आएं और संगठित हों, तभी बेहतर भविष्य की उम्मीद कर सकते हैं।
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वहीं रिटायर्ड आईएएस मणिकांत आजाद ने कहा कि आरक्षण का लाभ उठा रहे लोगों को अपने समाज और गांव से भी जुड़े रहने की जरूरत है। आरक्षण का लाभ मिला है, तो उसमें एक बड़ी भूमिका जाति की भी है। इसलिए जाति के प्रति अपनी जिम्मेदारी तथा सरोकार भी समझना होगा। यदि हम अपने लोगों के साथ भावनात्मक संबंध बनाकर नहीं रखेंगे, तो हमारी लड़ाई कमजोर हो जाएगी।
क्रीमीलेयर बौद्धिक बेईमानी
पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि देश के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती बौद्धिक बेईमानी है। ओबीसी आरक्षण में क्रीमीलेयर जोड़ना बौद्धिक बेईमानी थी और इसका खामियाजा पूरे समाज को भुगतना पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि अपना आत्मबल बढ़ाना होगा। बड़ा लक्ष्य हासिल करने के लिए बड़ा जोखिम उठाना होगा। हमारे नेता संविधान को नहीं समझते हैं, संवैधानिक अधिकारों को नहीं समझते हैं। जनता उन्हें समाज की सेवा के लिए चुनती है और नेता खुद अपनी सेवा में जुट जाते हैं।
बहुजन एकता पर जोर
पत्रकार दिलीप मंडल ने कहा कि आरक्षण के खिलाफ सजगतापूर्ण अभियान चलाया जा रहा है। इस वर्ग के लोगों को इस साजिश को समझना होगा। आरक्षण विरोधियों को जबाव देने के लिए हमें तर्क ढूंढने होंगे। अपनी बात को संविधान सम्मत बताने का आधार तलाशना होगा। ओबीसी समाज का वह वर्ग, जो आरक्षण की लड़ाई लड़ सकता है; उसे क्रीमीलेयर की शर्त लगाकर आरक्षण के दायरे से बाहर कर दिया गया। क्रीमीलेयर के नाम पर एक बड़े तबके को समाज से काट दिया गया। उन्होंने जातिवार जनगणना की मांग करते हुए कहा कि शासन के शीर्ष पर बैठे लोग जातिवार जनगणना के विरोधी रहे हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि आंकड़े उजागर हुए तो उनके आधिपत्य को चुनौती मिलेगी। दिलीप मंडल ने अपना बहुजन एजेंडा भी सेमिनार के दौरान रखा।
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें
अति पिछड़ों के मुद्दों को घोषणा-पत्र में शामिल करें पार्टियां
जेएनयू के प्रो. सुबोध नारायण मालाकार ने कहा कि समाज हित पर हो रहे कुठाराघात को समझना होगा। जातिवादी दर्शन के खिलाफ खड़ा होना होगा। उन्होंने पार्टियों के घोषणा-पत्र में अति पिछड़ों के मुद्दों को शामिल करने की मांग भी की।
बहरहाल, गोष्ठी में यह बात खुलकर सामने आई कि भूतपूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर अति पिछड़ी जातियों को सशक्त बनाने और उनमें अधिकार बोध पैदा करने के लिए लगातार प्रयत्नशील रहे। मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशाें को लागू करना उसी का हिस्सा था। इसी का परिणाम है कि अति पिछड़ी जातियों के लोग अपने अधिकार को लेकर चेतनशील हो रहे हैं। अपने मुद्दों पर विमर्श कर रहे हैं। इसे कर्पूरी ठाकुर के सपनों का विस्तार भी कहा जा सकता है।
(काॅपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)
आलेख परिवर्द्धित : 19 नवंबर, 12:05 PM बजे
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