केंद्र सरकार के नये फैसले के बाद जम्मू-कश्मीर भले ही केंद्र शासित राज्य बन चुका है, पर आरक्षण को लेकर अभी भी स्थिति स्पष्ट नहीं है। कमाल यह है कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने जैसे आरएसएस के एजेंडे को लागू करने के लिए केंद्र सरकार ने दलितों और ओबीसी के नाम का इस्तेमाल किया है और जब लाभ दिलाने की बारी आई है तो उसे ग़रीब सवर्णों की ही याद आई।
दरअसल, केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में प्रभावी अनुच्छेद-370 को समाप्त कर दिया है और अब यह प्रांत दो केंद्र शासित राज्यों में बंट चुका है। 5 अगस्त 2019 को राज्यसभा में इस आशय का विधेयक पेश करने के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री ने कहा कि सरकार के इस कदम से जम्मू-कश्मीर में अब दलितों और ओबीसी को भी आरक्षण का लाभ मिल सकेगा। यहां तक कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपनी टिप्पणी में कहा है कि इससे डॉ. आंबेडकर का सपना पूरा होगा। परंतु, सदन में हुआ इसके ठीक विपरीत। केंद्रीय गृह मंत्री ने जम्मू-कश्मीर में दस फीसदी आरक्षण गरीब सवर्णों को दिए जाने संबंधी विधेयक पेश किया।
जाहिर तौर पर जब अमित शाह सदन में यह कह रहे थे तब उनकी मंशा यही थी कि अनुच्छेद 370 को हटाने संबंधी फैसले को भारत के बहुसंख्यक दलित-ओबीसी अपना समर्थन दें।
काबिले गौर यह भी है कि 5 अगस्त को ही अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने संबंधी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अधिसूचना को सदन के पटल पर रखने से पहले केंद्रीय गृहमंत्री ने जम्मू-कश्मीर में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए दस फीसदी आरक्षण लागू करने संबंधी विधेयक पेश किया। दलितों और ओबीसी को ज़्यादा आरक्षण देने की बात की कोई चर्चा नहीं हुई, इस बारे में विधेयक पेश करने की बात तो दूर रही।

बताते चलें कि अनुच्छेद 356 के प्रावधानों के मुताबिक भारत के किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन होने पर विधानसभा में निहित शक्तियां, कर्तव्य व अधिकार संसद के दोनों सदनों के पास होती हैं। चूंकि जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन है, ऐसे में वहां आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को दस फीसदी आरक्षण का लाभ दिलाने के लिए यह जरूरी था कि सदन के दोनों सदनों में इसे पारित कराया जाए। केंद्र सरकार ने इस कार्य को बखूबी अंजाम दिया।

लेकिन इस मामले में एक तथ्य और है। 28 जून 2018 को लोकसभा अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर आरक्षण अधिनियम में संशोधन के लिए एक विधेयक पेश किया था। इस विधेयक को भी दोनों सदनों की स्वीकृति मिल गयी थी। विधेयक पेश करते हुए गृहमंत्री ने कश्मीर के सीमावर्ती इलाकों में रह रहे लोगों की दिक्कतों का जिक्र किया और कहा कि उन्हें राज्य की आरक्षण व्यवस्था का लाभ मिलना चाहिए।
इस विधेयक के तहत जम्मू कश्मीर में अंतरराष्ट्रीय सीमा के 10 किलोमीटर के दायरे में रहने वाले लोगों के लिए शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 3 फीसदी आरक्षण को विस्तार दिया गया। सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के बजाय इसके लिए सरकार ने तर्क दिया था कि इस इलाके को पाकिस्तानी सेना की फायरिंग का सामना करना पड़ता है, जिससे लोगों को अक्सर सुरक्षित जगहों पर जाने के लिए बाध्य होना पड़ता है।आए दिन सीज फायर उल्लंघन की घटनाओं में अन्तर्राष्ट्रीय सीमा से लगे व्यक्तियों को युद्ध जैसी स्थिति का सामना करने की वजह से सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को झेलना पड़ता है।
ध्यातव्य है कि तीन फीसदी उपरोक्त आरक्षण उसी 27 फीसदी में से दिया गया जिसे मंडल कमीशन की अनुशंसाओं के अनुरूप जम्मू-कश्मीर में लागू किया था। तब जम्मू-कश्मीर की तत्कालीन सरकार ने 27 फीसदी आरक्षण में से ओबीसी को केवल 2 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया था।
ऐसा नहीं है कि उपरोक्त तथ्य केंद्र सरकार से छिपे हैं और ऐसी स्थिति में फिर ओबीसी और दलितों के साथ वहाँ होने वाले भेदभाव को तो तत्काल दूर किया जाना चाहिए था।
इस संबंध में ऑल इंडिया एससी, एसटी, ओबीसी कनफेडरेशन के जम्मू-कश्मीर प्रांत के संयोजक आर. के. कल्सोत्रा के मुताबिक केंद्र सरकार ने भले ही जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित राज्यों में बांट दिया है लेकिन आरक्षण के सवालों को जस का तस छोड़ दिया है। उन्होंने बताया कि केंद्र सरकार ने अनुच्छेद-370 के खात्म के बाद अब जम्मू-कश्मीर में 106 कानून प्रभावी हो गए हैं। लेकिन इनमें मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने आदि के प्रावधान नहीं हैं। बेहतर तो यह होता कि दिल्ली की हुकूमत इस दिशा में भी पहल करती।
(कॉपी संपादन : अशोक)
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