(सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता चर्चित लेखक अरविंद जैन की किताब ‘औरत होने की सजा’ को हिंदी के वैचारिक लेखन में क्लासिक का दर्जा प्राप्त है। यह किताब भारतीय समाज व कानून की नजर में महिलाओं की दोयम दर्जे को सामने लाती है। इसका पहला प्रकाशन ‘विकास पेपरबैक’, नई दिल्ली से 1994 में हुआ था। 1996 में इसे राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया। अब तक इसके
25 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। स्त्रीवाद व स्त्री अधिकारों से संबंधी अध्ययन के लिए यह एक आवश्यक संदर्भ ग्रंथ की तरह है। हम अपने पाठकों के लिए यहां इस किताब को हिंदी व अंग्रेजी में
अध्याय-दर-अध्याय सिलसिलेवार प्रकाशित कर रहे हैं। फारवर्ड प्रेस बुक्स की ओर से हम इसे अंग्रेजी में पुस्तकाकार भी प्रकाशित करेंगे। हिंदी किताब राजकमल प्रकाशन के पास उपलब्ध है। पाठक इसे अमेजन से यहां क्लिक कर मंगवा सकते हैं।
लेखक ने फारवर्ड प्रेस के लिए इन लेखों को विशेष तौर पर परिवर्द्धित किया है तथा पिछले सालों में संबंधित कानूनों/प्रावधानों में हुए संशोधनों को भी फुटनोट्स के रूप में दर्ज कर दिया है, जिससे इनकी प्रासंगिकता आने वाले अनेक वर्षों के लिए बढ गई है।
आज पढें, इस किताब में संकलित ‘अमीना की अस्मिता’ शीर्षक लेख। इसमें शादी की शिकार नाबालिग लड़कियों के संबंध में कानूनी प्रावधानों और पेचीदगियों के बारे में जानकारी दी गयी है – प्रबंध संपादक)
अमीना भारतीय समाज के उस कमजोर वर्ग की बेटी है, जहां बेटी पैदा होना ही अपशकुन माना जाता है और मां–बाप के लिए एक देनदारी। बेटी के गरीब बाप को हमेशा यह डर लगा रहता है कि न जाने कब शहर के गुंडे उसकी बेटी को उठाकर ले जायें, पुलिस के हाथों बलात्कार की शिकार हो जाये, दलाल महानगरों के कोठों पर बेच आयें, खुद बदचलन होकर सबकी नाक कटवा दे। बेटी है इसलिए पढ़कर भी क्या करेगी? जितनी जल्दी हो सके ब्याहो और ‘आफत’ से छुट्टी पाओ।
बेटी बेचने तक विवश बाप, उसके जवान होने की प्रतीक्षा का खतरा नहीं उठा सकता, क्योंकि उसकी संरक्षकता शायद बेटी की सुरक्षा कर पाने में सक्षम ही नहीं है। कुछ भी उल्टा–सीधा हो गया तो वह इस काबिल भी नहीं कि सालों न्याय के लिए कोर्ट–कचहरी करता फिरे। करेगा तो खायेगा क्या? और वकीलों को फीस देगा कहां से? भूखा रहकर मुकदमेबाजी कर भी ले, लेकिन फिर भी क्या उसके साथ न्याय होगा? शायद अमीना के गरीब मां–बाप ने भी इसीलिए अबोध बालिका का निकाह 60 वर्षीय सऊदी अरब के शेख सगीह के साथ कर दिया होगा। अमीना पहली और अकेली लड़की नहीं जो इस तरह ब्याह दी गई हो।
भारतीय कानून–व्यवस्था की यह कैसी विडंबना है कि अमीना–कांड के मुख्य अभियुक्त सऊदी अरब के 60 वर्षीय शेख सगीह को जमानत पर छोड़ दिया गया। काजी व अन्य लोगों के विरुद्ध अभी तक कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की गई, लेकिन निर्दोष और अबोध 11 वर्षीय अमीना को दिल्ली के ‘बाल–सुधार गृह’ में रखने के अदालती आदेश दिए गए।
पहला कानूनी सवाल यह है कि क्या अमीना का निकाह कानूनी रूप से वैध है, जो उसकी मर्जी के खिलाफ मगर मां-बाप की सहमति से हुआ है? इसके जवाब के लिए सबसे पहले यह तय करना होगा कि क्या वैध निकाह के लिए अमीना की सहमति अनिवार्य है और अगर हां तो क्या अमीना की सहमति थी या नहीं। अगर अमीना की सहमति अनिवार्य नहीं है तो कहना पड़ेगा कि निकाह वैध है मगर उस स्थिति में भी शेख और अमीना के पिता पर बाल-विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 की धारा-4 और 6 के अंतर्गत बाल-विवाह करने का मुकदमा चल सकता है और दोषी पाये जाने पर तीन माह तक की कैद और जुर्माना हो सकता है।[1] शेख पर लगाये गये अन्य अपराध अर्थहीन होंगे।
अगर विवाह कानूनी रूप से अवैध, रद्द या निरस्त माना जाता है तो उस स्थिति में शेख पर भारतीय दंड संहिता की अनेक धाराओं के तहत मुकदमा चल सकता है और आजीवन कैद तक की सजा हो सकती है। लेकिन निकाह वैध हो या अवैध, अमीना के पास इस जबरन विवाह से छुटकारा पाने का एक ही रास्ता है कि वह मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 की धारा 2 (सात) जिसमें यह प्रावधान है कि अगर किसी लड़की का निकाह उसके पिता या अन्य संरक्षक ने 15 साल की होने से पहले कर दिया हो तो वह लड़की 15 साल की होने के बाद मगर 18 साल की होने से पहले ऐसा विवाह मानने से इंकार कर सकती है और इस आधार पर अदालत में याचिका दायर करके तलाक ले सकती है। 15 साल की होने से पहले वह कुछ नहीं कर सकती।[2]
बाल विवाह कानून में झोल
सरकारी वकील का तर्क यह था कि अमीना की सहमति अनिवार्य है क्योंकि वह रजस्वला है इसलिए यह विवाह अवैध है और किसी भी प्रकार से विवाह ही नहीं है। सो तलाक लेने का सवाल ही नहीं उठता। लेकिन सवाल यह है कि मान लो विवाह अवैध है, तो भी इस बात का फैसला कौन करेगा? अमीना या अदालत?
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने ए.आई.आर. 1960 म.प्र. 24 पीर मोहम्मद कुकाजी बनाम राज्य सरकार के मुकदमे में भी कहा है कि नाबालिग लड़की की शादी अगर पिता ने कर दी है तो मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 की धारा 2 (सात) के अंतर्गत तलाक के लिए अदालती आदेश लेना अनिवार्य है। इस केस में बिना तलाक लिए लड़की की दूसरी शादी कर दी गई थी और पहला पति अपनी पत्नी को जबरदस्ती उठाकर ले गया था जिस पर पुलिस ने उसे भारतीय दंड संहिता की धारा-366 के अंतर्गत गिरफ्तार करके मुकदमा चलाया था। लेकिन हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि औरत ने अपने पहले पति से तलाक नहीं लिया है और इसलिए वह उसकी पत्नी है और अपनी ही पत्नी को ले जाना भारतीय दंड संहिता की धारा-366 के अंतर्गत कोई अपराध नहीं है जब तक कि कानूनी रूप से तलाक न लिया हो।
उपरोक्त व अन्य अदालती फैसलों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अमीना को अपना निकाह अवैध घोषित करवाने और तलाक लेने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना ही पड़ेगा जिसके बिना दुबारा विवाह संभव नहीं या जिसमें बहुत से पचड़े पड़ सकते हैं। भविष्य में कानूनी झंझटों से बचने के लिए भी यह जरूरी है कि 15 साल की होने के बाद अमीना अदालत में याचिका दायर करके इस विवाह को अवैध घोषित करवा के तलाक की डिग्री ले ले या शेख उसे तलाक दे दे।
लेकिन अमीना के हितों की रक्षा के लिए उसे बालगृह में रखना भी उचित नहीं लगता। उस बेचारी का आखिर क्या अपराध है? ‘कमला’ की तरह ‘अमीना’ को भी बालगृह या नारी–निकेतन से अगर गायब कर दिया गया तो अदालत क्या करेगी?
अमीना ने निकाह के नाम पर बेचने की परंपरा को सिर झुकाकर मानने से मना किया है। धर्म, कानून और रीति–रिवाजों की छाया में मां–बाप द्वारा अपने नाबालिग बच्चों का ब्याह करने के अधिकार को चुनौती दी है। औरत की अस्मत और अस्मिता को लेकर अमीना ने जो सवाल संविधान, संसद और समाज के सामने खड़े किए हैं क्या उसका जवाब सिर्फ ‘बाल–सुधार गृह’ है?
कई बार महसूस होता है कि सत्ता, समाज और संपत्ति पर पुरुषों का आधिपत्य होने के कारण ही ऐसे कानूनों का चक्रव्यूह रचा गया है, जिसमें औरत के बच निकलने का कोई रास्ता नहीं जबकि पुरुषों के भाग निकलने के हजारों चोर दरवाजे मौजूद हैं।
सभी धर्म के लोगों पर लागू बाल–विवाह अधिनियम, 1929 (शारदा एक्ट) और विशेषकर हिंदुओं के लिए बने हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5(तीन) में विवाह के लिए अन्य आवश्यक शर्तों में से एक शर्त यह भी है कि ‘‘विवाह के समय दूल्हे की उम्र 21 साल और दुल्हन की उम्र 18 साल से अधिक होनी चाहिए’’ लेकिन किसी भी प्रावधान के अंतर्गत कम उम्र होने के आधार पर विवाह को गैर–कानूनी, रद्द या अवैध नहीं माना जाएगा। हां! लड़की की उम्र अगर शादी के समय 15 साल से कम है और उसने 15 साल की होने के बाद मगर 18 साल की होने से पूर्व ऐसा विवाह स्वीकार करने से मना कर दिया है तो वह हिंदू विवाह अधिनियम की धारा-13 (2) (चार) या मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 की धारा 2(सात) के अंतर्गत तलाक दे सकती है लेकिन शादी के समय अगर लड़की की उम्र 15 साल से अधिक है तो वह इस आधार पर तलाक भी नहीं ले सकती। हालांकि, बाल–विवाह के लिए दोषी व्यक्तियों को अधिकतम तीन माह तक कैद या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं लेकिन अपराध संज्ञेय नहीं है और जमानत योग्य है। महिलाओं को इस अपराध के लिए सिर्फ जुर्माना हो सकता है।
शादी के समय दुल्हन की उम्र 18 साल से अधिक होनी चाहिए लेकिन भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा-375 के अपवाद में लिखा है, ‘‘अपनी ही पत्नी जिसकी उम्र 15 साल से कम न हो, के साथ सहवास करना बलात्कार नहीं है।”[3] भारतीय दंड संहिता की धारा-376 में अन्य बलात्कार के मामलों में कम-से-कम सात साल कैद और जुर्माना हो सकता है लेकिन अपनी ही पत्नी जिसकी उम्र बारह साल से अधिक मगर पंद्रह साल से कम हो, से बलात्कार की सजा में पति को ‘विशेष छूट’ मिलेगी। इसके लिए सिर्फ दो साल तक कैद या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।[4]
आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 में बलात्कार के अन्य सभी मामले संज्ञेय अपराध हैं और जमानतीय भी नहीं हैं लेकिन अपनी ही पत्नी के साथ बलात्कार (चाहे पत्नी की उम्र कितनी ही हो… यानी 12 साल से कम नहीं) के सभी मामले संज्ञेय अपराध नहीं हैं और ‘जमानत-योग्य’ भी हैं।[5]
बाल–विवाह के संदर्भ में सबसे अधिक हास्यास्पद कानूनी प्रावधान हिंदू अल्पवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा-6 है। उपधारा-(ए) में उल्लेख है, ‘‘अविवाहित बेटी का प्राकृतिक संरक्षक पिता और पिता के बाद माता होगी।’’ उपधारा– (सी) में कहा गया है कि ‘‘विवाहित लड़की के मामले में प्राकृतिक संरक्षक उसका पति होगा।’’ भले ही पति–पत्नी दोनों ही नाबालिग हों। नाबालिग पति, जो खुद अपने पिता के या मां के संरक्षकत्व में है, अपनी नाबालिग पत्नी और बच्चों (अगर हों) का कानूनन संरक्षक माना जाएगा। यह दूसरी बात है कि अगर नाबालिग पत्नी भारतीय आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-125 में भरण पोषण का दावा करे तो भरण–पोषण के लिए रकम नाबालिग दूल्हा कहां से देगा? क्या कानून यह रकम नाबालिग दूल्हे के पिता से वसूल कर सकता है?
1929 में बाल–विवाह निरोधक अधिनियम बनाते समय भी बाल–विवाह की वैधता को लेकर विवाद उठा था लेकिन तब तर्क यह दिया गया था कि हिंदू कानून में विवाह अटूट है सो कानून और धर्म के बीच द्वंद्व और अंतहीन विवादों से बचने के लिए विवाह अधिनियम में तलाक के प्रावधान बनाने के बाद उपरोक्त तर्क तो समाप्त हो गया लेकिन फिर दूसरा तर्क रखा गया कि अगर बाल–विवाह को अवैध घोषित कर दिया गया तो मौजूदा सामाजिक और आर्थिक स्थितियों में ऐसे कठोर कदमों से समस्यायें सुलझने की अपेक्षा और अधिक बढ़ जायेंगी। इसलिए यह सुझाव दिया गया कि ‘भविष्य के लिए लक्ष्य’ मान कर अभी छोड़ देना चाहिए।
सुरैम्मा बनाम गनपतलु (ए.आई.आर. 1975 आंध्र प्रदेश 193) में निर्णय दिया गया कि बाल–विवाह को वैध ठहराने से बाल–विवाहों की बाढ़ आ जाएगी इसलिए उम्र कम होने की स्थिति में विवाह रद्द और अवैध माना जायेगा। बाल–विवाह पर इस ऐतिहासिक फैसले का सारे देश में स्वागत किया गया लेकिन दो साल बाद ही आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट की पूर्ण पीठ ने एक अन्य मुकदमे वैंकट रमन बनाम राज्य सरकार (ए.आई.आर. 1977 आंध्र प्रदेश 43) में अपनी ही हाई कोर्ट के पूर्व फैसले को मानते हुए विवाह की वैधता को ही उचित ठहराया।
बाल–विवाह और हिंदू विवाह अधिनियम की व्याख्याओं से स्पष्ट है कि बाल विवाह भले ही दंडनीय अपराध हो लेकिन विवाह वैध माना जायेगा। मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 बनाने का मुख्य उद्देश्य यह था कि मुस्लिम कानून में औरतों को तलाक की स्वतंत्रता नहीं थी और विभिन्न वर्गों में भिन्न–भिन्न नियम थे। इस अधिनियम से पहले मुस्लिम कानून में नाबालिग लड़की की शादी के बारे में नियम यह था कि अगर पिता या दादा के अलावा किसी और ने नाबालिग का निकाह करवा दिया है तो ‘रजस्वला’ होने के बाद ऐसी शादी मानने से मना कर सकती थी और इस आधार पर तलाक ले सकती थी। तब यह तलाक काजी के सामने होना जरूरी था। 1939 के अधिनियम की धारा-2 (सात) में प्रावधान किया गया कि पिता, दादा या किसी भी अन्य व्यक्ति द्वारा अगर लड़की की शादी 15 साल से कम उम्र में कर दी गयी है तो लड़की 15 साल की होने के बाद मगर 18 साल की होने से पहले ऐसी शादी मानने से इंकार कर सकती है और इस आधार पर तलाक का मुकदमा दायर कर सकती है (बशर्ते कि सहवास नहीं हुआ हो)।
इस प्रावधान में लड़की के रजस्वला होने का कोई जिक्र नहीं है। सहवास के बारे में भी अदालतों ने अपने निर्णय में कहा है कि सहवास अगर 15 साल की होने से पहले हुआ है तो भी लड़की के तलाक के अधिकार पर कोई असर नहीं पड़ेगा (ए.आई.आर. 1955 लाहौर 133)।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा-13 (2) (चार) में भी ऐसा ही प्रावधान किया गया है कि अगर लड़की की शादी 15 साल की उम्र से पहले हो गई हो तो वह 15 साल की होने के बाद मगर 18 साल की होने से पहले ऐसा विवाह मानने से इंकार कर सकती है और इस आधार पर तलाक ले सकती है। इस अधिनियम में यह प्रावधान स्पष्ट किया गया है कि इसके लिए जरूरी नहीं है कि सहवास हुआ है या नहीं। मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 और हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की उपरोक्त धाराओं से स्पष्ट है अगर लड़की की शादी 15 साल की होने के बाद हुई है तो इस आधार पर तलाक भी नहीं ले सकती। दूसरे यह कि तलाक के लिए अदालत में याचिका दायर करके अदालती आदेश लेना अनिवार्य है वरना विवाह की वैधता बनी रहेेगी। अदालत से तलाक का आदेश लिए बिना दूसरा विवाह रद्द माना जायेगा और भारतीय दंड संहिता की धारा-494 के तहत दंडनीय अपराध भी। (ए.आई.आर. 1973 केरल 176)।
दूसरा विवाह (तलाक लिए बिना) करने के बाद अगर पहला पति जबर्दस्ती पत्नी को उठाकर ले जाये तो भी वह भारतीय दंड संहिता की धारा-366 के अंतर्गत अपहरण का अपराध नहीं माना जायेगा (ए.आई.आर. 1960 मध्य प्रदेश 24), तीसरे कि तलाक का दावा 15 साल की होने के बाद किया जा सकता है, उससे पहले नहीं मगर किसी भी स्थिति में 18 साल की होने से पहले दावा दायर होना जरूरी है।
ऐसे में अमीना के सामने सिर्फ एक ही रास्ता बचा है कि वह 15 साल की होने के बाद मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 की धारा-2(सात) के अंतर्गत तलाक का दावा दायर कर सकती है। इसके लिए, पहले 15 साल की होने की प्रतीक्षा और फिर सालों तलाक के लिए कोर्ट–कचहरी। कहने की आवश्यकता नहीं कि मुकदमेबाजी के लिए वकीलों की फीस और ऊपरी अदालती खर्चा अलग करना पड़ेगा क्योंकि कानून के अनुसार विवाह के वैधता का निर्णय अमीना नहीं, अदालत ही कर सकती है। सालों से चली आ रही परंपरा को सिर झुकाकर न मानने का इतना कष्ट तो उठाना ही पड़ेगा। परंपरा–विरोधियों के साथ न्याय (या सबक सिखाने) का यही रास्ता तय किया है पुरुष समाज द्वारा गढ़ी व्यवस्था ने।
मुस्लिम कानून के विद्वान विशेषज्ञों और सरकारी वकीलों का कहना है कि यह निकाह अवैध है इसलिए विवाह ही नहीं है और तलाक लेने का भी कोई सवाल ही नहीं उठता क्योंकि अमीना शादी के समय रजस्वला थी और निकाह उसकी सहमति के बिना हुआ है। अगर यह तर्क सही है तो फिर मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम की धारा-2 (सात) में 15 साल उम्र की बजाय रजस्वला होने तक का उल्लेख क्यों नहीं है? संसद अगर चाहती तो कर सकती थी लेकिन शायद ऐसा इसलिए नहीं किया गया कि रजस्वला होने की कोई एक उम्र तय नहीं है। 15 साल की उम्र इसलिए तय की गई होगी ताकि कोई भ्रम या संदेह न रहे। इस प्रावधान के अनुसार पिता, दादा या संरक्षक द्वारा लड़की को निकाह में देने का अधिकार अंतर्निहित है। नाबालिग लड़की की सहमति या असहमति का कानून में कोई अर्थ नहीं, इसीलिए यह प्रावधान बनाया गया है। तलाक लेना भले ही जरूरी न हो लेकिन अब तक के अदालती फैसलों के आधार पर यह कहना भी अनुचित नहीं कि भविष्य के विवादों से बचने के लिए तलाक का दावा दायर करना आवश्यक है।
वास्तव में हमारे देश के मौजूदा बाल–विवाह कानून इतने कमजोर, अंतर्विरोधी और विसंगतियों से भरे पड़े हैं कि हर साल हजारों नाबालिग लड़के–लड़कियों का विवाह राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, व अन्य राज्यों में होता है। हैदराबाद व अन्य शहरों से अनेक लड़कियां खाड़ी के देशों में दुल्हन बनाकर भेज (बेच) दी जाती हैं। कानून अपनी जगह (जैसा भी) है और समाज की ऐतिहासिक, धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियां अपनी जगह। दोनों के बीच संतुलन होना जरूरी है। सामाजिक स्वीकृति के बिना कानून का शायद कोई अर्थ नहीं और बदलते समाज की जरूरत के अनुसार कानून बदलना भी जरूरी है। सिर्फ कानून बनाना ही नहीं उसका सख्ती से पालन भी होना चाहिए।
क्या उपरोक्त कानूनी विसंगतियां संविधान के विरुद्ध नहीं? क्या इन अंतर्विरोधों के रहते बाल–दुल्हनों को
कानून के समक्ष समान संरक्षण दिया जा सकता है? क्या उपरोक्त बाल–विवाह कानून के प्रावधानों की छत्रछाया में अमीना जैसी अबोध बालिकाओं के लिए अनुच्छेद-21 में दिये व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का कोई अर्थ है? अनुच्छेद-23 में ‘शोषण के विरुद्ध अधिकार’ के अंतर्गत ‘मानव का दुव्र्यवहार’ की व्याख्या क्या निकाह के नाम पर बेटियां बेचने की परंपरा को रोक सकती है? क्या बच्चों के संदर्भ में पिता को दियेे अधिकार बच्चों को उनकी जायदाद मानकर दिये गये हैं? क्या विवाह के अनिवार्य पंजीकरण के बिना बाल–विवाह कानूनों का पालन संभव है?
अमीना–कांड प्रकरण या हादसा भारतीय समाज, संसद, सरकार, प्रेस, बुद्धिजीवियों, अदालतों, न्यायाधीशों और वकीलों के लिए अब तक बनी या बनाई कानून और समाज–व्यवस्था पर पुनर्विचार और समुचित संशोधन का एक बहाना भी बनता है तो इसे, शायद भावी पीढ़ियां ‘भूल सुधार’ मानकर क्षमा कर दें। अन्यथा समाज, संविधान और संसद आखिर ऐसा मजाक कब तक करती रहेंगी? अदालतें कब तक कहती रहेंगी कि ‘‘पत्नी संपत्ति है और मेहर उसकी कीमत?’’ (ए.आई.आर. 1934 कलकत्ता 693)।
(मूल लेख ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ 1991 में प्रकाशित हुआ था। बाद में लेखक ने इसे अपनी किताब ‘औरत होने की सजा’, 1996 में संकलित किया)
(कॉपी संपादन : इमामुद्दीन/नवल)
1] हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 या मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 में बिना कोई संशोधन किये ही बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 पारित हुआ, जिसमें कुछ संशोधन किये गए. यह अधिनियम भारत के सभी धर्म के लोगों पर लागू है, सिवा जम्मू-कश्मीर के. विवाह के लिए लड़की की उम्र 18 और लड़के कि 21 साल होनी चाहिए. बाल विवाह को संज्ञेय अपराध माना जायेगा और सज़ा पहले से बढाई गई है. लेकिन आश्चर्यजनक है कि धारा 9 के अनुसार सज़ा सिर्फ बालिग़ युवक को ही हो सकती है. अगर 18 साल से कम उम्र का लड़का विवाह करे, तो कोई सज़ा नहीं. मतलब नाबालिग लड़का-लड़की विवाह करें तो दंड का कोई प्रावधान नहीं. सभी कानूनों में समुचित संशोधन ना होने-करने की वजह से बहुत से अन्तर्विरोध और विसंगतियां अभी भी बची हुई हैं. क्या बाल विवाहों को खुली छूट देने का यह ‘चोर रास्ता’ जानबूझ कर नहीं छोड़ा गया है? देखें लेख- ‘बाल विवाह कानून में झोल’. इस संदर्भ में लज्जा देवी बनाम दिल्ली राज्य (याचिका नंबर 338/ 2008, निर्णय दिनांक 27 जुलाई, 2012) दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्ण खंड पीठ (न्यायमूर्ति अर्जन सीकरी, वी.के. शाली और संजीव खन्ना) का फैसला उल्लेखनीय है. महादेव की तरफ से बहस लेखक ने की थी.
http://lobis.nic.in/ddir/dhc/AKS/judgement/14-092012/AKS27072012CRLW3382008.pdf
[2] हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 या मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 में यह प्रावधान सिर्फ लड़कियों के लिए ही है लेकिन बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 कि धारा 3 में अब यह प्रावधान लड़कों को भी उपलब्ध होगा. बालिग़ होने के दो साल तक लड़का या लड़की बाल विवाह को अवैध ठहराने के लिए अदालत में याचिका दायर कर सकते है.
[3] 2013 में हुए संशोधन के अनुसार सहमति से संभोग की उम्र 16 साल से बढ़ा कर 18 कर दी गई लेकिन पत्नी के मामले में उम्र 15 साल ही रहने दी गई. बाद में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और दीपक गुप्ता कि खंडपीठ ने (याचिका नंबर 382/2013 दिनांक 11 अक्टूबर, 2017) कहा कि 15 से 18 साल की पत्नी से सहवास को भी बलात्कार माना जायेगा. 18 साल से बड़ी उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार का कानूनी अधिकार अभी भी बना हुआ है. इसके बारे में कहना कठिन है कि न्यायिक विवेक कब सोचना शुरू करेगा! https://www.sci.gov.in/supremecourt/2013/17790/17790_2013_Judgement_11-Oct-2017.pdf
[4] 2013 में हुए संशोधन के अनुसार अपनी ही पत्नी जिसकी उम्र बारह साल से अधिक मगर पंद्रह साल से कम हो, से बलात्कार की सजा में पति को ‘विशेष छूट’ वाले इस प्रावधान को अब हटा दिया गया है.
[5] पति को ‘विशेष छूट’ का यह प्रावधान अब समाप्त हो गया है.
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें
मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया