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रैन बसेरे में दो घंटे : जाने यह कौन सा मुल्क है?

रैन बसेरे में कई लोग बीड़ी का कश लगाते दिखे। ज़हन में ख्याल आया कि जिस मुल्क में ‘बीड़ी जलाई ले जिगर से’ गीत पर लोग झूम उठते हैं, ये गरीब उसी बीड़ी से कभी अपनी थकान मिटाते हैं तो कभी पेट की भूख और इस समय ठंड से लड़ रहे हैं

दिल्ली-एनसीआर में पिछले दो-तीन दिन से लगातार बारिश हो रही है। कभी तेज, कभी मद्धम। बारिश और तेज हाड़ कंपकंपाने वाली ठंड के बीच बेघर लोग अपनी रातें कैसे गुज़ार रहे हैं, यह जानने के लिए एक रैन बसेरे में गया। प्लास्टिक से बना यह अस्थायी रैन बसेरा उत्तर प्रदेश के साहिबाबाद रेलवे स्टेशन के बिल्कुल बगल में ही है।

दरअसल, रैन बसेरा एक सरकारी व्यवस्था है जिसका संचालन नगर निगम पालिका द्वारा किया जाता है। यहां वे पनाह लेते हैं जिनके पास अपना कोई आशियाना नहीं होता। अधिकांश रिक्शा चलाने वाले, ठेला चलाने वाले, दिहाड़ी मजदूर होते हैं। जाहिर तौर पर इनमें अधिकांश दलित और ओबीसी ही होते हैं। वर्ष 2001 में लोक स्वातंत्र्य संगठन (पीयूसीएल) द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका की सुनवाई के दौरान अदालत ने केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को शहरी बेघरों को सिर छिपाने के लिए सुविधाएं उपलब्ध कराने हेतु आवश्यक दिश-निर्देश दिया है।

प्लास्टिक से बना साहिबाबाद का अस्थायी रैन बसेरा

जब मैं साहिबाबाद रैन बसेरा की ओर आगे बढ़ा तो मेरे ज़हन में सुप्रीम कोर्ट का दिशा-निर्देश थे। देखने की इच्छा थी कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का अनुपालन राजधानी दिल्ली में कैसे किया जा रहा है, जहां देश भर से गरीब मजदूर रोजी-रोटी कमाने आते हैं।

साहिबाबाद के रैन बसेरे के गेट पर ही अलाव जल रहा था। कई लोग अलाव को चारों ओर घेरे बैठे थे। ठंड में अलाव का सुख उन्हें नगर निगम के कारण मिल रही थी।  रैन बसेरे की सारी व्यवस्था देखनेवाले मनीराम ने बताया कि नगर निगम की गाड़ी रैन बसेरे में अलाव जलाने के लिए हर दिन लकड़ियां गिरा जाती है।

मैं रैन बसेरे में करीब दो घंटे तक रहा। इस दौरान मैंने रैन-बसेरे में आसरा लेने वालों से बातचीत की। उनकी परेशानियों के बारे में पूछा। इस दरमियान कई लोग बीड़ी का कश लगाते दिखे। ज़हन में ख्याल आया कि जिस मुल्क में ‘बीड़ी जलाई ले जिगर से’ गीत पर लोग झूम उठते हैं, ये गरीब उसी बीड़ी से कभी अपनी थकान मिटाते हैं तो कभी पेट की भूख और इस समय ठंड से लड़ रहे हैं। रैन बसेरे में रहने वाले एक व्यक्ति ने मुझे भी बीड़ी थमा दी। इन्कार करने की कोई वजह मेरे पास नहीं थी उस वक्त।

साहिबाबाद स्टेशन के पास अस्थायी रैन बसेरे में रात गुजारते लोग

रैन बसेरे की देखभाल करने वाले मनीराम उत्तरप्रदेश के बदायूँ जिले के कलान गाँव के रहने वाले हैं। उन्होंने मुझसे रैन बसेरे में आने वाले लोगों और वहाँ होने वाली परेशानियों के बारे में बहुत आत्मीयता से बातचीत की।

सड़क उपर, रैन बसेरा नीचे

साहिबाबाद का अस्थायी रैन बसेरा सड़क स्तर से भी नीचे है। इस कारण होता यह है कि बारिश होने पर सड़क का पानी रैन बसेरे में घुस जाता है और बेघरों को सारी रात बैठकर रात गुजारनी पड़ती है। मनीराम ने बताया कि 22 जनवरी को रात भर भारी बारिश होने से रैन बसेरे में घुटनों भर पानी भर आया था। अगले दिन रैन-बसेरे से पानी उलीचने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी। ऊपर से तेज बौछार आने से कंबल और गद्दे भी भींग गये थे। जिसे अगले दिन बगल में ही स्थित प्राइमरी स्कूल की बाउंड्री पर फैला फैलाकर सुखाने की जतन करनी पड़ी थी। जबकि उस दिन धूप भी पूरी तरह से नहीं खिली थी। मनीराम के मुताबिक उस रोज पूरी रात लोगों ने रैन बसेरे में उस एक जगह जिधर से बारिश की बौछार नहीं आ रही थी, उधर बैठकर रात बिताई थी।

वंचितों का रैन बसेरा

साहिबाबाद के इस रैन-बसेरे में रात गुजारने वाले अधिकांश लोग रोजी-रोटी के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दूर-दराज के जिलों से आये वंचित समुदायों के लोग हैं। शरण लेने वाले सबसे बुजुर्ग व्यक्ति हैं- ओम प्रकाश जी। उनकी उम्र करीब 70 वर्ष है और बुलंदशहर उनका पैतृक शहर है। उनके परिवार में कोई नहीं है और एनसीआर में अपना पेट पालने के लिए आए हैं। ओम प्रकाश बताते हैं कि वे साहिबाबाद इलाके में बर्थ डे, शादी, रिसेप्शन आदि की पार्टियों में जूठी प्लेट माँजने-धोने का काम करते हैं और रात गुजारने के लिए रैन बसेरे में आ जाते हैं।

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जबकि रैन बसेरे में रह रहे एक अन्य व्यक्ति राकेश नगर निगम के अधीन आने वाले शौचालयों में साफ-सफाई का काम करते हैं। राकेश मेरठ से हैं। वे बताते हैं कि वे जिस ठेकेदार के अधीन काम करते हैं, वह महीने का साढ़े चार हजार रुपए तनख्वाह देता है। राकेश सरकार को कोसते हुए कहते हैं- ‘यह सरकार ही निकम्मी है जो अघाए लोगों को और खाने को देती है। सरकार हम लोगों को ही स्थायी क्यों नहीं कर देती है ताकि जो कुछ भी वो हमें ठेकेदार के हाथ में धर कर दे रही है, वह डायरेक्ट हमारे ही हाथ आ जाए।

कौन-कौन आता है इस रैन बसेरे में? पूछने पर मनीराम ने बताया कि अधिकतर वे लोग आते हैं जो सीजन का काम करने के लिए गांवों से यहाँ आये हैं। इनमें कुछ साग-सब्जी बेचने वाले या रिक्शा चलाने वाले लोग भी होते हैं। जबकि कुछ लोग वे होते हैं जो अपनी जगहों से उजाड़कर भगा दिए गए हैं। मनीराम बताते हैं कि परसों दो मुसाफिर भी रात काटने आ गए थे। उनकी गाड़ी 12-15 घंटे लेट हो गई थी।

महिलाएं नहीं आतीं  रैन बसेरे में

क्या महिला मजदूर भी आती हैं रैन-बसेरे में? पूछने पर मनीराम ने जवाब दिया – नहीं, महिलाएं नहीं आतीं। लेकिन अगर आ जाएं तो उन्हें भी रहने के लिए एक तखत (ओढ़ना-बिछौना) दे दिया जाएगा। बता दें कि साहिबाबाद के रैन बसेरे में कुल 20 लोगों के रहने की व्यवस्था है। मनीराम के मुताबिक, एक-दो को छोड़कर अधिकांशतः रैन बसेरे में हर रोज अलग-अलग लोग आते हैं।

ज्यादा लोगों से होती है परेशानी

फिरोजाबाद के नामेमऊ गांव से आए रवि बताते हैं कि वे यहाँ शादी समारोहों में अपने सिर पर झूमर लाइट उठाने का काम करते हैं। अपने गृह जनपद में कोई काम न मिलने के चलते उन्हें यहां आना पड़ता है। रैन बसेरे में रहना हो जाता है। लेकिन कभी कभी रैन बसेरे में भी क्षमता से ज्यादा लोग आ जाते हैं तो परेशानी बढ़ जाती है। किसी तरह अर्जेस्ट (एडजस्ट) करके रात गुजारनी पड़ती है। जैसे कि 20 जनवरी को ही 29 लोग आ गए थे, तो एक-एक तख्त को दो-दो लोगों ने शेयर करके रात गुजार लिया था।

बहरहाल, रैन-बसेरे में दो घंटों के दौरान एक दूसरे भारत से साक्षात्कार हुआ। कितना अजीब है न? भूख, गरीबी और ठंड के बीच रात गुजारता भारत।

 (कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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