(गत 19 अगस्त, 2019 को प्रसिद्ध गांधीवादी कुमार प्रशांत पर उड़ीसा में आजादी की लड़ाई में आरएसएस की नकारात्मक भूमिका चिन्हित करने पर एफआईआर दर्ज करवाई गई थी। इस संदर्भ में प्रस्तुत है उनका वक्तव्य )
ओडिशा सरकार के आमंत्रण पर पिछले कोई 8 दिन (15-23 अगस्त) से मैं ओडिशा के दौरे पर था। भुवनेश्वर, भद्रक, राउरकेला, संबलपुर के विभिन्न हिस्सों और ग्रामीण अंचलों में ओडिशा गांधी शांति प्रतिष्ठान और ओडिशा राष्ट्रीय युवा संगठन के साथियों ने महात्मा गांधी की 150वीं जयंती का संदर्भ लेकर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया था। स्थानीय साथियों ने मेरे दौरे को ‘गांधी-कथा’ का नाम दिया था। यह मेरे उसी प्रयास का हिस्सा था जिसके तहत पिछले कुछ वर्षों से मैं गांधी और उनके दौर के इतिहास से जनमानस को परिचित कराता रहा हूं।
जनता तक इतिहास की सच्चाइयां पहुंचाने के इस निर्दोष प्रयास को इस बार ओडिशा के नागरिकों, बुद्धिजीवियों, अधिकारियों व मीडिया में ऐसी अपूर्व स्वीकृति मिली जिसने मुझे भी अचरज में डाल दिया।
लेकिन ओडिशा का एक तबका ऐसा भी सामने आया जिसे इतिहास की यह सच्चाई रास नहीं आई। उन्होंने प्रायः हर जगह मेरे कार्यक्रमों में शिरकत की, मेरी बातें सुनीं, सवालों के मौकों पर दो-एक सवाल पूछे। मुझे कहना ही चाहिए कि उन्होंने कहीं भी सभा में अशांति फैलाने की कोशिश नहीं की। कोशिश एक दूसरे स्तर पर की गई कि अचानक ही मेरे खिलाफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्थानीय अधिकारियों ने पहले कंधमाल में और फिर कटक में एफआईआर दर्ज कराई और मांग की कि तथ्यहीन इतिहास का प्रचार कर हमारी भावनाओं को ठेस पहुंचाने तथा कश्मीर के संदर्भ में राष्ट्रविरोधी बातें कर, कश्मीर के लोगों को भड़काने के जुर्म में मुझे तुरंत गिरफ्तार किया जाए।
मैं समझ नहीं पाया कि जब मैं सवालों के लिए श्रोताओं को आमंत्रित करता था तब सवाल न पूछने और फिर पुलिस में जाकर मेरी गिरफ्तारी की मांग करने का मतलब क्या हुआ! सत्य में जिनका भरोसा नहीं होता है शायद वैसे लोग ही सत्य को रोकने के लिए सत्ता का सहारा लेते हैं।

हालाँकि सरकार, ओडिशा की मीडिया, ओडिशा के मेरे मित्रों-सहयोगियों, ओडिशा के गांधीजनों और राष्ट्रीय युवा संगठन के युवा साथियों की सहृदयता और समझदारी से मेरा दिल भरा हुआ है।
देश में पिछले दिनों से ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि नागरिकों के बीच विचार-विमर्श बंद-सा हुआ है। संख्या या भीड़ के जोर से दूसरों को चुप कराना और सरकारी तंत्र की मदद से अपनी, और सिर्फ अपनी बात का शोर मचाना लोकतंत्र का गला घोंटने के समान है। लोकतंत्र का मतलब ही है असहमतियों के बीच स्वस्थ संवाद। लेकिन देख रहा हूं कि ऐसी असहमतियों के प्रति शासक दल और उससे जुड़े हिन्दुत्व के संगठनों में गहरी असहिष्णुता है। महात्मा गांधी से जुड़े इतिहास का विश्लेषण करते हुए मैं अपने लेखों और व्याख्यानों में जो कुछ लिखता-कहता हूं वह विशुद्ध ऐतिहासिक सत्य है। मैं किसी व्यक्ति, संस्था, संगठन के खिलाफ दुर्भावना से कुछ भी असत्य नहीं कहता हूं। गांधी का एक अदना सिपाही होने के नाते मैं ऐसा करने की सोच भी नहीं सकता हूं। मेरा गांधी-संस्कार मुझे इसकी इजाजत नहीं देता है।
कांग्रेस व दूसरे राजनीतिक दलों की तरह ही भारतीय जनता पार्टी व संघ परिवार में भी मेरे अनगिनत मित्र हैं, जो वर्षों से मुझे जानते हैं। मुझे पता नहीं है कि वहां अब अभिव्यक्ति की कितनी आजादी बाकी रह गई है लेकिन वे मित्र भी दिल में यह गवाही देंगे ही कि गहरी वैचारिक असहमतियों के बावजूद उन सबसे मेरे मैत्री-भाव बने ही रहे हैं। सहृदयता के साथ सत्य पर टिके रहना गांधी के सिपाही की बुनियाद है। मुझे जानने वाले सभी जानते हैं कि मेरी यह बुनियाद कमजोर नहीं है। गालियों, निजी आरोपों, पुलिस-अदालत की धमकियों, यहां-वहां एफआईआर जैसे हथियारों से मुझे डराने या चुप कराने की बचकानी कोशिशें व्यर्थ हैं। उससे कहीं ज्यादा परिणामकारी यह होगा कि आप मेरी बातों को, मेरे तथ्यों को बेबुनियाद साबित करें।
हमारे पास जो दुधमुंहें, इतिहास से अनजान बच्चे आते हैं या हम जिन्हें विभिन्न कारणों से अपने प्रभाव में लाते हैं उन सबके मन में असत्य व द्वेष का जहर भरना पाप समान है। यह उन्हें इंसानियत से गिराने की गर्हित कोशिश है जो उन्हें भी, उनके परिवार को और भारतीय समाज को भी अमानवीय बना रहा है, महात्मा गांधी ऐसी ही जहरीली ताकतों के हाथ मारे गये थे। हमें यह विष-चक्र फिर से चलाना नहीं चाहिए। ईश्वर हमें सद्बुद्धि दे।
(संपादन : नवल/इमामुद्दीन)
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