एडवांस स्टडीज, शिमला में ‘उत्तर भारत में दलित आंदोलन’ पर संगोष्ठी
बीते 28 नवम्बर 2018 को भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला में तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस मौके पर बुद्धिजीवियों ने एक स्वर में यह माना कि सामाजिक शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति ही दलित आंदोलन का उद्देश्य है। ‘उत्तर भारत में दलित आंदोलन : सिद्धांत, व्यवहार एवं चुनौतियां’ विषयक संगोष्ठी में जिन तीन बातों पर विचार-विमर्श किया गया उनमें दलित समुदाय से जुड़े मुद्दों को समाजशास्त्रीय ढंग से देखना, दलितों के जीवन में आ रही कठिनाइयों और चुनौतियों की पहचान करना और समाज तथा सरकार को लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के उपाय सुझाना शामिल था।
संगोष्ठी में सभी वक्ता इस बात पर लगभग एकमत थे कि भारत में दलित आंदोलन की अवधारणा का आरम्भ गुलामी से मुक्ति की आंकाक्षाओं से हुआ है। इस संदर्भ में दलित आंदोलन ने न केवल दलित मुक्ति का प्रस्ताव रखा बल्कि उत्पीड़न और दमन की पीड़ा के शिकार आमजनों की मुक्ति की राह भी खोली है। यह दलित राजनीतिक चेतना जहाँ एक तरफ इतिहास और संस्कृति से निकली है वहीं यह मौजूदा समय के सामान्य नजरिये से ऊर्जा ग्रहण करती है। इसे डॉ. आंबेडकर के लेखन और उनकी राजनीति में देखा जा सकता है।

संगोष्ठी के दौरान उत्तर भारत में दलित आंदोलन के विभिन्न आयामों पर विचार किया गया। मसलन दलित आंदोलन का क्या इतिहास रहा है? यह आंदोलन किन सिद्धांतों/विचारधाराओं/दृष्टिकोणों पर आधारित रहे हैं और इन्होंने दलित आंदोलन को कैसे रूप दिया और उसे आगे बढ़ाया है? इसके अलावा उनका वास्तविक अनुभव क्या रहा है? उन्होंने किन समस्याओं का सामना किया है और उससे किस प्रकार मोलभाव किया है? और इससे उन्हें किस प्रकार की सफलताएं मिली हैं? मुख्यधारा की राजनीति से दलित आंदोलन और दलित प्रश्न का संबंध कैसा रहा है? दलित आंदोलन की विविधता का क्या अर्थ और परिणाम रहा है?
सामाजिक शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति ही दलित आंदोलन का उद्देश्य
संगोष्ठी का उद्घाटन हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर सिकंदर कुमार द्वारा किया गया। उन्होंने कहा कि सबको साथ लेकर ही एक समतापूर्ण समाज बनाया जा सकता है। लेकिन इसके पहले मनुष्य निर्मित अत्याचार, अपमान को मिटाना होगा। उन्होंने आगे कहा कि हमें समाज को समतामूलक समाज के निर्माण के लिए जाति व्यवस्था के रोग को मिटाना होगा, भेदभाव को खत्म करना होगा। बुखार होने पर सब लोग पैरासीटॉमोल खाते हैं। इसका मतलब है कि सबका खून एक जैसा है, तो फिर मानवीय जीवन में इन्सानों के बीच भेदभाव भी नहीं होना चाहिए। इसके साथ उन्होंने यह भी कहा कि अकादमिक जगत को दलित उत्पीड़न और शोषण को लेकर होने वाली रोज़मर्रा की घटनाओं के साथ भी सहभागिता करनी होगी। तभी इस तरह के अकादमिक विमर्श सामान्य जनों के लिए उपयोगी हो पाएंगे। जब सैद्धांतिकी और रोज़मर्रा की घटनाएं अकादमिक विमर्श का हिस्सा होंगी। अकादमिक शोधार्थियों को भी इस बात पर गौर करना होगा। उत्पीड़न के गहन पक्षों को समझने और जानने के लिए सैद्धांतिकी के साथ ही साथ व्यावहारिक सच्चाईयों और चुनौतियों को भी अकादमिक विमर्श में स्थान देना पड़ेगा।
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें
इस मौके पर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर विवेक कुमार द्वारा बीज वक्तव्य दिया गया। उन्होंने कहा कि समाजशास्त्र को दलित समाज की सच्चाइयों को अनुभव आधारित होना है, उसे और नयी प्रविधियां अपनानी है। उन्होंने स्पष्ट किया कि दलित आंदोलन के आने से जातिवाद नहीं बढ़ा है बल्कि इसके आने से राजनीति में वे लोग शामिल हुए हैं जो पीछे छोड़ दिए गए थे। इसके साथ ही साथ उन्होने इस बात पर भी बल दिया कि सामाजिक आंदोलनों को देखते समय उनका अध्ययन करते समय शोध की नई ठोस और वस्तुगत सच्चाईयों को ध्यान में रखना होगा।

उद्घाटन सत्र के दौरान समाजशास्त्री प्रोफेसर आनंद कुमार और पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. संजय पासवान ने विशेष व्याख्यान दिया। वहीं गोबिंद बल्लभ पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक एवं प्रसिद्ध समाज विज्ञानी बद्री नारायण द्वारा समापन वक्क्तव्य दिया गया।
दलित आंदोलन के विभिन्न आयामों पर विचार-विमर्श
संगोष्ठी के दूसरे सत्र “पोलिटिकल इकॉनमी ऑफ एमेन्शिपेशन” की अध्यक्षता और संचालन बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ के समाज़शास्त्री प्रोफेसर बी. बी. मलिक द्वारा की गई। इस सत्र में तीन प्रस्तुतीकरण सम्पन्न हुये। प्रथम प्रस्तुति गिरि विकास अध्ययन संस्थान लखनऊ के समाज विज्ञानी डॉ. प्रशांत त्रिवेदी ने ‘समकालीन दलित आंदोलन की नवीन दुविधायें: सवाल दलित पूँजीवाद का’ विषय पर अपना पत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने दलित समुदाय और दलित आंदोलन के अंदर उभर रहे नए मध्य वर्ग के साथ ही साथ दलित बृर्जुआ की बात की। इसके साथ ही दलित मुक्ति और दलित आंदोलन को नव उदारवादी आर्थिक संदर्भों के विभिन्न परिप्रेक्ष्यों की बातें भी कही। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि आज की दलित समस्याओं को नव उदारवाद, निजीकरण एवं वैश्वीकरण की नीतियों के साथ भी देखना होगा।

युवा अध्येताओं ने रखे अपने विचार
संगोष्ठी के हर सत्र में प्रतिभागियों ने अपने विचारोत्तेजक सवालों के माध्यम से हर सत्र को वैचारिक रूप से रोचक बनाया। इन सवालों पर खुलकर विचार-विमर्श हुआ। जिससे संगोष्ठी का हर सत्र काफी रचनात्मक वैचारिक बहस-मुबाहिसें के साथ ही ज्ञान के उत्पादन का साधन बनता दिखाई दिया। इनमें जितेंद्र, अंकित, गौरव, प्रवीण, फैज़ान, देबस्मिता, कमल नयन, आकांक्षा और कंचन आदि शामिल रहे। गांधी, जोतीराव फुले-अम्बेडकर के बारे में निशिकान्त, शुभनीत और बिप्लव ने इतिहास के विमर्शों को नए स्रोतों, नए उद्देश्यों के साथ कुछ चिरन्तन प्रश्नों पर अपने विचार रखे। प्रोफेसर आनंद कुमार, और प्रोफेसर विवेक कुमार, प्रोफेसर बद्री नारायण, प्रो़फेसर अभय कुमार दुबे के पर्चों में आंदोलन के अतीत-वर्तमान और भविष्य के बारे में बातें की गईं।
संगोष्ठी का औपचारिक समापन संस्थान के सभी अधिकारियों, कर्मचारियों संगोष्ठी हेतु आए सभी अथिति अध्येताओं, विद्वानों को धन्यवाद करते हुए की गई। संगोष्ठी के संयोजक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, में फ़ेलो डॉ. अजय कुमार ने धन्यवाद ज्ञापित किया।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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