जम्मू कश्मीर के राज्यपाल सतपाल मलिक ने गरीबों व जनजाति के लिए शुरू की गई रोशनी अधिनियम को यह कह कर निरस्त कर दिया है कि यह अपने उद्देश्य में खरे नहीं उतर पायी है और मौजूदा संदर्भ में यह प्रासांगिक भी नहीं है। लेकिन इस निर्णय से बड़े पैमाने पर मुस्लिम समाज के गुज्जर और बकरवाल जनजातियों को अपने सदियों पुराने पेशे पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। क्योंकि इससे इनके पास मवेशियों को चराने के लिए जमीन नहीं रहेगी।
बताते चलें कि रोशनी अधिनियम मालिकाना हक देने के लिए लाया गया था। इसके तहत 2001 में फारूक अब्दुल्ला के कार्यकाल में फीस का निर्धारण कर स्वामित्व देने की बात थी और उस समय इसका मकसद राज्य के पावर प्रोजेक्ट के लिए फंड जेनरेट करना था।

इनकी जीवनशैली घुमंतू व खानाबदोश वाली रही है और रोशनी अधिनियम के आधार पर ही वे लोग भूमि अधिकार के लिए निर्भर करते थे। ठंढ में चारा के लिए ये लोग चले जाते हैं जम्मू के मैंदानी इलाकों की तरफ, वहीं गर्मियों मेँ वापस लौट आते हैं कश्मीर घाटी में क्योंकि तब पशुओं का चारा उपलब्ध रहता है।
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जम्मू-कश्मीर में रोशनी अधिनियम के रद्द किए जाने से उत्पन्न हुई है यह समस्या
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सैंकड़ों सालों से चारागाह के रूप में करते आए हैं उपयोग
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ठंढ में चारा के लिए जाते हैं जम्मू के मैदानी इलाकों में, गर्मियों में करते हैं वापसी
फारूख अब्दुल्ला ने किया था पहल
बता दें कि 1947 के पहले से मुस्लिम गुज्जर व बकरवाल सदियों से राज्य भूमि पर किरायेदार रहे हैं लेकिन उनके पास कभी स्वामित्व अधिकार नहीं रहा है। 1947 में वे भूमि के स्वामित्व को सुरक्षित करने के लिए एक रुपए का आधा पचास पैसे (अठन्नी) तक शुल्क नहीं दे पाए, क्योंकि इतना देने तक की भी तब इनकी क्षमता नहीं थी। आज इसकी कीमत करोड़ों में है तो ऐसे में वे कैसे इसका भुगतान कर पाएंगे ? इस तरह की परेशानियों को देखकर ही 2001 में, तत्कालीन फारूख अब्दुल्ला सरकार ने कब्जे वाले अधिनियम के लिए जम्मू-कश्मीर राज्य भूमि स्वामित्व के स्वामित्व को अधिनियमित किया था। सरकार द्वारा निर्धारित शुल्क के लिए, राज्य भूमि को अपने निवासियों को स्वामित्व देना था। हालांकि कानून का मकसद उस समय बिजली परियोजनाओं के लिए धन एकत्र करना भी था ताकि तत्कालीन बिजली परियोजनाओं को गति दी जा सके।

अब, रोशनी अधिनियम को निरस्त करने से बड़े पैमाने पर मुस्लिम गुज्जर और बेकरवाल समुदायों के बीच चिंताओं को जन्म दिया है, जिन्होंने पारंपरिक रूप से घुमंतू, खानाबदोश जीवन जीते आए हैं। गुज्जर यूनाइटेड फ्रंट के अध्यक्ष अनवर चौधरी ने कहा, “जम्मू में आये दिन गुज्जर और बकरवाल समाज के लोगों को उनकी जमीन से बेदखल किया जा रहा है। ये साधारण लोग हैं और उन्होंने अधिनियम के तहत स्वामित्व के लिए आवेदन दायर किया है। जबकि बड़े राजनेताओं और नौकरशाहों को नियमित रूप से जमीन के विशाल हिस्से मिल गए, किसी ने भी इन गरीब जनजाति लोगों के आवेदनों को गंभीरता से नहीं लिया।”
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इससे हजारों गुज्जर और बेकरवाल परिवारों को विशेष रूप से जम्मू क्षेत्र में अपनी भूमि के कब्जे को खोने के कगार पर धकेल दिया है। इन समुदायों के लोगों की आबादी राज्य की आबादी का 11.9 प्रतिशत है। सदियों से गुज्जर और बकरवाल समाज के लोगों ने अपने पशुओं के लिए चारागाह के रूप इस्तेमाल करते आए हैं। सर्दियों में, वे जम्मू के मैदानों में अपने पशुओं के साथ प्रवास करते हैं, जबकि गर्मियों में वे कश्मीर घाटी में वापस आ जाते हैं। लेकिन इन
राज्यपाल के फैसले से संकट की स्थिति
समुदायों के लाेगों ने जम्मू क्षेत्र को ही अपना स्थायी आवास बनाया है, जहां से अब उन्हें हटाया जा रहा है।
रोशनी अधिनियम के निरस्तीकरण से भूमि खरीदने की आशा भी चली गई है। पुंज जिले के मेंधर के विधायक जावेद राणा ने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में बताया, “रोशनी एक्ट को निरस्त किए जाने से यहां के गुज्जर और बकरवाल समाज के लोग परेशान तो हैं ही लेकिन यह एक्ट किसी पार्टिकुलर कम्यूनिटी के लिए केवल नहीं था बल्कि यहां रहने वाले हिन्दू , मुस्लिम, सिख और ईसाई सभी के लिए था। लेकिन राज्यपाल ने आखिर क्यों ऐसा निर्णय लिया यह समझ से परे है। गरीब लोग इससे सबसे प्रभावित हुए हैं क्योंकि इससे ही स्थायी निवास की समस्या खत्म होने की उम्मीद थी, लेकिन एक्ट के निरस्त कर दिए जाने से यह उम्मीद भी जाती रही है। यह एक चिंताजनक स्थिति है। इस योजना को रद्द करके, सरकार समाज के कमजोर वर्गों के लिए कल्याणकारी राज्य के उद्देश्यों को पूरा करने में भी असफल रही। मुझे डर है कि इन जनजातियों को अपने सदियों पुरानी पेशे खो देंगे अगर उनके पास अपने मवेशियों को चराने के लिए जमीन नहीं है।”

राज्यपाल की अध्यक्षता वाली राज्य प्रशासनिक परिषद का तर्क
जब रोशनी अधिनियम पारित किया गया था तब सरकार ने अनुमान लगाया था कि 25,448 करोड़ रुपये के सार्वजनिक भूमि के 20,64, 972 कनाल या 1,04,458 हेक्टेयर भूमि अतिक्रमण किए गए हैं। कानून को कई बार सरकारों ने संशोधित किया था, लेकिन भूमि आवंटन में भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और भक्तिवाद ने इस योजना को लगातार प्रभावित किया।
2014 में, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की एक रिपोर्ट ने निवासियों को अतिक्रमण की गई भूमि के हस्तांतरण में अनियमितताओं को नोट किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह योजना अपने उद्देश्यों को पूरा करने में विफल रही है। 25,448 करोड़ रुपये के लक्ष्य के मुकाबले, सरकार ने 2007 और 2013 के बीच कार्यक्रम के माध्यम से केवल 76 करोड़ रुपए ही कमाए थे।
राज्यपाल कार्यालय के मुताबिक इस योजना की शुरुआत में 20.55 लाख कनाल को मालिकाना हक देने की बात थी लेकिन केवल 15.85 फीसदी भूमि की ही मालिकाना हक दी जा सकी। राज्य के राजस्व विभाग के अधिकारियों के अनुसार, अधिनियम रद्द होने पर भूमि अधिकारों के अनुदान के लिए लगभग 77,000 आवेदन लंबित थे।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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