विश्वविद्यालयों में आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 27 फरवरी 2019 को केंद्र सरकार की पुनर्विचार याचिका को खारिज कर दिया है। इस कारण विश्वविद्यालयों को इकाई मानने के बजाय विभागवार आरक्षण के आधार नियुक्तियों के फैसले को हरी झंडी मिल गई है। आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस वी. ईश्वरैय्या ने दूरभाष पर बातचीत में फारवर्ड प्रेस को बताया कि केंद्र सरकार ने न पहले इस मामले को लेकर अदालत में गंभीरतापूर्वक आरक्षित वर्गों का पक्ष रखा और न ही पुनर्विचार याचिका में ही उन तथ्यों को शामिल किया जिसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट उसकी याचिका को स्वीकार कर सकता था। उनके मुताबिक सरकार चाहे तो अब भी ऑफिस मेमोरेंडम जारी कर एसटी, एससी और ओबीसी के हितों की रक्षा कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की पुनर्विचार याचिका पर उठाया सवाल
बताते चलें कि उच्चतम न्यायालय ने 22 जनवरी 2019 को दिए अपने फैसले को बरकरार रखते हुए केंद्र सरकार के पुनर्विचार याचिका को खारिज कर दिया। साथ ही पुनर्विचार याचिका पर खुली अदालत में सुनवाई करने के केंद्र के अनुरोध को भी ठुकरा दिया।
सरकार के पास विकल्प मौजूद
जस्टिस ईश्वरैय्या के मुताबिक, ऐसे में केंद्र सरकार के पास अब दो ही विकल्प शेष बचते हैं जिससे आरक्षित वर्गों के हितों को बचाया जा सकता है। पहला विकल्प तो यह है कि सरकार एक विधेयक लेकर आए जिसमें इसका प्रावधान हो कि विश्वविद्यालयों में आरक्षण का निर्धारण विभागवार के बजाय विश्वविद्यालय को इकाई मानकर हो। वहीं एक दूसरा उपाय यह भी है कि सरकार अध्यादेश लाए और इसके जरिए यह सुनिश्चित करे कि विश्वविद्यालयों को इकाई मानकर ही आरक्षण का प्रावधान किया जाय।

जस्टिस ईश्वरैय्या के अनुसार सरकार के पास एक विकल्प और है। सरकार चाहे तो ऑफिस मेमोरेंडम के जरिए भी विश्वविद्यालयों में विभागवार आरक्षण के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी बना सकती है। संविधान के अनुच्छेद 73 में कार्यपालिका को यह अधिकार दिया गया है कि वह संविधान की मूल भावना का ख्याल रखते हुए बिना संसद की मंजूरी के नियम बना सकती है। उसके द्वारा जारी ऑफिस मेमोरेंडम को भी कानून के समान दर्जा प्राप्त होता है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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