दिल्ली के सियासी गलियारे में चल रहीं कयासबाजियां एक बार फिर सत्य साबित हुईं। केंद्र सरकार ने ओबीसी के उप वर्गीकरण के लिए गठित जी. रोहिणी आयोग के कार्यकाल को 31 मई 2019 तक बढ़ा दिया है। सियासी गलियारे में इस बात की चर्चा पहले से ही थी कि भाजपा नीत एनडीए सरकार के लिए ओबीसी का उप वर्गीकरण एक दोधारी तलवार है। इसके लिए वह फूंक-फूंककर कदम रखेगी। वह यह भी देखेगी कि इस आयोग की रिपोर्ट का राजनीतिक लाभ मिल सकता है या नहीं?
22 नवंबर 2018 को हुई केंद्रीय मंत्रिपरिषद की बैठक में इसकाे लेकर निर्णय लिया गया। इससे पहले इसी वर्ष अगस्त में केंद्रीय मंत्रिपरिषद ने आयोग के कार्यकाल को नवंबर तक बढ़ाया था। तब यह बताया गया था कि आयोग 30 नवंबर 2018 तक आयोग अपना प्रतिवेदन सरकार को सौंप देगा।
आयोग के मुताबिक, सर्वेक्षण, अध्ययन और दौरे आदि के माध्यम से ओबीसी संगठनों, संघ व राज्यों, शैक्षणिक संस्थानों और संबंधित व्यक्तियों से डाटा व सूचनाओं के संग्रह का कार्य पूरा हो चुका है। लेकिन, क्रॉस-चेकिंग तथा रिपोर्ट तैयार करने के लिए इसे और अधिक समय चाहिए।

हालांकि, इससे पहले भी इस आयोग की अवधि का विस्तार किया गया था। जबकि जब इसका गठन किया गया था, तब सरकार को यह उम्मीद थी कि आयोग 10 सप्ताह के अंदर अपना रिपोर्ट देगा। इसके बाद ओबीसी का उप वर्गीकरण का रास्ता साफ हो जाएगा।
बताते चलें कि केंद्र सरकार ने ओबीसी के उप वर्गीकरण का फैसला इसलिए लिया है, क्योंकि वह मानती है कि ओबीसी को मिलने वाले 27 प्रतिशत का लाभ ओबीसी में शामिल संपन्न जातियों के लोग ले लेते हैं। इसका लाभ उन्हें नहीं मिल पाता, जिन्हें इस आरक्षण की सबसे अधिक आवश्यकता है। इसके लिए सरकार द्वारा 2 अक्टूबर 2017 को दिल्ली उच्च न्यायालय की सेवानिवृत्त न्यायाधीश जी. रोहिणी की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया था।
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उन दिनों केंद्र सरकार के इस फैसले पर कई सवाल भी खड़े किए गए थे। कहा जा रहा था कि ओबीसी का उप वर्गीकरण के बहाने भाजपा ओबीसी की राजनीतिक एकता को खंडित करना चाहती है। ऐसा कहने वालों में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव शामिल थे। हालांकि, इस मामले में ओबीसी से आने वाले किसी भी अन्य नेता ने सरकार के इस फैसले का विरोध नहीं किया था।
(कॉपी संपादन : प्रेम)
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