कर्नाटक के हासन जिले से दलित और आदिवासी क्षेत्रों के 52 बंधुआ मजदूरों को पुलिस ने मुक्त कराया है। मुक्त हुए मजदूरों ने बताया है कि उन्हें तीन वर्षों तक नारकीय जीवन जीने को मजबूर किया गया था। जब वे भरपेट भोजन और वेतन मांगते थे, तब उन्हें जानवरों की तरह पीटा जाता था।
हालांकि, पुलिस ने अपनी कार्रवाई के दौरान बंधुआ मजदूरी कराने वाले गिरोह के पांच लोगों को गिरफ्तार किया है। उनके खिलाफ बंधुआ मजदूर कानून, एससी-एसटी अत्याचार निवारण कानून और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है।
न्यूज मिनट डॅाट कॉम द्वारा प्रकाशित खबर के मुताबिक, मुक्त कराए गए मजदूरों का कहना है कि वेतन मांगने पर उनकी पिटाई की जाती थी और खाने के लिए भरपेट भोजन नहीं दिया जाता था। ये मजदूर कर्नाटक, आंध प्रदेश और तेलंगाना के हैं। इनमें 17 महिलाएं और चार बाल मजदूर शामिल हैं। इन सभी से खेतों और ईंट भट्ठों पर काम लिया जाता था।

हासन जिले के पुलिस अधीक्षक ए.एन. प्रकाश गौड़ ने बताया कि गिरोह के पांच सदस्यों को गिरफ्तार किया गया है। उन्होंने बताया कि जिले में बंधुआ मजदूरों का मामला हाल ही में सामने आया, जब 20 दिन से बंधुआ मजदूरी कर रहा एक मजदूर बाड़ काटकर और दीवार फांदकर गिरोह के चंगुल से भागने में कामयाब रहा और उसने पुलिस को सूचना दी। उन्होंने बताया कि पीड़ितों को तीन साल से बेहद ही अमानवीय परिस्थितियों में रखा जा रहा था। यहां तक कि छह वर्षीय दो बच्चों से भी मजदूरी कराई जा रही थी।

पुलिस ने आरोपियों की पहचान मुनेश, कृष्णगौड़ा, बसवराज, प्रदीप और नागराजा के रूप में की है। इनमें मुनेश मुख्य आरोपी है। एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने बताया कि इस गिरोह में दो ऑटो चालक कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के प्रवासी मजदूरों को एक दिन के काम के लिए 600 रुपए देने का झांसा देकर अपने साथ ले गए। उन्हें खेतों में बने एक शेड में गुलाम की तरह काम कराया गया। इस गिरोह ने मजदूरों का सारा सामान कपड़े, पहचान पत्र, फोन और पैसे छीन लिए। उन्हें यह भी धमकी दी गई कि उन्होंने भागने की कोशिश की तो मार दिया जाएगा। मजदूरों को एक दिन की मजदूरी के रूप में तीन बार का खाना दिया गया। छुड़ाए गए पुरुष मजदूरों के मुताबिक, कभी-कभी उनको देसी दारू दी जाती थी।
मुक्त हुए मजदूरों ने बताया कि गिरोह के आदेश का पालन न करने पर मजदूर कई दिन खाली पेट रहते थे और उनको कई बार चाबुक से पीटा गया। वे बाहर न भाग जाएं इसके लिए उनको बंद कर दिया जाता। ईंट भट्ठा के मौसम के दौरान उनसे वहां काम लिया जाता था। जब मजदूरों को छुड़ाया गया, तो उस समय वे एक अदरक के खेत में काम कर रहे थे। उन्हें सुबह 3ः00 बजे से लेकर देर रात 10ः00 बजे तक काम करना पड़ता था।
लेखक और जानी मानी स्तंभकार अद्वैत काला ने 22 दिसंबर को अपने एक ट्वीट में कहा कि बेंगलूरु से 52 दलित और आदिवासियों को आज गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराया गया। उनसे पिछले तीन वर्षों से 19 घंटे तक काम लिया जाता था- बदले में मजदूरी भी नहीं दी जाती थी। खाना भी केवल उतना दिया जाता था, जितना कि वो काम कर सकने लायक रह सकें। आज इसे लेकर कहीं कोई गुस्सा क्यों नहीं दिखता?
इस बीच भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने ट्वीट कर कहा, “यह काफी आश्चर्यजनक है कि दलित और आदिवासी समुदाय के लोगों को गुलाम बना उन्हें बेहद अमानवीय स्थिति में कष्ट झेलना पड़ा है, लेकिन कांग्रेस-जेडीएस सरकार मंत्रिमंडल के विस्तार में व्यस्त है। लोग सब देख रहे हैं। मैं अपने कार्यकर्ताओं से यातनाएं झेल रहे लोगों की मदद करने की अपील करता हूं।”
(कॉपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)
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