जनवरी 2019 एक तरफ सवर्ण जातियों को बिना मांगे आरक्षण देने का साक्षी है तो दूसरी तरफ दलितों, पिछड़ों एवं आदिवासियों को मिले आरक्षण को न्यायपालिका द्वारा छीने जाने का गवाह बना है। विधायिका, न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के इस रवैये से स्पष्ट है कि भारत की राजसत्ता के तीनों अंगों में दलितों, पिछड़ों एवं आदिवासियों के अधिकारों के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है। इसके विपरीत सवर्ण जातियों को अधिकार संपन्न बनाने के लिए तीनों अंग कृतसंकल्पित हैं। 8 व 9 जनवरी, 2019 को संसद के दोनों सदनों ने भारी बहुमत से सवर्ण जातियों के ‘आर्थिक रूप से कमजोर हिस्से’ के लिए सरकारी नौकरियों एवं शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश हेतु 10 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने का ‘संविधान संशोधन बिल’ पास किया। इसके द्वारा संविधान संशोधन, संविधान के भाग–तीन (मूल अधिकार) के अनुच्छेद 15 व 16 में 15 (6) एवं 16(6) को जोड़ा गया।
कार्यपालिका और विधायिका के बाद अब न्यायपालिका की बारी। 22 जनवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस यू. यू. ललित तथा जस्टिस इन्दिरा बनर्जी की खंडपीठ ने विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में शिक्षकों के पद पर अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं पिछड़े वर्गों के लिए क्रमशः 15 प्रतिशत, 7.5 प्रतिशत एवं 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने वाली 200 बिन्दू की रोस्टर प्रणाली को खारिज कर दिया। इस निर्णय में दो जजों की बेंच ने 15(4), 15(5) एवं 16(3), 16(4), 16 (5) को निरर्थक साबित कर दिया, जिसके अन्तर्गत सरकार को अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों एवं शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश में 15 प्रतिशत, 7.5 प्रतिशत एवं 27 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित करने का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के इस अधिकार को नहीं माना। यह मामला 2006 से ही सरकार एवं न्यायालय के बीच फुटबाॅल बना हुआ है। इस मामले में न तो कांग्रेस सरकार और न ही मोदी सरकार ने कोई कारगर कदम उठाया जबकि दलित आदिवासी एवं पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थी लगातार मांग कर रहे हैं।
सवर्ण जातियों के तथाकथित गरीबों के लिए नौकरियों तथा शिक्षण संस्थाओं में 10 प्रतिशत आरक्षण देने के बिल पर जिस प्रकार की एकता संसद में, राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के बीच दिखाई दी, वह चौंकाने वाली है। इससे यह पता चलता है कि भले ही संसद में दो बड़े दल भाजपा और कांग्रेस तथा लगभग 40 से ज्यादा छोटे दलों में वैचारिक विभिन्नता दिखाई देती है, लेकिन सांस्कृतिक एवं सामाजिक रूप से सभी दलों के मूल्य समान हैं। केवल तीन दलों ने इस प्रावधान का विरोध किया, जिनकी सामाजिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अन्य सभी दलों से स्पष्ट तौर पर अलग दिखाई देती है। एक डीएमके जो रामास्वामी नायकर के ब्राह्मणवाद विरोधी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक आंदोलन जिसकी परंपरा 100 वर्षों से पुरानी है, और दूसरी एमआईएम जिसका नेतृत्व भाईचारा, धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की गारंटी तथा लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता है, तथा तीसरा राजद जिसका नेतृत्व जमीन पर उच्च जातीय वर्चस्व को तोड़ते हुए सामाजिक न्याय के लिए जमीनी संघर्षों से निकला है। अन्य सभी दल या तो सवर्णों के नेतृत्व में चल रहे हैं या उनका नेतृत्व सवर्ण नेताओं के चंगुल में है।
सामान्य तौर पर समझा जा रहा है भाजपा ने सवर्ण जातियों को आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में सवर्ण जातियों का वोट हासिल करने के लिए किया है, जो भाजपा से नाराज चल रहे हैं। यह विपक्ष का आरोप है, जिससे राजनीतिक विश्लेषक भी सहमत हैं। लेकिन वास्तविकता कुछ और है। संघ परिवार तथा सवर्ण जातियां प्रारंभ से ही आरक्षण के जातिगत आधार के विरुद्ध रही हैं। लेकिन भारतीय संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध जाने की संघ परिवार तथा भाजपा की न तो ताकत थी न वैसी राजनैतिक परिस्थितियां ही थीं। 16वीं लोकसभा में प्रचंड बहुमत, राज्य सभा में 73 सीट (एनडीए-89) तथा संघ प्रचारक दलित का राष्ट्रपति पद पर आसीन होना ऐसी परिस्थितियां हैं कि भाजपा कुछ भी करने की स्थिति में अपने आप को मानती है। लेकिन आज भी भाजपा ‘जाति के आधार’ पर आरक्षण को समाप्त नहीं कर सकती है क्योंकि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के अंदर आई राजनीतिक चेतना इसके मार्ग में बाधा बन रही है। इसलिए भाजपा ने बड़ी ही चालाकी से सवर्ण जातियों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की चाल चली है। इससे आरक्षण का आधार सामाजिक व शैक्षणिक के साथ–साथ आर्थिक भी हो जायेगा तथा सभी प्रकार के आरक्षण को सिर्फ आर्थिक आधार पर करने की बहस भी प्रारंभ हो जायेगी। इसकी शुरुआत ‘यूथ फॉर इक्विलिटी’ नामक संगठन द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका से हो भी चुकी है। निकट भविष्य में अनुसूचित जाति/जनजाति के आरक्षण में भी क्रीमीलेयर की अवधारणा लागू की जा सकती है। यदि सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो दलितों, आदिवासियों के पास क्रीमीलेयर का विरोध करने का नैतिक आधार भी नहीं रहेगा। इस संविधान संशोधन का सबसे खतरनाक पहलू यही है कि यह प्रावधान ‘आरक्षण’ की परंपरागत अवधारणा, जिसका विकास पिछले दो सौ वर्षों में सत्ता के सभी केन्द्रों पर ‘ब्राह्मण वर्चस्व’ के विरुद्ध हुआ था, को बदल देगा। आधुनिक भारत में दलितों, पिछड़ों के दो सौ वर्षों के संघर्षों से प्राप्त उपलब्धियों पर पानी फेर देगा। इसलिए इसका विरोध करने वाले इसे संविधान के साथ धोखा तथा लोकतंत्र की हत्या कह रहे हैं।

आइए, अब आरक्षण की अवधारणा के विकास पर नजर डालते हैं। आरक्षण की अवधारणा का विकास आधुनिक भारत में राष्ट्र राज्य, लोकतंत्र, संवैधानिक शासन के विकास से जुड़ा हुआ है। 18वीं सदी में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत में सामंती मूल्यों को मानने वाले राजाओं व नवाबों का राजसत्ता पर अधिपत्य था। समाज–व्यवस्था धर्मशास्त्रों द्वारा संचालित थी। ईस्ट इंडिया कंपनी तथा ब्रिटिश क्राउन के अधीन राजसत्ता के हस्तांतरण के पश्चात भारत में यूरोपीय पुनर्जागरण के मूल्यों जैसे लोकतंत्र, मानव अधिकार, कानून का शासन, संविधान आदि की स्थापना की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। यूरोपीय मूल्य, भारत में स्थापित तत्कालीन मूल्यों के विपरीत थे इसलिए भारतीय समाज में उच्च जातियों, जिनका समाज में वर्चस्व स्थापित कर उन्होंने व्यापक विरोध किया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन राज्यों में 1813 में सभी स्त्री–पुरुषों को समान शिक्षा का कानून लागू हुआ। इसका विरोध सवर्ण जातियां विशेषकर ब्राह्मणों द्वारा किया गया। इस विरोध के कारण शूद्र और अतिशूद्र (अछूत) समुदायों के बच्चों, को शिक्षा के समान अधिकार के बावजूद, शिक्षा से वंचित रह जाते थे। इसी प्रकार कंपनी राज के अधीन प्रशासनिक नौकरियों में सभी जाति धर्म के व्यक्तियों को समान अवसर देने का कानून 1833 में बनाया गया जिसका ब्राह्मणों ने विरोध किया। यह विरोध इसलिए था कि ब्राह्मण धर्मग्रंथों के अनुसार केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण, जिसे द्विज या सवर्ण कहा जाता है, वही शिक्षा प्राप्त करने, शस्त्र धारण करने और संपत्ति अर्जित करने के अधिकारी हैं। महिलायें तथा शूद्र वर्ण के व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करने, शस्त्र धारण करने एवं संपत्ति अर्जित करने के अधिकारी नहीं है। इसीलिए ब्राह्मण धर्म के संरक्षक द्विज वर्ण के लोग शूद्र, अतिशूद्र तथा महिलाओं की शिक्षा के विरोधी थे।
इस प्रकार का विरोध जोतीराव फुले एवं उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले को भी झेलना पड़ा था। शूद्रों एवं अछूतों को शिक्षित करने के अपराध में स्वयं जोतीराव फुले के पिता ने दोनों पति–पत्नी को अपने घर से निकाल दिया था। जोतीराव फुले पर जानलेवा हमला हुआ था तथा सावित्रीबाई फुले के ऊपर गोबर व कीचड़ फेंकने तथा गुण्डे भेजकर डराने व धमकाने जैसे कृत्य ब्राह्मणों द्वारा कराये गये थे। इस विरोध के कारण ही 1884 तक एक भी अछूत स्नातक की कक्षा में प्रवेश नहीं पा सका था तथा 1894 तक एक भी अछूत सरकारी सेवा में अधिकारी नहीं बन पाया था।
बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में जब विधायिका में भारतीयों को प्रतिनिधित्व देने की मांग जोर पकड़ने लगी तो डा. अंबेडकर ने अछूतों के लिए विधायिका में हिंदुओं से अलग जनसंख्या के अनुपात में अलग प्रतिनिधित्व के साथ–साथ विशेषाधिकार की मांग किया। 1932 में घोषित ‘कम्यूनल अवार्ड’ में बाबा साहब की मांग मान ली गयी। परिणामस्वरूप अछूतों को पृथक निर्वाचक मंडल के साथ–साथ दो मतों का अधिकार भी प्राप्त हुआ। लेकिन गांधी के प्रबल विरोध एवं आमरण अनशन के दबाव में डा. आंबेडकर को झुकना पड़ा तथा पूना पैक्ट हुआ जिसमें अछूतों को विधायिका में न केवल दो मतों का विशेषाधिकार छोड़ना पड़ा बल्कि हिन्दुओं के मतों पर आश्रित प्रतिनिधित्व स्वीकार करना पड़ा। यह प्रावधान संविधान में भी उसी रूप में रखा गया है। नौकरियों में आरक्षण तथा शिक्षा में विशेष संरक्षण का अधिकार सुरक्षित रहा जिसे संविधान में स्वीकार किया गया।
इस प्रकार भारत के संविधान में, अनुसूचित जाति के रूप में अछूतों को तथा अनुसूचित जनजाति के रूप में आदिवासियों को 26 जनवरी 1950 से विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के साथ–साथ प्रशासनिक सेवाओं में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व सैद्धांतिक रूप से स्वीकार कर लिया गया। लेकिन व्यवहार में देखें तो विधायिका के निम्न सदन लोक सभा तथा प्रदेशों की विधान सभाओं में तो आरक्षण लागू किया गया लेकिन विधायिका के उच्च सदन राज्य सभा तथा प्रदेशों की विधान परिषदों में आज तक आरक्षण लागू नहीं किया गया। इसी प्रकार कार्यपालिका तथा न्यायपालिका में भी लागू नहीं किया गया। पिछड़े वर्गों को प्रशासनिक सेवाओं में 1992 में तथा शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश में 2006 में आरक्षण दिया गया। इसलिए संविधान लागू होने के 70 वर्षों पश्चात आज भी प्रशासन में सवर्ण जातियों का वर्चस्व स्थापित है।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ दिनांक 16 जनवरी 2019 में छपी रिपोर्ट के अनुसार ग्रुप ‘ए’ और ‘बी’ के पदों पर कैबिनेट सचिवालय में 80.25 प्रतिशत, नीति आयोग में 73.84 प्रतिशत, राष्ट्रपति सचिवालय में 74.62 प्रतिशत, उपराष्ट्रपति सचिवालय में 76.92 प्रतिशत पदों पर सवर्णों का कब्जा है। रेलवे में 68.82 एवं अन्य मंत्रालयों में 62.95 प्रतिशत पदों पर सवर्णों का कब्जा है। सभी 40 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रशासनिक पदों पर 76.14 प्रतिशत, प्रोफेसर 95.2, एसोसिएट प्रोफेसर– 92.90 प्रतिशत, तथा असिस्टेंट प्रोफेसर के 66.27 प्रतिशत पदों पर सवर्णों का कब्जा है। यह स्थिति तब है जब कि पिछले 70 वर्षों से दलितों, पिछड़ों एवं आदिवासियों को अवसर की समानता के साथ विशेष संरक्षण भी प्राप्त है। स्पष्ट है कि आज भी भले ही ‘हम भारत के लोग’ इस शासन व्यवस्था को चला रहे हैं, लेकिन वास्तव में शासन और प्रशासन सवर्ण जातियों के कब्जे में है। इन परिस्थितियों में सवर्ण जातियों को 10 प्रतिशत का आरक्षण देना न केवल दलितों, पिछड़ों व आदिवासियों के हितों पर कुठाराघात है बल्कि लोकतंत्र की हत्या भी है।
इस संविधान संशोधन के पीछे एक और तथ्य छिपा हुआ है जिसको रेखांकित करना आवश्यक है। आरक्षण के सामाजिक और शैक्षणिक आधार के कारण इस देश में वर्ग और जाति के संबंधों में बदलाव आ रहा था। सवर्ण जातियां जो भारत में शासक वर्ग के रूप में स्थापित हैं, जाति आधारित आरक्षण के कारण इनके वर्चस्व को चुनौती मिलनी प्रारंभ हुई थी जिससे जाति–वर्ग संबंधों में बदलाव की संभावना थी, इस संविधान संशोधन से यह संभावना क्षीण पड़ जायेगी। परिणामस्वरूप भारत पर अपर कास्ट कारपोरेट का वर्चस्व और मजबूत होगा।
अब हमें इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए कि आखिर किन वजहों से 70 वर्षों के संवैधानिक शासन के बावजूद आज भारतीय राजसत्ता का चरित्र वही बना हुआ है जो पुष्यमित्र शुंग के शासन से लेकर 1818 तक पेशवा के शासन में था तथा ईस्ट इंडिया कंपनी व ब्रिटिश शासन के अधीन था?
इसके कुछ कारण स्पष्ट दिखाई देते हैं। आरक्षण की अवधारणा का विकास आधुनिक राष्ट्र–राज्य व लोकतांत्रिक मूल्यों से जुड़ा हुआ है। जोतीराव फुले तथा छत्रपति शाहूजी महराज ने ‘आरक्षण’ को अधिकार के रूप में व्याख्यायित किया जो लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली का मूलतत्व है। डा. अंबेडकर ने अथक प्रयत्नों से इसे संविधान में प्रस्थापित करवाया। लेकिन सवर्ण जातियां जिनका इस देश की सत्ता और संशाधनों पर कब्जा है, ने न तो लोकतंत्र को, न ही संविधान को हृदय से स्वीकार किया है। आज भी सवर्ण जातियां मनुस्मृति या हिन्दू धर्मग्रंथों को आदर्श मानती है न कि संविधान या संवैधानिक मूल्यों को। चूंकि यही जातियां इस देश की बुद्धिजीवी वर्ग हैं इसलिए इन्होंने संवैधानिक प्रावधानों को लागू करने में तरह–तरह के अड़चनें पैदा करते हैं तथा साथ ही साथ संविधान की उलूल–जलूल आलोचना भी करते हैं।
जो ‘आरक्षण’ का प्रावधान ‘अधिकार’ के रूप में संविधान में प्रस्थापित है, बौद्धिक बहसों में उसे ‘उद्धार–कार्यक्रम’ के रूप में प्रचारित किया गया और 103वें संशोधन में उसे ‘उद्धार कार्यक्रम’ के रूप में प्रस्थापित भी कर दिया गया।
लेकिन, सवाल इस बात का है कि क्या जो लोकतंत्र में विश्वास करते हैं तथा स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व पर आधारित भारत का सपना देखते हैं उन्होंने क्या किया? इस तरह के लोगों में अपने आपको वामपंथी कहने वाले तथा आंबेडकरवादी कहने वाले लोग आते हैं। प्रारंभ में वामपंथियों का संविधान के प्रति विशेषकर आरक्षण के प्रति वही रवैया था जो दक्षिणपंथियों का था। मात्र शैली अलग थी। अब बच गये आंबेडकरवावदी। मान्यवर कांशीराम को छोड़कर आंबेडकरवादी बाबासाहब की चिंतन प्रक्रिया व कार्यशैली को समझने में नाकाम रहे। इन्होंने भी आरक्षण को ‘उद्धार’ का ही कार्यक्रम माना। मान्यवर कांशीराम ने दलितों के आंदोलन को आक्रामक तेवर तथा सामाजिक विस्तार दिया। परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश सहित कई प्रदेश सरकारों ने आरक्षण को लागू करने का कानून बनाया।
राजीव गांधी की सरकार ने आरक्षण कोटा पूरा करने के लिए विशेष अभियान चलाया। कांशीराम के आंदोलन के कारण सवर्णों के कान खड़े हो गये। अपने वर्चस्व पर चुनौती देख उन्होंने न्यायालय के माध्यम से आरक्षण नीति को प्रभावहीन बनाने का ब्रह्मफांस फेंका। 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण पर रोक, क्रीमीलेयर की अवधारणा, 1997 में पद आधारित रोस्टर लागू करना, प्रोमोशन में आरक्षण पर रोक, वरिष्ठता सूची को बदलने जैसे निर्णय न्यायपालिका ने दिये जिससे आरक्षण नीति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। इन सब परिस्थितियों के बीच जो दलित आंदोलन आरक्षण पूरा करने की मांग कर रहा था, 1997 में पद आधारित रोस्टर लागू होने के पश्चात आरक्षण बचाने के लिए संघर्ष करने लगा जो पिछले 20 वर्षों से आज तक चल रहा है।
दिलचस्प यह है कि एक तरफ आरक्षण बचाने की मांग चल रही है तो दूसरी तरफ आरक्षण खत्म किया जा रहा है। 22 जनवरी 2019 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। अब 103वे संवैधानिक संशोधन से आरक्षण के संवैधानिक आधार को ही समाप्त करने की साजिश शुरू हो गई है।
जहां तक हम समझ पा रहे हैं कि आरक्षण बचाने के आंदोलन भर से आरक्षण बचने वाला नहीं है। अब हमें वर्तमान परिस्थितियों पर समग्रतापूर्वक विचार करना चाहिए, नहीं तो वही कहावत सिद्ध होगी ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें
आरएसएस और बहुजन चिंतन (लेखक : कंवल भारती)
मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया