डॉ. आंबेडकर के समय दलित वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों की संख्या बहुत कम थी। लेकिन अब परिस्थिति बदल चुकी है। दलितों के हक-हुकूक के प्रावधान संविधान में हैं। इसलिए अब यह कहने से बात नहीं बनेगी कि अधिकार नहीं दिया जा रहा है। बाजारवाद ने मनु और ब्राह्मण को खत्म कर दिया है और हम यह कह सकते हैं कि नए-नए वाद बाजारवाद के चक्कर में पैदा हो रहे हैं। इसे वृहद रूप में सोच के दायरे में लाना पड़ेगा। ये बातें पूर्व केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री व बिहार विधान परिषद के सदस्य डॉ. संजय पासवान ने 10 अगस्त 2019 को नई दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के तत्वावधान में संस्कृति संवाद श्रृंखला-13 के तहत दो दिवसीय संगोष्ठी के पहले दिन अपने संबोधन में कही। इस मौके पर दलित कवि मलखान सिंह के निधन पर शोक व्यक्त किया गया।
अपने संबोधन में डॉ. संजय पासवान ने कहा कि अब चूकने का समय नहीं रह गया है।समाज तेजी से बदल रहा है और इस बदलाव को समझने की जरूरत है। सिर्फ आरोप प्रत्यारोप से काम नहीं चलेगा। समाज को बिना समझे और देश को बिना जाने न तो समाज बदल सकता है और न देश को जाना जा सकता है। संविधान में जो अधिकार हर भारतीय को मिला हुआ है वह हमें भी है और इस अधिकार का जो हनन कर रहा है उसका विरोध सम्यक तरीके से वाद, संवाद से जरूरी है। लेकिन सिर्फ बातों से आहत होकर स्टीरियो टाइप नारे लगाना या फिर विरोध जताना समाज और समुदाय का हित कहीं से भी नहीं है। हमें उत्पीड़ित की छवि से बाहर निकलना होगा।
पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि सबसे बड़ा सवाल यह है कि दोष किस पर मढ़ा जाए? व्यवस्था की बात करें तो इसकी कई कैटेगरी हैं, मसलन राज सत्ता, समाज सत्ता, धर्म सत्ता व धन सत्ता। क्या तमाम चीजों के लिए एक संस्था को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? सिर्फ दोषारोपण कर देने भर से काम नहीं चलने वाला है, दावे करने होेंगे, न मिले तो बार-बार अपना अधिकार जताना होगा। व्यवस्थाएं किसी की भी वामपंथी और दक्षिण पंथी कोई भी हो सकती है। समय आ गय है कि अब बंजर भूमि को उपजाऊ बनाना पड़ेगा। जमींदार और चौकीदार दोनों को समझना होगा। इस समय सबकी एक सी स्थिति है।
उन्होंने कहा कि राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और अन्य स्तर पर परिवर्तन हो रहे हैं और इन परिवर्तनों को सकारात्मक मानकर हमें अपने मिशन पर काम करने की जरूरत है। समाज के समक्ष जो सवाल हैं, उन्हें वाद, विवाद और संवाद के जरिए सुलझाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि हमें यह भी समझना चाहिए कि अपने समाज में भी नए-नए सामंत पैदा हो गए हैं। बिहार और उत्तरप्रदेश की बात करें तो बिहार में पासवान के खिलाफ 22 जातियां महादलित के रूप खड़ी हो गई हैं जबकि कमोबेश यही हाल उत्तर प्रदेश की चमार जाति के साथ है। इसके खिलाफ भी दलित समाज की जातियां खड़ी हो गई हैं। हमें इस तरह के बिखराव को रोकना होगा और हमारे नीचे जो हैं, उसे भी देखना होगा और उन्हें आगे लाने के उपक्रम में जुटना होगा।
इसके पहले पूर्व रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा ने उदघाटन सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि संवाद के जरिए हम उन सभी चीजों का आकलन कर सकते हैं जो हमें नागवार गुजरता हो। आधुनिक दृष्टिकोण से संकल्प के रुप में हमें परिवर्तित होना पड़ेगा तभी सामाजिक परिवर्तन सामने दिखेगा। उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता के सात दशक के बाद भी समाज के लिए जो काम होना चाहिए वह नहीं हुआ। यह चिंता का विषय है।
पूर्व सांसद व भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे भागीरथ प्रसाद ने कहा कि इसमें दो राय नहीं कि दलितों का दर्द दलित साहित्य से सामने आया है लेकिन आज वैसी स्थिति नहीं है। सोशल पावर की उस थ्योरी की वजह से जिसके मुताबिक अदृश्य पावर से हर आदमी समाज में पोजीशन ले लेता है। इसलिए रोना-धोना बंद कर संविधान में मिले अधिकार को हासिल करने के लिए आगे आएं। लोकतंत्र है, संविधान आपके पक्ष में है आगे बढ़ें और जरूरत पड़ने पर संघर्ष से भी नहीं हिचकें। ताकत, शिक्षा व संगठन से अधिकार हासिल किया जा सकता है, घर बैठे नहीं मिल सकता। ग़ालिब ने भी कहा है कि हक मांगा न जाए, छीना जाए।
पूर्व सांसद ने कहा कि मानव समाज का एक अनुक्रम रहा है कि अन्याय होने पर प्रतिकार और उसके बाद अन्याय का खात्मा। संविधान में अधिकार कागज पर है, आपको उसे हासिल करने के लिए आगे आना होगा। इसका एकमात्र मूलमंत्र है विकर्षित बनो, समर्थित बनो और संघर्ष करो। हर एक को साथ लेकर चलना होगा तभी मंजिल पर पहुंचा जा सकता है। उन्होंने कहा कि सबका साथ लेने की बात इसलिए कहीं जा रही है कि पहले अपने समाज के ही लोगों ने समाज का भला नहीं किया, अपना और अपने परिवार का ही भला किया।
इस मौके पर दलित चिंतक-लेखक जयप्रकाश कर्दम, प्रोफेसर हंसराज सुमन, लीलाधर मंडलोई, राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्य सचिव चंद्रमुखी देवी, पटना विश्वविद्यालय की डॉ. प्रेमांशी जयदेव, दिल्ली, दिल्ली विश्वविद्यालय की डॉ. कौशल पंवार, शिक्षाविद रवि कांबले, जामिया के प्रो. श्रीनिवास बाथुला, जेएनयू के प्रोफेसर राजेश पासवान सहित अन्य लोगों ने भी अपनी बात रखी।
(काॅपी संपादन : नवल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें
मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया