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कॉरपोरेट में भी महत्वपूर्ण है जाति, आईआईएम की रिपोर्ट में सामने आए तथ्य

एक रिपोर्ट के मुताबिक, अधिकांश कंपनियों का विलय समान जाति के मालिकाने वाली कंपनियों से ही होता है। यानी यदि किसी कंपनी  के मालिकों की सामाजिक पृष्ठभूमि ब्राह्मण की है तो वह कंपनी उसी कंपनी के साथ समझौते और विलय करना चाहती है जिसके मालिकों की पृष्ठभूमि भी ब्राह्मण हो

जाति के आधार पर वर्चस्व बनाए रखने की प्रवृति कॉरपोरेट हाउसों में भी होती है। हालत यह है कि कंपनियों के विलय से लेकर अन्य समझौतों तक में पहले जाति को देखा जाता है। यह सच्चाई आईआईएम, बैंगलोर के शोधार्थियों के शोध में सामने आई है। इस रिपोर्ट के तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि निजी क्षेत्रों में आरक्षण क्यों जरूरी है।

इस शोध पत्र को प्रो. मनस्विनी भल्ला, मनीष गोयल, माइकल जेमेल और तेजा कोंडुरी ने तैयार किया है। फोर्ब्स इंडिया पत्रिका द्वारा प्रकाशित खबर के मुताबिक इन शोधार्थियों ने 2000 से लेकर 2017 के बीच विभिन्न कॉरपोरेट कंपनियों के बीच हुए समझौतों का अध्ययन किया। इनके मुताबिक कॉरपोरेट कंपनियों में भी जाति निर्णायक फैक्टर है।

मसलन, यदि किसी कंपनी के मालिक अथवा मालिक समूह ब्राह्मण जाति के हैं तो अमूमन 50 प्रतिशत शीर्ष अधिकारी इसी समाज के होते हैं। वैश्य जाति के मालिकों की कंपनी में भी 55 प्रतिशत शीर्ष अधिकारी वैश्य समुदाय के होते हैं। जाति का यह असर अन्य समुदायों यथा राजपूत और शुद्र समुदायों के मामलों में भी होता है।

भारतीय कॉरपोरेट कंपनियों में जाति महत्वपूर्ण

इतना ही नहीं, कंपनियों के विलय में भी जाति महत्वपूर्ण होती है। अधिकांश कंपनियों का विलय समान जाति के मालिकाने  वाली कंपनियों से ही होता है। यानी यदि किसी कंपनी के मालिकान की सामाजिक पृष्ठभूमि ब्राह्मण है तो वह कंपनी उसी कंपनी के साथ समझौते और विलय करती है जिसकी पृष्ठभूमि भी ब्राह्मण हो।

आईआईएम, बैंगलोर के शोधार्थियों की इस रिपोर्ट से यह जगजाहिर होता है कि निचले स्तर के कर्मियों की जाति तो महत्वपूर्ण होती ही है, उच्च स्तर के अधिकारियों के मामले में भी ‘जाति’ निर्णायक होती है।

 हालांकि इससे पहले 2010 में एक शोध पत्र के अनुसार, भारतीय कॉरपोरेट बोर्ड रूम अब भी योग्यता या अनुभव से ज़्यादा जाति के आधार पर काम करता है। तब कनाडा की नॉर्थन ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के डी अजित, हान डोंकर और रवि सक्सेना ने 1,000 निजी और सरकारी शीर्ष भारतीय कंपनियों के बोर्ड सदस्यों का अध्ययन किया। इस रिपोर्ट में भी कहा गया था कि भारत में आमतौर पर किसी व्यक्ति के कुलनाम या सरनेम से उसकी जाति या वर्ण का पता चल जाता है। इंडियन कॉरपोरेट कंपनियों में सरनेम महत्वपूर्ण होते हैं। कॉरपोरेट जगत में सामाजिक संबंधों या नेटवर्किंग का बहुत महत्व है। भारतीय कॉरपोरेट बोर्डरूम अब भी योग्यता या अनुभव से ज़्यादा जाति के आधार पर काम करता है।

शोधकर्ताओं ने बोर्ड सदस्यों के कुलनाम के आधार पर उन्हें अगड़ी जाति, अन्य पिछड़ी जाति, ओबीसी, अनुसूचित जाति और जनजाति और विदेशी निदेशकों में बांटा। इन सभी कंपनियों में औसतन नौ बोर्ड सदस्य थे जिनमें से 88 प्रतिशत ‘स्वजातीय’ और 12 प्रतिशत ‘विजातीय’ निदेशक थे। अध्ययन में पाया गया कि 93 प्रतिशत बोर्ड सदस्य अगड़ी जातियों से थे जबकि अन्य पिछड़ी जातियों से सिर्फ़ 3.8 प्रतिशत निदेशक ही थे।

तब शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि कॉरपोरेट कंपनियों में ओबीसी या अनुसूचित जाति और जनजातियों के सीमित प्रतिनिधित्व की वजह सिर्फ़ योग्यता की कमी नहीं बल्कि कॉरपोरेट जगत में जाति का महत्वपूर्ण होना है।

बहरहाल, उपरोक्त दोनों शोधों में आए तथ्यों से यह बात स्पष्ट होती है कि कॉरपोरेट जगत में सामाजिक संबंधों या जाति की नेटवर्किंग का बहुत महत्व है। भारतीय कॉरपोरेट बोर्ड रूम अब भी योग्यता या अनुभव से ज़्यादा जाति के आधार पर काम करता है।

(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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