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संविधान की नजर में आदिवासी हिंदू, फिर कानून में क्यों नहीं?

भारतीय संविधान में आदिवासी हिंदू की श्रेणी में रखे गए हैं। परंतु कानूनों में प्रावधान अलग हैं। इसका खामियाजा आदिवासियों को उठाना पड़ता है

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366 (25) की भाषा- परिभाषा के अर्थों में अनुसूचित जनजाति के सदस्य/नागरिक ‘हिन्दू’ माने जाते हैं। हिंदुओं की जनसंख्या गिनने-गिनाने और वोट की राजनीति के लिए भी ‘हिन्दू’ माने-समझे जाते हैं। लेकिन हिन्दू विवाह अधिनियम,1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम,1956, और हिन्दू दतकत्ता और भरण-पोषण अधिनियम,1956 की धारा 2(2) और हिन्दू वयस्कता और संरक्षता अधिनियम, 1956 की धारा 3(2) के अनुसार अनुसूचित जनजाति के नागरिकों पर ये अधिनियम लागू ही नहीं होते, बशर्ते कि केंद्रीय सरकार इस संबंध में कोई अन्यथा आदेश सरकारी गजट में प्रकाशित ना करे।

उपलब्ध सूचना और तथ्यों के अनुसार आज तक इस संदर्भ में केंद्र सरकार ने कोई आदेश/नोटिफिकेशन जारी नहीं किया है। ‘एक देश, एक कानून’ के विकासशील दौर में भी, शायद कानून मंत्रालय को यह आभास तक नहीं (हुआ) है कि अनुसूचित जाति के सदस्य संविधान में हिन्दू हैं, मगर हिन्दू कानूनों के लिए नहीं हैं?

उपरोक्त सभी हिन्दू अधिनियमों के मुताबिक, ‘हिन्दू’ की परिभाषा में बौद्ध, सिख, जैन, उनकी वैध-अवैध संतान और धर्मांतरण करके ‘हिन्दू’ बने व्यक्ति भी शामिल माने जाएंगे। मगर अनुसूचित जनजाति के सदस्यों/नागरिकों पर ये अधिनियम लागू नहीं होंगे। इसका मतलब यह कि हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 द्वारा लागू बहुविवाह, विवाह, विवाह विच्छेद , दतकत्ता, भरण-पोषण, उत्तराधिकार, संरक्षता वगैरह के तमाम प्रावधान, अनुसूचित जनजाति के सदस्यों/नागरिकों पर लागू नहीं हैं।

झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड के अमतीपानी गांव में हाल ही में बनाए गए एक मंदिर परिसर में लगे चापाकल से पानी ले जातीं विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुकी असुर आदिम जनजाति की महिलाएं (तस्वीर : एफपी ऑन द रोड, 2016)

भारतीय संविधान और हिन्दू कानूनों के बीच इस गम्भीर अंतर्विरोध और विसंगति को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जानना-समझना जरूरी है। मिज़ोरम, मणिपुर, आसाम, मेघालय, त्रिपुरा में सैंकड़ों जनजातियां, उप-जनजातियाँ हैं, जिनके विवाह, तलाक, उत्तराधिकार सम्बंधी अपने अलग-अलग रीति-रिवाज, नीति, प्रक्रिया, संपत्ति अधिकार हैं। कहीं पुरुषों के हित में और कहीं स्त्रियों के। कुछ समय पहले मिज़ोरम में पारम्परिक रिवाजों को कानूनी रूप देने की पहल हुई है, मगर बाकी प्रदेशों में यथास्थिति बनी हुई है।

सूरजमणि स्टेला कुजूर बनाम दुर्गा चरण हांसदा केस में दोनों पक्ष अनुसूचित जनजाति से सम्बद्ध हैं और हिन्दू धर्म को मानते हैं, परंतु सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि उनका विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 2(2) के प्रकाश में इस कानून के दायरे से बाहर है। वे केवल संताल रीति-रिवाज से ही शाषित होंगे। बहुविवाह के लिए उन्हें, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 (बहुविवाह) के तहत दोषी नहीं माना जा सकता। (ए. आई.आर. 2001 सुप्रीम कोर्ट 938)

हिमावती देवी बनाम शेट्टी गंगाधर स्वामी मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया कि अनुसूचित जनजाति के नागरिक अपने समुदाय के रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह कर सकते हैं।(ए.आई.आर. 2005 सुप्रीम कोर्ट 800)

सुषमा उर्फ सुनीता देवी बनाम विवेक राय मामले में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का भी यही मत है कि अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 लागू नहीं होता।( एफ.ए.ओ. (एचएमए)229/2014 निर्णय दिनांक 16 अक्टूबर, 2014)

झारखंड उच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति डी. एन. पटेल और रत्नाकर भेंगरा ने  विवाह विच्छेद मामले में संविधान के अनुच्छेद 366 और हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 2(2) और सुप्रीम कोर्ट के ‘सूरजमणि’ फैसले का विस्तार से उल्लेख करने के बाद अपील खारिज़ कर दी। मुख्य आधार वही कि अनुसूचित जनजाति के नागरिकों पर, हिन्दू विवाह अधिनियम लागू ही नहीं होता।(राजेन्द्र कुमार सिंह मुंडा बनाम ममता देवी, 2015)

बहरहाल, विचारणीय मुद्दा यह है कि अनुसूचित जनजाति के सदस्यों/नागरिकों (देश की  8-9 प्रतिशत आबादी) को कब तक मुख्यधारा से बाहर हाशिए पर रखा (जाएगा) जा सकता है? कब तक पिछड़ा, रुढ़िवादी, अनपढ़ और असभ्य बनाए रखा (जाएगा) जा सकता है? उन्हें कब तक ‘हिन्दू’ न्याय मंदिरों (हिंदू मान्यताओं पर टिकी न्यायपालिका[i]) से खदेड़ कर ‘पंचायत’ के खूंटे से बांध कर रखा (जाएगा) जा सकता है? और क्यों? क्या इसका कोई मानवीय, न्यायिक विवेक और मान्य तर्क हो सकता है? क्या सबको समान नागरिक संहिता की छतरी तले लाना सम्भव और आवश्यक है? एक तरफ परम्परा और पहचान के संकट हैं और दूसरी तरफ बहुमत की वर्चस्ववादी नीतियों के दुष्परिणाम। शिक्षित-शहरी और साधन संपन्न जनजाति के सदस्य भी उसी अतीत की बेड़ियों में जकड़े हैं। ये ऐसे सवाल हैं जिनपर न्यायपालिका के भीतर और बाहर व्यापक विमर्श आरंभ होना चाहिए।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)

[i] संपादक


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लेखक के बारे में

अरविंद जैन

अरविंद जैन (जन्म- 7 दिसंबर 1953) सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं। भारतीय समाज और कानून में स्त्री की स्थिति संबंधित लेखन के लिए जाने-जाते हैं। ‘औरत होने की सज़ा’, ‘उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार’, ‘न्यायक्षेत्रे अन्यायक्षेत्रे’, ‘यौन हिंसा और न्याय की भाषा’ तथा ‘औरत : अस्तित्व और अस्मिता’ शीर्षक से महिलाओं की कानूनी स्थिति पर विचारपरक पुस्तकें। ‘लापता लड़की’ कहानी-संग्रह। बाल-अपराध न्याय अधिनियम के लिए भारत सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के सदस्य। हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा वर्ष 1999-2000 के लिए 'साहित्यकार सम्मान’; कथेतर साहित्य के लिए वर्ष 2001 का राष्ट्रीय शमशेर सम्मान

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