हाल ही में टाटा ट्रस्ट ने ‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट-2019’ जारी की है। इसमें सरकारी आँकड़ों का इस्तेमाल करते हुए भारतीय न्याय और क़ानून व्यवस्था का अध्ययन किया गया है। हालांकि कई राज्य ऐसे भी हैं जिनके आंकड़े उपलब्ध नहीं है। लेकिन जिन 22 राज्यों से आंकड़े जुटाए गए हैं, वहां पाया गया कि पुलिस तंत्र की हालत बेहद ख़राब है।
रिपोर्ट के मुताबिक, देश भर में पुलिस बल न सिर्फ मानव और संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं बल्कि इनमें दलित और महिलाओं समेत तमाम वंचित तबक़ों की भागीदारी भी पर्याप्त संख्या में नहीं है। ऐसे हालात में ग़रीब और वंचितों की न्याय और सुरक्षा पाने की उम्मीदों को और भी धक्का लगता है। सामाजिक विविधता न होने के चलते पुलिस बल की विश्वसनीयता के अलावा बराबरी की अवधारणा पर भी सवाल उठते हैं।
हाल ही में टाटा ट्रस्ट ने सेंटर फॉर सोशल जस्टिस, कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव, दक्ष, टिस-प्रयास और विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी जैसी सामाजिक संस्थाओं के साथ मिलकर देश भर में अध्ययन किया। इस अध्ययन में पुलिस के अलावा न्यायपालिका, जेल और क़ानूनी सहायता जैसे न्याय प्रणाली के प्रमुख स्तंभों को समझने की कोशिश की गई। इसके बाद जो आंकड़े मिले हैं, वे काफी चौंकाने वाले हैं। रिपोर्ट बताती है कि जिन संस्थाओं पर लोगों को सुरक्षा और न्याय दिलाने की ज़िम्मेदारी है, वे ख़ुद बदहाली से जूझ रहे हैं।

‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट-2019’ बताती है कि देश में प्रत्येक एक लाख नागरिकों पर औसतन 151 पुलिसकर्मी ही उपलब्ध हैं। यानि हर पुलिसकर्मी पर 660 से भी ज़्यादा लोगों की सुरक्षा का ज़िम्मा है। पुलिस तंत्र न सिर्फ कर्मियों की कमी से जूझ रहे हैं बल्कि इनमें सामाजिक विविधता की भी भारी कमी है। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ तमाम पुलिस बलों में महिलाओं की हिस्सेदारी 7 प्रतिशत से भी कम है। महिला सशक्तिकरण के नज़रिए से यह बिल्कुल भी उत्साहजनक नहीं है। ख़ासकर महिलाओं के प्रति अपराधों की प्रवृत्ति अक्सर ऐसी होती है कि उन्हें मदद के लिए महिला पुलिसकर्मी की ही दरकार होती है। ऐसे में महिला पुलिसकर्मियों की कमी आधी आबादी के लिए न्याय की उम्मीदें धुंधला करती है।

जिन लोगों को लगता है कि सामाजिक न्याय के लिए पुलिस में विभिन्न जाति, धर्म और संप्रदायों के लोगों की भर्ती होनी चाहिए उनके लिए आंकड़े और भी हतोत्साहित करने वाले हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ पुलिस बलों की मौजूदा स्वीकृत संख्या के लिहाज़ से क़रीब 20 प्रतिशत पद ख़ाली पड़े हैं। इनमें भी आरक्षित पदों के लिहाज़ से रिक्तियां और ज़्यादा हैं।
सारणी 1 :ओबीसी के सबसे अधिक रिक्तियों वाले तीन राज्य
पश्चिम बंगाल | 82% |
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राजस्थान | 73% |
उत्तर प्रदेश | 67% |
रिपोर्ट बताती है कि उत्तर प्रदेश पुलिस में अधिकारी स्तर पर अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित पदों में रिक्ति की दर 68 प्रतिशत, हरियाणा में 59 प्रतिशत जबकि बिहार में ये 48 प्रतिशत है। अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित पदों पर भर्ती के मामले में सबसे बुरा रिकॉर्ड पंजाब राज्य का है। यहां इन पदों पर रिक्ति की दर 100 प्रतिशत है। वहीं हरियाणा में 89 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 70 प्रतिशत है। इसी तरह पश्चिम बंगाल में ओबीसी के लिए आरक्षण के लिहाज़ से रिक्तियों की दर 82 फीसदी है, राजस्थान में यह दर 73 प्रतिशत है। जबकि उत्तर प्रदेश में यह 67 फीसदी है। इस लिहाज़ से कहा जा सकता है कि राज्य पुलिस में अधिकारी स्तर पर भी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी वर्ग के लोगों की अनदेखी की जा रही है।
सारणी 2 : एससी के सबसे अधिक रिक्तियों वाले तीन राज्य
उत्तर प्रदेश | 68% |
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हरियाणा | 59% |
बिहार | 48% |
यहां तक कि जिन राज्यों में अनुसूचित जाति के लोगों की जनसंख्या 15 प्रतिशत से ऊपर है वहां भी पुलिस अधिकारियों में उनके लिए नीयत कोटा की अनदेखी की गई है। पुलिस बलों में मुसलमानों की हिस्सेदारी के आंकड़े भी उत्साहजनक नहीं है। जम्मू-कश्मीर को छोड़कर 1999-2013 के बीच देश के बाक़ी पुलिस बलों में मुसलमानों की हिस्सेदारी 3–4 प्रतिशत रही है। यह भारत की आबादी में उनकी हिस्सेदारी (2011 का जनगणना में 14.2 प्रतिशत) से काफी कम है।
बहरहाल, इस मामले में कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के पुलिस रिफॉर्म कार्यक्रम से जुड़ी रही तहमीना का कहना है कि पुलिस बलों में जब तक कमज़ोर तबक़ों और महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं होगा तब तक उनको समुचित न्याय की बात छोड़िए अपनी शिकायत करने का मौक़ा मिलना भी मुश्किल रहेगा।
(कॉपी संपादन : नवल/सिद्धार्थ)
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