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आंखन-देखी : आंबेडकर के साथ राम

इस बार आंबेडकर जयंती के मौके पर इलाहाबाद के फूलपुर में यह नजारा देखने को मिला। झांकियों में आंबेडकर और राम एक रथ (बग्घी) पर सवार दिखे

आंबेडकर जयंती अब केवल राजनीतिक दलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए ही खास अवसर नहीं रह गया है, दूरदराज के गांवों में भी अब धूम-धड़ाके के साथ आंबेडकर जयंती मनाने की नई शुरुआत हुई है। चिलचिलाती धूप में हाथी-घोड़ों की मौजूदगी में बग्घी पर झांकियां निकाली जाने लगी हैं। इन झांकियों में राम और आंबेडकर साथ दिखते हैं। आंबेडकर बने बच्चे के हाथ में संविधान तो राम बने बच्चे के पास तीर-धनुष। इतना ही नहीं, डीजे की धुन पर युवा व बच्चे नाचते-गाते-झूमते चलते हैं। कुछ लोग उत्सव के मूड़ में तो कुछ फैशन के चलते शराब का सेवन किये दिखते हैं। यहां यह जानना दिलचस्प है कि दलित समुदाय के बीच मौजूदा समय में डॉ. आंबेडकर कितने चेतना-पुंज है और कितने आस्था-पुंज। साथ ही यह भी कि आंबेडकर के साथ राम क्यों?

बीते 14 अप्रैल 2019 को फूलपुर के बाबूबंज बाजार में यह नजारा देखने को मिला। पूछा तो जानकारी मिली कि तहसील के दस-बारह गांवों से निकलकर ये झांकियां आयी हैं। मन में कई सवाल एक साथ आ धमके। क्या आंबेडकर का हिंदूकरण करने का प्रयास किया जा रहा है या फिर यह आंबेडकर के सहारे राम को दलितों के बीच स्थापित करने की कोशिश है? एक सवाल यह भी कि क्या बाजार ने दलितों की संस्कृति और परंपरा को अपनी चपेट में ले लिया है जो वे भोजपुरी गीतों की पैरोडी के सहारे आंबेडकरवादी गीतों को प्रस्तुत कर रहे हैं? यह सवाल मेरे लिए इसलिए भी खास है क्योंकि अभी भी पूर्वांचल के इलाकों में नौटंकी का वह स्वरूप विद्यमान है, जिसके जरिए दलित अपने सवालों और विचारों को अभिव्यक्त करते हैं।

अंबेडकर जयंती में झांकी और जुलूस क्यों?

आंबेडकर जयंती के मौके पर झांकी और जुलूस निकालने का मकसद क्या है? यह सवाल मैंने फूलपुर तहसील के ही पाली गांव निवासी एक बुजुर्ग श्रीनाथ से पूछा। श्रीनाथ पहले लालाओं के यहां हरवाही करते थे। पूर्वांचल में लालाओं का मतलब लेखपाल होते हैं जिनके पास बहुत जमीन होती है।

आंबेडकर के साथ राम

श्रीनाथ जी ने बताया कि सब जमाने और चलन के हिसाब से हो रहा है। जैसे सवर्ण डीजे के साथ रामनवमी पर राम और सावन में शिव की झांकी निकालते हैं वैसे ही दलित समुदाय के युवा पीढ़ी के लड़के आंबेडकर जयंती पर आंबेडकर की झांकी निकाल रहे हैं। श्रीनाथ आगे बताते हैं कि हमने कभी भी आंबेडकर जयंती नहीं मनाई थी।

एक बार फिर विचार करते हैं। क्या दलितों ने उत्पीड़न-शोषण के विरोध में आंबेडकर जयंती मनाना शुरू किया है?

पिछले वर्ष 2018 में उत्तर प्रदेश में एक महत्वपूर्ण घटना हुई। दो लोकसभा क्षेत्रों – गोरखपुर और फूलपुर में बहुजन समाज पार्टी द्वारा समर्थित सपा उम्मीदवारों की जीत मिली। इसके बाद यह तय हो गया था कि सपा और बसपा के बीच गठबंधन होगा। इसके ठीक बाद एससी/एसटी एट्रोसिटी एक्ट को डायल्यूट करने के विरोध में 2 अप्रैल के भारत बंद में दलित समुदाय के साथ पिछड़ा वर्ग सड़कों पर उतरा था। 14 अप्रैल 2018 को आंबेडकर जयंती पर भी दलित और पिछड़े वर्ग के लोग बड़ी संख्या में एक साथ आकर आंबेडकर जयंती मनाई थी। इससे पहले 1 जनवरी 2018 को महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में हुई घटना ने भी दलितों को न केवल एकजुट होने बल्कि अपने दमन-उत्पीड़न के खिलाफ मजबूती दी।  

इससे पहले आंबेडकर जयंती का पर्व सिर्फ राजनीतिक दलों, अकादमिक, सरकारी संस्थानों और एनजीओ आदि के दफ्तरों में ही मनाया जाता था।

प्रतिवाद में मनायी जा रही है आंबेडकर जयंती

जाफरपुर गांव तहसील फूलपुर दिहाड़ी मजदूर रामजी कहते हैं कि “वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर जयंती पर मिलने वाली छुट्टी रद्द कर दी थी। गांव के दलित समुदाय के लोगों को यह बात बुरी लगी। लेकिन वे चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते थे। लोगों ने तय किया कि हम सब मिलकर आंबेडकर जयंती मनाएंगे और वह भी पूरे धूम-धाम से।”

दतईपुरा गांव के निवासी और भगौती प्रसाद कई बार ग्राम प्रधान पद के उम्मीदवार रह चुके हैं। वे पेशे से ट्यूटर हैं। उनके मुताबिक,  “वैसे तो हमारे यहां संत रैदास, भगवान वाल्मिकी, आंबेडकर जैसे कई दलित महापुरुष हैं, लेकिन हम इन्हें मनाते नहीं थे। इसकी दो वजहें थीं। एक तो हमारा समाज आर्थिक रूप से बेहद कमजोर था, और वह इन कार्यक्रमों पर सामूहिक खर्च करने की हालत में नहीं था, दूसरे हम सामंती समाज और सामंती प्रशासन व्यवस्था से किस तरह संवाद करें, हमें यह नहीं मालूम था।”

आंबेडकर को भगवा रंग में रंगने की कोशिश : आंबेडकर की तस्वीर और संदेश के साथ एक कांवर यात्री

भगौती प्रसाद आगे कहते हैं कि “हमारा समाज शिक्षित होने के साथ ही जागरुक भी हुआ है। इसलिए उसे लगता है कि हमें अपने समुदाय के महापुरुषों की जयंती सेलिब्रेट करनी चहिए। इसके अलावा यह एक तरह से प्रतिवाद भी है। आप देखिए कि पिछले 3-4 सालों में अधिकांश दलितों के शादी विवाह के कार्ड से गणेश, शिव और राम जैसी देवी-देवता गायब हुए हैं। उनकी जगह अब आंबेडकर और बुद्ध आ गए हैं।”

आंबेडकर के साथ राम क्यों?

झांकियों में शामिल कई लोगों से जब यह सवाल पूछा कि आंबेडकर के साथ राम क्यों झांकियों में विराजमान हैं, अधिकांश लोगों ने खुलकर जवाब नहीं दिया। कुछ का कहना था कि राम उनके भगवान हैं। वहीं कुछ के कहने का आशय यह रहा कि बाबासाहेब राम के समान ही भगवान हैं।

भोजपुरी गानों की पैरोडी पर आंबेडकरवादी गीत और शराब में झूमते लोग

खैर, यह देखकर खुशी हुई कि गांवों में भी शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ लोग आवाज उठाने लगे हैं। इसकी मुखर अभिव्यक्ति आंबेडकर जयंती के मौके पर देखने को भी मिली। साथ ही निराशा भी हाथ लगी जब आंबेडकर जयंती पर निकलनेवाली झांकियों के आगे-पीछे चलने वाले डीजे पर प्रचलित और अश्लील भोजपुरी गानों की पैरोडी बजाई जा रही थी और कुछ लोग शराब के नशे में झूम रहे थे। हालांकि कई दलित युवाओं और बच्चों को उत्साह देखने योग्य था। बेहतर होता कि डीजे का साउंड लाउड यानी कानफोड‍़ू होने के बजाय कम रहता तो लोग गीतों के बोल और उनमें शामिल आंबेडकर के विचारों को सुन-समझ पाते।

(कॉपी संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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