सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि दलित, आदिवासी और ओबीसी के हितों के खिलाफ है। केंद्र सरकार को इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में बड़े बेंच में पुनर्विचार याचिका दाखिल करनी चाहिए। ये बातें राज्यसभा और योजना आयोग के पूर्व सदस्य डॉ. भालचंद्र मुणगेकर ने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में कही।

उन्होंने कहा कि अब जबकि यह आंकड़ा सामने आ चुका है कि विश्वविद्यालयों में आरक्षित कोटे के शिक्षकों की संख्या पांच फीसदी से भी कम है, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि आरक्षण का निर्धारण विश्वविद्यालय के बजाय विभागवार हो, निश्चित तौर पर सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है। उन्होंने कहा कि यदि विभागवार आरक्षण रोस्टर बनाया गया तो इससे खाई बढ़ेगी। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यदि किसी विभाग में 14 पद रिक्त होंगे तो एक पद अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हो सकेगा। इसी प्रकार यदि किसी विभाग में 8 पद रिक्त होंगे तभी अनुसूचित जाति के लिए एक पद आरक्षित होगा। वहीं ओबीसी के लिए एक पद आरक्षित तभी हो सकेगा जब रिक्त पदों की संख्या कम से कम पांच होगी। जबकि यह सभी जानते हैं कि विभागवार पदों की संख्या कितनी होती है।

डॉ. भालचंद्र मुणगेकर ने कहा कि फैसला लागू होने के बाद न काॅलेज में, न विश्वविद्यालय में, न केंद्रीय विश्वविद्यालय में आरक्षण रहेगा। संविधान के माध्यम से एक बड़ा कदम उठाया गया था, वह सब खत्म हो जाएगा और दलित,आदिवासी और ओबीसी को फिर से गुलाम जैसा जीवन जीना पड़ेगा।
क्या है सुप्रीम कोर्ट का फैसला?
बताते चलें कि 22 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से वित्त पोषित उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों की भर्ती में आरक्षण कोटा के निर्धारण के लिए संबंधित विभाग को एक इकाई माना जायेगा, न कि विश्वविद्यालय को। इस प्रकार न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित की अध्यक्षता वाली पीठ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार की अपील खारिज कर दी।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2017 में एक फैसले में कहा था कि यूजीसी से वित्त पोषित उच्च संस्थानों में शिक्षकों की भर्ती में कोटा के निर्धारण के दौरान संबंधित विभाग को एक इकाई माना जायेगा, न कि पूरे विश्वविद्यालय को। इस फैसले को केंद्र सरकार ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के माध्यम से शीर्ष अदालत में चुनौती दी थी।

सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले को ‘तार्किक’ करार दिया और समान योग्यता और वेतनमान आदि के आधार पर विश्वविद्यालयों के सभी पदों को एकसाथ करने को अनुचित बताया। खंडपीठ ने सवाल किया, “एनाटोमी (शरीर-रचना विज्ञान) के प्रोफेसर और भूगोल के प्रोफेसर को एक कैसे माना जा सकता है। क्या आप ‘अंगों’ और ‘सेबों’ को आपस में जोड़ कैसे सकते हैं।न्यायालय ने कहा कि अलग-अलग विभागों के प्रोफेसरों की अदला-बदली नहीं हो सकती, इसलिए आरक्षित पदों के निर्धारण के लिए विश्वविद्यालय को एक इकाई नहीं माना जा सकता।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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