नई दिल्ली के गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी के कानून के विद्यार्थियों से पूछे गए एक सवाल पर काफी चर्चा हो रही है। यह सवाल इस प्रकार था – “अहमद नाम का एक मुसलमान, सरे बाजार एक गाय को तुषार, मानव और राहुल नामक हिंदू समुदाय से आने वाले हिंदू समुदाय के लोगों के सामने मार डालता है। क्या अहमद ने कोई अपराध किया है? इस पर सुसंगत कानूनों तथा मुकदमों के आलोक में निर्णय करें।” पांच अंकों के इस प्रश्न में परीक्षार्थी से आशा व्यक्त की गई थी कि वह कुछ शब्दों में इससे संबंधी कानूनी प्रावधानों को बताते हुए इसके संबंध में अपनी व्याख्या प्रस्तुत करेगा।
इस सवाल पर हो रही क्रिया-प्रतिक्रियाओं ने कई सवालों को जन्म दिया है। कुछ लोग इस प्रश्न पर कड़ी प्रतिक्रिया व आपत्ति व्यक्त कर इसे सद्भाव व सौहार्द्र बिगाड़ने वाला करार दे रहे हैं ताे दूसरी ओर दिल्ली सरकार ने भी इसे गंभीरता से लेते हुए एक कमेटी गठित कर दी है जो इस पूरे मामले की जांच करेगी।

सवाल से उठते सवाल
इस गहमागहमी के बीच पहला प्रश्न तो यही उठता है कि प्रश्न पत्र में पूछी गई बात आपत्तिजनक किस प्रकार है? क्या यह बात कानून के विद्यार्थियों को नहीं जाननी चाहिए? क्या देश को इस पर विचार नहीं करना चाहिए कि धार्मिक आस्था और खान-पान की आदतों के संबंध में हमारे कानूनी और नैतिक दायरे क्या हैं? मनुष्य और पशु में से हमारे लिए कौन अधिक महत्वपूर्ण है?
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आनन फानन में की गई जांच कमेटी गठित
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आईपी विवि ने कहा, उक्त सवाल की नहीं होगी मार्किंग
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दिल्ली के उपमुख्यमंत्री भी अपने स्तर से करा रहे जांच
इसके अलावा यह भी कि एक मुसलमान, अगर ईसाई के सामने गाय को मार डाले तो वह अपराध है या नहीं? अगर हिंदू हिंदू के सामने गाय काट डाले तो कानून की राय में वह क्या है? कोई अकेले में गाय काटता हो तो उसे गुनाह माना जाएगा या नहीं? जानवर के चमडे से जीविका चलाने वाला कोई दलित अगर गाय मार डालता है, तो उसे मुसलमान के बराबर दोषी माना जाएगा, या कम? कोई पंडित जी अगर बूचड़खाना चलाते हों और वहां गाएं भी कटती रहीं हों तो उन्हें बराबर सजा मिलेगी, या दलित की तुलना में कम मिलनी चाहिए? इस देश में ऐसे आदिवासी समुदाय जो विभिन्न जानवरों व वनस्पतियों को पूज्य मानते हैं। इनमें भेड, बकरी, गौरैया, तोता, मोर, विभिन्न प्रकार के सांप, उल्लू, कद्दू, करेला आदि शामिल हैं। इन्हें मारने-काटने पर उन समुदायों के भावनाएं आहत क्यों नहीं होतीं? इस देश में द्विज हिंदू प्रभावशाली हैं। शायद इसलिए उनकी भवानाएं भी अधिक जोर मारती हैं। जो कमजोर हैं, अल्पसंख्यक हैं, उनकी भावनाओं के लिए हमारे कानूनों में क्या प्रावधान हैं?
हमें किन-किन सवालों से आंख मिलानी चाहिए और किन-किन सवालों से आंखें चुरा लेनी चाहिए? इन प्रकार के सवालों से भागना कुछ लोगों व दलों के लिए भले ही राजनीतिक रूप से फायदेमंद हो, लेकिन हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक लोकतंत्र को इस प्रवृत्ति से फायदा होता है या नुकसान? यह धर्मनिरपेक्षता है या धर्मभिरूता तथा अंधविश्वासों का पोषण?
क्या है घटनाक्रम?

उपरोक्त सवाल बीते 7 दिसंबर 2018 को दिल्ली के गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी के थर्ड सेमेस्टर के ‘लॉ ऑफ क्राइम-1’ पेपर में पूछा गया था। सवाल को सांप्रदायिक रंग में रंगे जाने की आशंका को देखते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन ने आनन-फानन में उस प्रश्न को अमान्य मानते हुए मार्किंग नहीं करने का फैसला ले लिया है।
इस मामले पर विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार सतनाम सिंह का कहना है कि उनकी तरफ से एडवाइजरी जारी कर दी गई है कि इस तरह के प्रश्न नहीं पूछे जाएं। गड़बड़ी कहां से हुई है और आगे इसकी पुनरावृत्ति नहीं हो इसका खासतौर पर ध्यान रखा जाएगा। लेकिन दिल्ली के उपमुख्यमंत्री सह शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने भी इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उन्होंने इस मामले को अपने स्तर से जांच करवाने की बात कही है। साथ ही कहा है कि इस तरह की बातों से समाज के सद्भाव को ठेस पहुंचने का खतरा रहता है। जांच में जिस किसी की गलती पाई गई तो उस पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी।
सवाल उठाने वालों की दलील
सुप्रीम कोर्ट के एक वकील बिलाल अहमद खां ने अपने ट्वीटर पर उक्त प्रश्न का स्क्रीन शॉट डालकर सवाल किया है कि क्या इस तरह के सवाल पूछकर एक समुदाय विशेष को टारगेट नहीं किया गया है? इससे युवा लीगल माइंड पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा? इस पर ढेरों जवाब आए हैं जिनमें से ज्यादातर में कड़ी आपत्ति व्यक्त की गई है लेकिन कुछ लोगों का यह भी कहना है कि जो प्रश्न पूछे गए हैं, उसे उस नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। प्रश्न के मजमून पर गौर करेंगे तो महसूस करेंगे कि अदालतों में इस तरह की बातें आए दिन सुनने को मिलती है और बचावकर्ता के वकील व अपीलकर्ता के वकील अपने तर्कों से अपने-अपने मुवक्किल की बात रखते हैं। इसलिए वकील बनने से पहले अगर यह सवाल पूछ लिया गया तो उसे उस नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि उसका मकसद लॉ छात्रों की तार्किक क्षमता को परखना है।
क्या कहते हैं विधि विशेषज्ञ?
इस बाबत सुप्रीम कोर्ट के वकील जीतेंद्र कुमार सिंह से जब इस मामले में उनका रुख जानने की कोशिश की गई तो उन्होंने कहा कि “यह अकादमिक विमर्श का विषय है। इसे धर्म व संप्रदाय से जोड़ना गलत है। कानून की पढ़ाई कर रहे छात्रों की तार्किक क्षमता को देखना, समझना व जांचना ही इसका एकमात्र मकसद है। अगर किसी जज के सामने ऐसा मामला आए तो वह सबसे पहले यह देखेंगे कि आरोपित के खिलाफ कौन-कौन सी धाराएं लगाई गई हैं। हिन्दू हो या मुस्लिम किसी के सामने गाय की हत्या की गई हो, लीगल इश्यू हत्या है और वह भी सार्वजनिक स्थान पर। इसके अलावा एनिमल क्रूअल्टी का भी मामला बनता है। चाहे आरोपी किसी भी जाति, धर्म व संप्रदाय का क्यों ना हो। इसके साथ-साथ यह भी देखा जाएगा कि क्या जिस राज्य का यह मामला है, वहां कहीं गाय काटने पर बैन तो नहीं है और अगर है तो आरोपी के खिलाफ यह मामला भी बनेगा। इतना ही नहीं, पुलिस चाहे तो सार्वजनिक स्थान पर इस तरह की कार्रवाई यानी घटना को अंजाम देने पर साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने की धाराएं भी लगा सकती है।”
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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